Teachers Day Importance Speech Essay: शिक्षक दिवस का महत्व, यहां पढ़ें शिक्षक दिवस का सबसे बेहतरीन भाषण व निबंध

Teachers Day Importance Speech Essay: शिक्षक दिवस का महत्व, यहां पढ़ें शिक्षक दिवस का सबसे बेहतरीन भाषण व निबंध
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शिक्षक दिवस 2019 (Teachers Day 2019) में हर साल की तहर 5 सितंबर (5 September) को विद्वान दार्शनिक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन (Dr Sarvepalli Radhakrishnan Birthday) के रूप में मनाया जाएगा, शिक्षक दिवस का महत्व (Teachers Day Importance) हमारे जीवन में सबसे अधिक होता है, शिक्षक दिवस पर भाषण (Teachers Day Speech) या शिक्षक दिवस पर निबंध (Teachers Day Essay) लिखना है तो हम आपके लिए प्रेफेसर बल्देव भाई शर्मा (Professor Baldev Sharma) द्वारा लिखित सबसे बहतरीन शिक्षक दिवस पर भाषण और शिक्षक दिवस पर निबंध।

Teachers Day Importance Speech Essay In Hindi भारतभूमि में प्राचीन काल से ही गुरु को समाज में ईश्वर तुल्य माना जाता रहा है। अनेक कवियों और विद्वानों ने गुरु की महिमा को रेखांकित किया है। हालांकि बदलते समय के अनुसार शिक्षा, शिक्षक और शिक्षण के स्वरूप और उनके उद्देश्य में परिवर्तन आया है लेकिन इस बात में संदेह नहीं कि शिक्षक यदि अपने दायित्वों का निस्वार्थ भाव से निर्वहन करे तो एक बेहतर समाज और सशक्त देश का निर्माण संभव है। शिक्षक के बहुआयामी-गरिमामयी भूमिका को रेखांकित करता प्रो. बल्देव भाई शर्मा का सबसे बेस्ट आलेख, जो आपके लिए शिक्षक दिवस पर भाषण और शिक्षक दिवस पर निबंध लिखने में मददगार साबित होगा...

एक हिंदी फिल्म है 'बैजू बावरा', अपने जमाने में बड़ी लोकप्रिय हुई और फिल्म से भी ज्यादा लोकप्रिय हुए उसके गीत, जो आज भी कहीं सुनने को मिल जाएं तो मन को बांध लेते हैं। ऐसा ही एक बड़ा-सा सार्थक गीत है, उस फिल्म का 'गुरु बिनु ज्ञान कहां से पाऊं, दीजो दरस हरि गुन गाऊं।' यह गुरु ही जीवन की सही राह दिखाता है, व्यक्ति को ज्ञान संपन्न यानी आजकल की भाषा में कहें तो नॉलेजफुल बनाता है। उसका सान्निध्य मिले तो नर से नारायण बनने का मार्ग सुगम हो जाता है यानी गुरु का दरस-परस हरि से मिलाने की भी सामर्थ्य रखता है। इसके लिए जरूरी है गुरु-शिष्य के बीच विश्वास, निस्वार्थता और मन की पवित्रता का संबंध। कबीर ने इस संबंध को बड़े सुंदर तरीके से निरूपित किया है-

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गुरु तो ऐसा चाहिए, शिष सों कुछ न लेय,

शिष तो ऐसा चाहिए, गुरु को सरबस देय।

गुरु-शिष्य का यह संबंध अत्यंत उदात्त भाव के साथ भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है और अनगिनत कथा-प्रसंग इसके प्रेरणा बिंदु हैं।

