जब खत्म होने की कगार पर था आशा पारेख का करियर, Interview में खोले ये बड़े राज

जब खत्म होने की कगार पर था आशा पारेख का करियर, Interview में खोले ये बड़े राज
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आशा पारेख उस जमाने की अभिनेत्री हैं, जब फिल्मों में काम करना इतना आसान नहीं था। उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा। वहीं फिल्म सेट पर भी शूटिंग करना बेहद मुश्किल होता था। हरिभूमि से खास बातचीत में आशा पारेख ने अपने करियर के कुछ अनसुने किस्सों को साझा किया। पढ़ें पूरा इंटरव्यू...

Asha Parekh Exclusive Interview: पिछले दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने गुजरे जमाने की सुप्रसिद्ध अभिनेत्री आशा पारेख को भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च पुरस्कार 'दादा साहेब फाल्के' से सम्मानित किया। आशा पारेख 60-70 के दशक की लोकप्रिय नायिकाओं में शामिल रही हैं। उस दौर के सभी नामी नायकों के साथ उन्होंने काम किया। आशा पारेख ने अपने पांच दशक के करियर में 95 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। भारत सरकार उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित कर चुकी है। पूजा सामंत ने हरिभूमि के लिए आशा पारेख से लंबी बातचीत की। उन्होंने बहुत ही खुलकर बात की और बताया अपनी अभिनय यात्रा के दौरान कैसे उतार-चढ़ाव देखे, जीवन के कैसे खट्टे-मीठे अनुभव रहे।

दादा साहेब फाल्के पुरस्कार पाने की मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी

फिल्म इंडस्ट्री के लिए दादा साहेब फाल्के पुरस्कार बहुत ही सम्माननीय पुरस्कार है। इस पुरस्कार को पाने की मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। मुझे इसे मिलने की जब सूचना मिली तब मैं बोस्टन (यूएसए) में थी, वहां मेरा सम्मान समारोह था। यहां तक कि जब 30 सितंबर को दिल्ली में उपस्थित होकर दादा साहेब फाल्के पुरस्कार ग्रहण करने का निमंत्रण मिला, तब भी मुझे झूठ लग रहा था। खैर, इस सम्मान को पाकर मैं बेहद खुश हूं।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और आशा पारेख

वहीदा और हेलेन मुझे अलग से सम्मानित करना चाहती हैं

मुझे दादा साहेब फाल्के पुरस्कार मिलने पर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों की बहुत अच्छी प्रतिक्रिया है। अब तक तीन सौ से अधिक व्हाट्सएप बधाई संदेश आए हैं। मेरी सहेलियां वहीदा रहमान और हेलेन, दोनों अलग से मुझे सम्मानित करना चाहती हैं। वहीदा ने कहा है, मैं लिस्ट बना रही हूं कि किसे-किसे इस समारोह में आमंत्रित करना है। मैंने दोनों से कहा, इस गेट-टु-गेदर में अगर सिर्फ हम तीनों ही शामिल हों तो आप दोनों की कंपनी मुझे ज्यादा खुशी देगी। बहुत जल्द हम तीनों मिलकर मुझे फाल्के पुरस्कार मिलने को सेलिब्रेट करेंगे। साउथ फिल्म इंडस्ट्री से महेश बाबू का भी बधाई देता बड़ा-सा लेटर आया है। कई लोगों ने गुलदस्ते भेजे हैं। मैं इस प्यार भरे स्वागत से गद्गद् हूं। सभी का शुक्रिया!

वहीदा-हेलेन के साथ आशा पारेख

ऐसे आ गई फिल्मों में

मैं अपने मां-पिता की इकलौती संतान थी। उनकी आंखों का तारा थी। उन्होंने मुझे अपना पूरा लाड़-प्यार दिया, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखा कि मैं लाड़ में कभी बिगड़ न जाऊं। रात को वक्त पर सोने, सुबह जल्दी उठने की आदत मुझे लगवाई। स्कूल का होमवर्क मैं स्वयं करूं, इस बात का ध्यान रखा। मुझे डांस करना अच्छा लगता है, यह देखकर मां ने मुझे डांस क्लास भेजना शुरू किया। मैं अपने स्कूल के कल्चरल प्रोग्राम्स में भी परफॉर्म करती थी। मेरे सोलो डांस शोज होते थे। एक बार मुझे स्टेज पर डांस करते हुए नामी फिल्ममेकर बिमल रॉय ने देखा। उन्होंने मेरे पिताजी से बात करके मुझे अपनी फिल्म 'बाप-बेटी' में कास्ट किया। लेकिन यह फिल्म असफल रही। मैंने एक-दो फिल्में और कीं, वो भी नहीं चलीं। मैं मायूस हो गई। इसके बाद मैं पढ़ाई में जुट गई।

