लक्ष्मण जी को श्रीराम ने बताया भगवान को प्रसन्न करने का मार्ग, जानें पूरी कहानी

बनवास काल में अगस्त मुनि की सलाह पर दंडकवन में गोदावरी नदी के तट पर पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर प्रभु श्रीराम जानकी माता और लक्ष्मण जी के साथ रहने लगे थे। एक बार प्रभु श्रीराम आराम करने बैठे थे, तभी उनके सामने उनके छोटे भाई लक्ष्मण जी ने प्रश्न किया कि, प्रभु ज्ञान-वैराग्य और माया क्या है। आप मुझे वह भक्ति भी बताइए जिसके कारण आप लोगों पर दया करते हैं।
लक्ष्मण जी की जिज्ञासा को शांत करते हुए श्रीराम ने कहा कि, मैं और मेरा, तू और तेरा ही माया है। जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है। इंद्रियों के विषय में जहां तक मन जाता है, वह सब माया ही है और माया के भी दो रुप हैं। एक विद्या और दूसरी अविद्या।
अविद्या दोषियों का वह कर्म है जिसके वश में होकर जीव स्नेह में पड़ा रहता है। वहीं विद्या के वह गुण है जो जगत की संरचना करते हैं। वह प्रभु से प्रेरित होती है, उसका अपना बल कुछ भी नहीं होता है।
प्रभु श्रीराम ने लक्ष्मण जी को बताया कि, ज्ञान वह है जब मान-अभिमान आदि एक भी दोष नहीं हो और प्राणी सभी में समान रुप से ब्रह्म को देखता है।
वहीं गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते हैं और वहीं गीता के 13वें अध्याय में ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि, सम्मान-दंभ, हिंसा, क्षमता रहित आचार्य सेवा का भाव है। अपवित्रता और अस्थिरता इंद्रियों का विषय है। आशक्ति, अहंकार जन्म-मृत्यु और शरीर की अनुभूति करना आदि दोष ना हों तथा तत्वज्ञान द्वारा प्रभु परमात्मा के अंत:दर्शन जो प्राणी करता है, वहीं व्यक्ति ज्ञानी कहलाने योग्य है।
(Disclaimer: इस स्टोरी में दी गई सूचनाएं सामान्य मान्यताओं पर आधारित हैं। Haribhoomi.com इनकी पुष्टि नहीं करता है। इन तथ्यों को अमल में लाने से पहले संबधित विशेषज्ञ से संपर्क करें।)
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