निभाते हैं बहुआयामी भूमिका

इस बदलते दौर में भारत की गुरु-शिष्य परंपरा अब शिक्षक-विद्यार्थी के रूप में सामने है। इस कालखंड में भी अनेक आदर्श शिक्षकों के जीवन प्रसंग नौजवानों के लिए प्रेरणास्पद हैं। इन्हीं में से एक डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे, जो भारत के राष्ट्रपति भी रहे, आदर्श शिक्षक के रूप में प्रख्यात हैं और उन्हीं के जन्म दिवस 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। वास्तव में शिक्षक ही किसी भी समाज और देश की सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का सूत्रधार होता है। बच्चे और युवा जिन्हें हम देश के भविष्य या आने वाले कल का कर्णधार कहते हैं, उनके मन और जीवन को गढ़ने का काम शिक्षक ही करता है। व्यक्ति को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया की भावभूमि शिक्षक ही तैयार करता है। इसलिए शिक्षक बनना सिर्फ एक जीविकोपार्जन का साधन या नौकरी भर नहीं है, बल्कि समाज और देश का भविष्य गढ़ने की व्यापक संकल्पना है।

बदल गए शैक्षिक मूल्य

आज भौतिकता के बढ़ रहे प्रकोप के बीच धन, सुविधा और पद ही उपलब्धि का पैमाना माने जाने लगे हैं। शिक्षा का अर्थ करियर मात्र रह गया है और गुरु यानी शिक्षक उसका माध्यम भर। रही सही कसर गूगल गुरु या इंटरनेट पूरी कर देता है। शिक्षक और विद्यार्थी का संबंध ज्यादातर 'इस हाथ ले-उस हाथ दे', जैसा ही होता चला गया है। परंतु जीवन का मर्म और आत्मतत्व का बोध गुरु के बिना कहां मिल सकता है? पर आज लालसाओं से भरी जिंदगी जिस तेजी से दौड़ रही है, उसमें यह होश ही किसे है कि बहुत कुछ पाने की चाह में हम कहां आ खड़े हुए? जब थककर मन संभलता है तो महसूस होता है कि इतना कुछ हासिल करके भी हाथ खाली और मन बेचैन, जिन 'अपनों' के लिए ये सब किया, वे साथ होकर भी अपने न रहे। यह कौन-सी शिक्षा है, जो किसी को डॉक्टर बनकर भी मरीज की किडनी निकालकर बेचना सिखा देती है? या इंजीनियर बनकर बिल्डिंग और पुलों का लोहा-सीमेंट हड़पकर उन्हें खोखला बना देने और निर्दोष लोगों की जिंदगी छीन लेने को अनैतिक नहीं मानती? एक उच्च प्रशासनिक अधिकारी को भी रेल की पटरियों पर आत्मघात कर स्वयं को समाप्त करने को मजबूर कर देने वाली कौन-सी शिक्षा है? उद्देश्यपरकता आज एक बड़ी चुनौती बनकर शिक्षक और विद्यार्थी के सामने खड़ी है।

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गुरु बनाते हैं विद्यावान

पढ़े-लिखे और उच्च शिक्षित लोगों के बीच पनप रहीं, ये भयावह स्थितियां इसलिए हैं क्योंकि शिक्षा सिर्फ रोजगार और करियर का साधन भर बना दी गई और उसमें से मानवीय चेतना और सामाजिक संवेदना का तत्व समाप्त होता चला गया। इसी आत्म तत्व को जानने के लिए नचिकेता ने यमराज से गहन संवाद किया और कितने ही भय और प्रलोभन उसे डिगा न सके। अंतत: उसे यमराज का दिया यह ज्ञान 'नचिकेता अग्नि' के नाम से ख्यात हुआ। ज्ञान और शिक्षा में इस तत्व की अनुभूति गुरु या शिक्षक ही कराता है। वही शिक्षा को व्यापक जीवन दृष्टि का संस्कार देकर उसे विद्या बनाता है, तब विद्यार्थी सिर्फ शिक्षित नहीं, विद्यावान बनता है। तब वह समझ पाता है कि शिक्षा सिर्फ पढ़ाई-लिखाई और उच्च ज्ञान प्राप्त करना या रोजगार और करियर के ऊंचे पायदान पर खड़ा कर देने का माध्यम भर नहीं है। शिक्षा, गुरु के संस्पर्श से नरेंद्र नाथ दत्त को विवेकानंद बनाने की पारसमणि है। यह शिक्षक और विद्यार्थी को समझना है कि शिक्षा को किन अर्थों में लें और दें। हमारे शास्त्रकारों ने विद्या का जो सामर्थ्य निरूपित किया है, शिक्षकों की जिम्मेदारी है कि वे विद्यार्थियों को आवश्यक विषयों में पारंगत बनाने के साथ-साथ उनके मानस में इस भाव बोध को भी अंकित करें-विद्यानाम नरस्य रूपमधिकं, प्रछन्नगुप्तं धनम्,