खत्म होने के कगार पर था मेरा करियर

फिल्म 'गूंज उठी शहनाई' का मुझे ऑफर आया, मेरा सेलेक्शन भी हुआ, लेकिन फिल्म शुरू होते ही निर्देशक विजय भट्ट ने मुझे इस फिल्म से आउट कर दिया। इतना ही नहीं, वे हर मेकर से यह कहने लगे कि मेरे पास स्क्रीन प्रेजेंस नहीं है। मैंने उनका क्या बिगाड़ा था, भगवान जाने। उनके इस दुष्प्रचार से मेरा करियर शुरू होने से पहले ही खत्म होने की कगार पर पहुंच गया। उसी दौरान फिल्मालय स्टूडियो के सर्वेसर्वा और मशहूर फिल्म मेकर शशधर मुखर्जी (काजोल के दादाजी) ने मुझे अपनी फिल्म 'दिल दे के देखो' में कास्ट करना चाहा, तब मैं सोलह साल की थी, स्कूल स्टडी खत्म हुई थी। इस फिल्म के लेखक नासिर हुसैन थे। निर्देशक जसवंत लालजी ने मेरा स्क्रीन टेस्ट लिया। मेरा एक क्लोज-अप उन्होंने मुखर्जी साहब और नासिर हुसैन को भेजा। क्लोजअप दोनों को पसंद आया। अगले ही सप्ताह जब शम्मी कपूर का एक दिन फ्री था, उस दिन यह तय हुआ कि शम्मीजी के साथ एक शॉट साधना और एक शॉट आशा देंगी। जो स्क्रीन पर शम्मी कपूर के साथ अच्छी दिखेगी, उसे फाइनल किया जाएगा। जब शम्मी आए, मैं वहीं थी, लेकिन साधना को आंखों में कुछ प्रॉब्लम हो गई, इसलिए वो नहीं आ सकीं। पूरा दिन जब मेरे साथ शम्मी की शूटिंग हुई, तो इस फिल्म के रशेस देखने पर मेरा काम, लुक, स्क्रीन प्रेजेंस नासिर हुसैन और एस. मुखर्जी दोनों को पसंद आए। इस तरह मुझे अपने करियर की बतौर हीरोइन पहली फिल्म 'दिल दे के देखो' मिली, जो सुपरहिट हुई।

मैं स्टार एक्ट्रेस थी

लकली मैंने जितनी भी फिल्में कीं, उनमें से ज्यादातर सफल रहीं, सिल्वर-गोल्डन जुबिली रहीं। बहरहाल, मैं नहीं जानती कि क्या वाकई मैं अपने दौर की हाईएस्ट पेड एक्ट्रेस रही हूं। मैग्जींस में मेरे कॉस्मिक, मेरी हेयर स्टाइल्स, मेरे डांसेस पर लिखा जाता था। मैं स्टार एक्ट्रेस थी, यह सच है।

आगे की जिंदगी मुझे सुकून से बितानी है

मैंने अपने करियर में खोया कुछ नहीं, सिर्फ पाया ही है। आगे की जिंदगी मुझे सुकून से बितानी है। मैं अमेरिका कई बार गई हूं लेकिन अभी पूरी दुनिया देखनी है। अपने देश में भी कई पर्यटन स्थल देखने लायक हैं, इन्हें भी देखना है। कई किताबें पढ़नी हैं। हां, मेरा वक्त सोशली रिलेवेंट भी हो, यह प्रयास भी रहेगा। पिछले कई वर्षों से मैं फिल्म इंडस्ट्री वेलफेयर फंड की अध्यक्ष हूं। फिल्म इंडस्ट्री के कई मेहनतकश वर्कर्स को इस वेलफेयर संस्था से लाभ हो, इसके लिए मेरी कोशिश रहेगी। जहां तक खोने की बात है, तो अपनी पर्सनल लाइफ में अगर मैंने कुछ खोया है तो मैंने अपने दिल के सबसे करीब रहे अपने माता-पिता को खोया है। मेरे लिए मां मेरी फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड थीं। मुझे लगता है, मैं अपनी मां को ज्यादा वक्त नहीं दे पाई। अपने हॉस्पिटल (आशा पारेख हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर) के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए मैं काफी स्टेज शोज करती थी। हॉस्पिटल का सेटअप तैयार करने के लिए मेरा काफी वक्त इसके मैनेजमेंट में जाने लगा। साथ में फिल्मों की शूटिंग, स्क्रिप्ट रीडिंग, कॉस्ट्यूम ट्रायल्स, स्टेज शोज जैसे कई तरह के और काम थे। मैं सुबह 8 बजे घर से निकलती, रात 10 बजे से पहले नहीं लौटती थी। मां ने एक बार तंज किया, 'आशा घर क्यों आती हो? हॉस्पिटल में ही रहा करो।' दरअसल, मेरी मां मुझे मिस करती थीं।

