उस CM की कहानी जिसने किया था दिल्ली पर राज, लेकिन एक हार से हुईं बर्बाद

दिल्ली की वो महिला मुख्यमंत्री जिन्होंने दिल्ली में अपने नाम का ऐसा डंका बजवाया कि आज भी कांग्रेस सरकार के मंत्री अपनी जनसभाओं में उनका जिक्र किए बिना नहीं रह पाते। हाल ही में दिल्ली चुनाव के प्रचार के दौरान प्रियंका गांधी ने भी उनके नाम का जिक्र किया। क्योंकि कांग्रेस के पास वही एक नाम है जो दिल्ली के दिल में बसी थी और वो नाम है शीला दीक्षित।
शीला दीक्षित 15 साल और 25 दिन तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं। दिल्ली के दिल में वो कुछ इस तरह से बसी थी कि दिल्ली की जनता ने उन्हें तीन बार मुख्यमंत्री पद के लिए चुना। लेकिन 2013 के दिल्ली चुनाव में कांग्रेस सरकार हार गई और शीला दीक्षित ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
दिल्ली में शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री पद का सफर
1984 से 1998 तक आम चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने के बाद 1998 में उन्होंने दिल्ली विधानसभा चुनाव की तरफ अपना कदम बढ़ाया। इस चुनाव में उन्होंने गोल मार्केट निर्वाचन क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ा जिसमें उन्हें विजयी प्राप्त हुई। इस चुनाव में उन्होंने बीजेपी की प्रत्याशी कीर्ति आजाद को 5667 वोटों से हराया था। बता दें कि उस चुनाव में कांग्रेस को 70 में से 52 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। दूसरी बार 2003 में भी उसी विधानसभा क्षेत्र से लड़कर वो दिल्ली की मुख्यमंत्री पद के लिए चुनी गई। जिसमें उन्होंने बीजेपी की प्रत्याशी पूनम आजाद को 12935 वोटों से हराया था।
2008 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में उन्होंने नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था जिसमें उन्होंने बीजेपी के प्रत्याशी विजय जौली को 13982 वोटों से हराया था। जिसके बाद उन्हें तीसरी बार दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया था। दिल्ली में उनके सफर का अंत उस वक्त हो गया जब दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल का प्रवेश हुआ। अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने इतना पसन्द किया कि वो 25864 वोटों से जीत गए। जिसके बाद शीला दीक्षित ने 8 दिसंबर 2013 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
शीला दीक्षित में क्या था खास
बचपन से ही शीला दीक्षित बड़े सपने देखा करती थी। इन्हीं सपनों में एक था - प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलना। एक दिन उन्होंने तय किया कि वो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिल कर रहेगी और बस वो घर से निकल पड़ी। बता दें कि ये बात उस वक्त की है जब भारत में टीवी तक की शुरुआत नहीं हुई थी। आप सोच सकते हैं कि आज के जमाने में लड़कियों पर इतने प्रतिबंध हैं तो उस जमाने में क्या हाल होगा। उस समय 15 साल की शीला जवाहर लाल नेहरू के तीन मूर्ति भवन जवाहर लाल नेहरू से मिलने पहुंच गई। जिस वक्त वो वहां पहुंची, उस वक्त जवाहर लाल नेहरू अपनी कार से गेट के बाहर ही निकल रहे थे। दरबान ने भी शीला को बच्ची जानकर अंदर जाने दिया। शीला ने प्रधानमंत्री को देखकर हाथ हिलाया और जवाब में प्रधानमंत्री ने भी उसी तरीके में शीला को जवाब दिया। आज के इस नए जमाने में भी किसी के पास इतनी हिम्मत नहीं है कि वो प्रधानमंत्री के आवास पहुंच जाए। लेकिन उस जमाने में भी शीला दीक्षित में इतनी ज्यादा हिम्मत भरी हुई थी। बस इसी हिम्मत के कारण उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ही पार्टी से शीला दीक्षित ने चुनाव लड़ा और तीन सालों तक लगातार जीतती रहीं।
कांग्रेस में कब मिली जगह
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ही शीला दीक्षित को अपने मंत्रीमंडल में संसदीय कार्यमंत्री के रूप में शामिल किया। बाद मे उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री के रूप में जगह दी गई। फिर 1998 में सोनिया गांधी के द्वारा उन्हें दिल्ली प्रदेश का अध्यक्ष बनाया गया।
शीला दीक्षित के नजर में उनकी सबसे बड़ी उपलब्धी
शीला दीक्षित का ने कहा था कि अपने कार्यकाल में किए गए कामों में से उन्हें कुछ कामों पर ज्यादा गर्व महसूस होता है। जिनमें मेट्रो, सीएनजी, स्कूल, हॉस्पिटल्स और दिल्ली की हरियाली शामिल है। उनका कहना था कि इन सभी कामों के कारण सिर्फ दिल्ली के ही नहीं, दूसरे राज्यों से भी आए लोगों की जिन्दगी बेहतर हो पाई। बता दें कि शीला दीक्षित ने कई यूनिवर्सिटी बनवाए और ट्रिपल आईटी की भी स्थापना की। उन्होंने पहली बार लड़कियों के बीच सेनेटरी नैपकिन भी बंटवाए जिन्हें लड़कियां अपने साथ स्कूल भी ले जा सकती थी।
अरविंद केजरीवाल से कैसे हार गई शीला दीक्षित
शीला दीक्षित से पूछा गया कि दिल्ली के दिल में बसने वाली शीला दीक्षित को दिल्ली की जनता ने कैसे हरा दिया? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने ऐसे-ऐसे वादे कर दिए कि दिल्ली की मासूम जनता उनकी बातों मे आ गई। फ्री बिजली, फ्री पानी जैसी बातों का ऐसा असर हुआ कि अरविंद केजरीवाल चुनाव जीत गए। लेकिन बात इतनी छोटी भी नहीं थी। शीला दीक्षित ने कहा कि एक कहावत है न कि विपक्ष को कभी कमजोर नहीं समझना चाहिए। हमने वही गलती कर दी। हमने अरविंद केजरीवाल को गंभीरता से नहीं लिया और यही हमारी सबसे बड़ी गलती थी। इसके साथ ही निर्भया, 2जी और 3जी घोटालों का भी हमपर बहुत असर पड़ा।
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