विद्या भोगकरी यश: सुखकरी, विद्या गुरुणां गुरु:।

शिक्षण के उद्देश्य

भौतिक लालसाएं पूर्ण करना तो शिक्षा का बहुत छोटा अंश है। विद्या इनकी उपेक्षा नहीं करती, वह ये सब तो देती ही है, लेकिन इसी को शिक्षा मान लेना नादानी है। इसीलिए विवेकानंद ने कहा कि शिक्षा मनुष्य की दिव्यता को प्रकट करने का सशक्त माध्यम है। शिक्षक यदि इस व्यापक दृष्टिकोण के साथ अपना दायित्व निर्वहन करें तो शिक्षा और शिक्षण में व्याप्त विसंगतियों को दूर किया जा सकता है।

परमेश्वर से भी उच्च पद

भारत के जीवन-दर्शन में गुरु की महिमा बार-बार गाई और बताई गई है। शास्त्रों में इस तरह के आख्यान भरे पड़े हैं। गृ धातु से गुरु शब्द की रचना बताते हुए 'निरुक्त' में उल्लेख है-

यो धर्म्यान शब्दान गृनात्युपदशिति स गुरु:

स पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।

यानी जो सत्य धर्म का प्रतिपादक है, सकल विद्यायुक्त वेदों का उपदेशकर्त्ता है। सृष्टि के आदि में अग्नि-वायु-सूर्य-अंगिरा और ब्रह्मा जैसे गुरुओं का भी गुरु है, जिसका नाश कभी नहीं होता, उस परमेश्वर का नाम गुरु है। इसीलिए संत कबीर ने गुरु को परमेश्वर (गोविंद) से भी महत्व का स्थान दिया है क्योंकि गुरु ही परमेश्वर तक पहुंचने का मार्ग दिखाता है-

बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए।

कबीर कालजयी तत्व चिंतक थे। इसीलिए उन्होंने ऐसी अनेक सामाजिक विकृतियों पर चोट की, जिन्हें वे भविष्य में घटित होते देख रहे थे। इसीलिए उन्होंने गुरु-शिष्य वृत्तियों को लेकर चेताया-

जाकर गुरु ही अंधड़ा चेला खरा निखंत

अंधहि अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।

अत: हमें संभलना होगा कि इस बदलते दौर में शिक्षा और शिक्षण की संकुचित परिभाषाओं के चलते शिक्षक और विद्यार्थी अंधकूप की ओर तो नहीं बढ़ रहे, जहां घुप्प अंधेरा है। जबकि अज्ञान, निराशा, व्यसन, विकार, भय के अंधकार से निकालकर जीवन को गुणों के प्रकाश से जगमगाना गुरु का दायित्व है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा-अंधकार निरोधित्वाद गुरुदिव्यनिधीयते। अर्थात जो जीवन में अंधकार का निरोध करे, वही गुरु कहलाता है। इस जिम्मेदारी के अनुरूप स्वयं को ढालना शिक्षक के लिए गंभीर चुनौती है।

