वायु पुराण के अनुसार पितृ पक्ष की कथा, आप भी जानें

पितृ पक्ष शनि श्राद्ध पक्ष जोकि भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन माह की अमावस्या तक रहता है। इन 16 दिनों के दौरान पितृों की आत्मा की शांति के लिए जो भी भोजन आदि पितृों को श्रद्धा पूर्वक अर्पित किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मण को भोजन करवाने का विधान धर्म शास्त्रों में बताया गया है। और श्राद्ध पक्ष के दौरान आपके द्वारा अपने पितृों का जल तर्पण किया जाता है। अनेक धर्म ग्रंथों में श्राद्ध की कथा और श्राद्ध करने की विधि बताई गई हैं। तो आइए आप भी जाने वायु पुराण के अनुसार श्राद्ध पक्ष की कथा।
वायु पुराण के अनुसार आर्यावृत के पूर्व में कोलाहल नाम के पर्वत पर गया नामक असुर ने हजारों वर्षों तक कठोर तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी को उसे वरदान देने के लिए कहा। भगवान विष्णु के कहने पर ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ गयासुर के पास पहुंचे। और भगवान ब्रह्माजी ने गयासुर से वरदान मांगने को कहा। भगवान ब्रह्मा जी के कहने पर गयासुर ने ब्रह्माजी से वरदान मांगा कि समस्त देवताओं और ऋषियों का पुण्य उसे प्राप्त हो जाए। और मेरा शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए। और लोग मेरे दर्शन मात्र से ही पाप मुक्त हो जाएं। गयासुर के द्वारा ऐसा वरदान मांगने पर ब्रह्माजी और सभी देवताओं ने तथास्तु कह दिया। देवताओं के इस वरदान का ऐसा परिणाम हुआ कि जो भी उसके दर्शन करता वह पापमुक्त हो जाता था। गयासुर के पास जाने वाला हर जीव स्वर्ग को जाने लगा। विधि के विधान को समाप्त होता हुआ देखकर ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के आदेश पर गयासुर के पास गए। और उन्होंने कहा कि हे! परम पुण्य गयासुर मुझे ब्रह्मयज्ञ करना है। और तुम्हारे समान पुण्य भूमि मुझे कही और नहीं मिलेगी। अत: तुम अपने 20 कोस में व्याप्त शरीर को मुझे प्रदान करों। ब्रह्माजी के श्रीमुख से ऐसा सुनकर गयासुर ने अपना शरीर ब्रह्मा जी को दे दिया। और जब यज्ञ प्रारंभ हुआ तो उसका शरीर हिलने लगा। ब्रह्माजी ने नाभि प्रांत से उसे संतुलित किया। तथा भगवान विष्णु ने गयासुर की छाती पर अपने चरण रखें। और अपनी गदा से गयासुर के कंपन को संतुलित किया। छाती पर श्रीहरि भगवान विष्णु जी की चरण छाप पड़ने पर गयासुर का अहंकार समाप्त हो गया। और उसने मरते समय भगवान विष्णु से वरदान मांगा कि इस यज्ञ क्षेत्र में विष्णु पाद पर जिसका भी श्राद्ध हो उसे सदगति मिले। और भगवान श्रीहरि विष्णु जी ने गयासुर की इस मंगल कामना का आदर किया। और उसे भी सदगति प्रदान की। तथा वरदान भी प्रदान किया। तभी से उस संपूर्ण 20 कोस का नाम गया पड़ गया। और भगवान ब्रह्मा जी ने उस भूमि को श्राद्ध कर्म की भूमि घोषित कर दिया। शास्त्रों के अनुसार गया जी में तर्पण करने से पितृों की तृप्ति होती है।
वायु पुराण में तो यह भी कहा गया है कि गया की ओर मुख करके श्राद्ध-तर्पण करने से पितृों को मुक्ति मिल जाती है। जो भी व्यक्ति गया में अपने पितृों का पिंडदान करता है उसके पितृ तृप्त हो जाते हैं। गया में श्राद्ध कर्म करने से पितृों को बैकुंठ की प्राप्ति होती है। पितृ पक्ष में पितृों का श्राद्ध और तर्पण करना अत्यंत आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा नहीं करता है तो उसे अपने पितृों का श्राप लगता है। लेकिन शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध करने के बाद जितना जरुरी ब्राह्मण और भांजे को भोजन करवाना होता है। उतना ही जरुरी कौआ को भोजन कराना भी होता है। माना जाता है कि कौआ पितृ पक्ष के दौरान हमारे पितृों का रूप धारण करके पृथ्वी पर आते हैं।
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