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शिक्षा के समक्ष चुनौतियां

हालांकि इसको भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि शिक्षा क्षेत्र में बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप और सरकारों की भूमिका के कारण भी कई चुनौतियां खड़ी हुई हैं। नतीजतन स्वाधीन भारत में शिक्षा हासिए पर ही दिखती रही है। चाहे बजट हो या शिक्षा नीति, राष्ट्रीय और सामाजिक उन्नयन के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उसे प्राथमिकता शायद ही मिली हो। शिक्षा क्षेत्र में निजीकरण एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है, जिसने शिक्षा को सामाजिक सरोकार से अलग मात्र एक व्यवसाय बना दिया है और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा आमजन की पहुंच से दूर होती चली गई। सुयोग्य शिक्षकों और विश्वविद्यालयों में कुलपतियों का चयन जिस ईमानदारी और गुणवत्ता के आधार पर होना चाहिए, उसका बहुधा अभाव दिखता है। इन सब कारणों से भारत के शैक्षणिक संस्थान वैश्विक स्तर के न बन पाने की चिंता लगातार जताई जाती है। यह विडंबना ही है, जो भारत विश्वविख्यत नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला जैसे करीब एक दर्जन विश्वविद्यालयों और गांव-गांव तक फैली गुरुकुल परंपरा के दम पर विश्व गुरु कहलाया, स्वाधीन भारत में शिक्षा के क्षेत्र में हमारी कोई विश्वस्तरीय पहचान नहीं बन सकी। भले ही विदेशी शासकों ने हमारे शैक्षिक संस्थानों को नष्ट कर हमारी शिक्षा व्यवस्था को चौपट कर दिया। विशेषकर अंग्रेजी शासन में हमारी शिक्षा पद्धति के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और मानवीय चेतना के तत्व का समूल नाश किया गया। हमारी भाषाओं, खासकर संस्कृत के ताने-बाने को छिन्न-विछिन्न किया गया लेकिन स्वाधीनता के बाद जो सबसे पहला काम होना चाहिए था, इसे दुरुस्त करने का, राष्ट्रीय नेतृत्व ने दशकों तक इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। आज भी यह सबसे बड़ी चुनौती है कि शिक्षा को इस गर्त से उबारा जाए।

शिक्षक समझें अपना दायित्व

शिक्षकों की जिम्मेदारी बड़ी है, क्योंकि शिक्षक बनना केवल नौकरी या रोजगार भर नहीं है। हम चाणक्य का उदाहरण तो बड़े गर्व से देते हैं कि उसने चंद्रगुप्त मौर्य जैसा महान व्यक्तित्व खड़ा कर दिया, परंतु चाणक्य का उदात्त भाव त्याग-तप हमें नहीं सुहाता। वो कष्टकर है, लेकिन यदि सुविधा और आराम की नौकरी करनी है तो अन्य कई क्षेत्र हैं। शिक्षक बनना एक सामाजिक और राष्ट्रीय जिम्मेदारी स्वीकार करना है। अपने लाभ-हानि और सुविधा-असुविधा के गणित में लगे रहकर उस महान दायित्व को कैसे निभाएंगे? कबीर तो कह गए-

गुरु कुम्हार शिष कुंभ है

गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।

लेकिन अपने मन का खोट लेकर हम विद्यार्थी के जीवन का खोट कैसे निकालेंगे? यह प्रश्न एक शिक्षक के लिए सारे किंतु-परंतुओं से ऊपर है। हम पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को आदर्श शिक्षक मानकर उनकी खूब जय-जयकार करते हैं, परंतु उनके आदर्शों को अपने आचरण में उतारने के बारे में भी क्या सोचते हैं? आज भी कई शिक्षक हैं, जो विद्यार्थियों के प्रति समर्पित भाव से कर्तव्यरत हैं, वे वंदनीय हैं और उनसे भविष्य की उम्मीद बंधती है। कलाम साहब ने अपनी पुस्तक 'इंडिया विजन 2020' में लिखा है- 'हमें यह सोचना चाहिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम कैसा देश और समाज छोड़कर जाना चाहते हैं? इस प्रश्न का सर्वोत्तम समाधान एक शिक्षक ही दे सकता है।'

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत के पूर्व अध्यक्ष व केंद्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश, धर्मशाला में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हैं)

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