आशा पारेख की फोटो।

इन बातों से हुई आहत

लाइफ में कई बार मैं हर्ट भी हुई हूं। मैं जब सेंसर बोर्ड के लिए काम करती थी। उस दौरान जब कुछ फिल्मों को मैंने यू सर्टिफिकेट नहीं दिए तो उन फिल्मों के मेकर्स मुझसे खफा हो गए। इसी तरह फिल्म इंडस्ट्री वेलफेयर ट्रस्ट के लिए काम करना भी कांटों भरी कुर्सी पर बैठने जैसा था। जिन बातों से मैं आहत हुई, उन्हें मैं याद नहीं करना चाहती। मैंने कई संस्थाओं के लिए दिन-रात एक करके काम किया, जिससे संस्था को फायदा भी हुआ, लेकिन मुझे क्रेडिट देना तो छोड़िए, मेरा नाम तक नहीं लिया गया। ऐसे में मेरी भावनाओं को ठेस पहुंचना स्वाभाविक था। ऐसे कड़वे अनुभवों के बाद भी मैं आगे भी अपनी फिल्म इंडस्ट्री के लिए काम करते रहना चाहूंगी।

सभी को-एक्टर्स के साथ कार्डियल रिलेशन रहे

मैंने कई नामी हीरोज देव आनंद, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, मनोज कुमार, जितेंद्र के साथ फिल्में कीं। इन सब के साथ मेरे कार्डियल रिलेशन रहे। लेकिन शम्मी कपूर के साथ रिश्ते बहुत पारिवारिक बने। फिल्मों में मेरी-उनकी रोमांटिक जोड़ी हुआ करती थी, लेकिन असलियत में मैं उन्हें चाचू कहती थी। शम्मीजी की पत्नी नीला देवी को मैं चाची कहती हूं। शम्मीजी गुजर गए पर नीलाजी अभी भी मेरे संपर्क में हैं। हमारी उनसे फोन पर बातें होती रहती हैं। वह मेरा जन्मदिन कभी भूलती नहीं, विश करने के लिए फोन जरूर करती हैं।

'दिल दे के देखो' में शम्मी कपूर के साथ

देव आनंद से थे प्रोफेशनल रिलेशन राजेश खन्ना डरते थे मुझसे

देव साहब बहुत मस्तमौला इंसान थे। उनकी अपनी दुनिया थी, जिसमें वो मशगूल रहते थे। उन्हें खुद की पर्सनालिटी, इमेज पर बहुत नाज था। उनसे हमारे प्रोफेशनल रिलेशन थे। राजेश खन्ना मुझसे थोड़ा डरते थे, वैसे भी वो इंट्रोवर्ट थे। हुआ यूं कि राजेश खन्ना की डेब्यू फिल्म 'बहारों के सपने' के लिए एक बड़ी अभिनेत्री को राजेश खन्ना के अपोजिट साइन किया गया था। लेकिन उस अभिनेत्री ने इस फिल्म को करने से मना कर दिया। नासिर हुसैनजी ने मुझसे कहा कि यह फिल्म तुम कर लो। मेरे पास डेट्स नहीं थीं। नासिर साहब ने कहा, 'तुम्हारी डेट्स मैं एडजस्ट कर लूंगा, इस फिल्म को कर लो।' उनके कहने पर मैंने राजेश खन्ना के अपोजिट फिल्म कर ली, जबकि मैं तब स्टैब्लिश एक्ट्रेस थी, राजेश खन्ना की यह डेब्यू फिल्म थी। उनसे सीनियर होने की वजह से राजेश खन्ना मुझसे डरे रहते थे।

देव आनंद और राजेश खन्ना के साथ आशा पारेख

मेरे फेवरेट डायरेक्टर

हर डायरेक्टर के साथ मैंने यादगार फिल्में की हैं। प्रमोद चक्रवर्ती, एस. एस. वासन, नासिर हुसैन, राज खोसला सभी अच्छे डायरेक्टर थे, लेकिन मेरे सबसे फेवरेट रहे- विजय आनंद (गोल्डी)। उनकी टेकिंग, सिनेमेटोग्राफी, कैरेक्टर्स की कॉम्प्लेक्सिटी, सॉन्ग पिक्चराइजेशन सभी कुछ अव्वल होता था।

मनोज कुमार ने फिल्म 'दो बदन' का चेंज करवाया था क्लाइमेक्स

राज खोसला निर्देशित फिल्म 'दो बदन' 1966 में रिलीज हुई थी। मनोज कुमार मेरे अपोजिट थे। हुआ यूं कि कहानी के एंड में हीरोइन (फिल्म में भी मेरा नाम आशा था) आशा की मौत हो जाती है। स्क्रिप्ट अनुसार मुझ पर डेथ का सीन राज खोसला जी ने शूट करवाया। मनोज जब सेट पर आए और उन्हें पता चला कि मेरा डेथ सीन शूट किया गया है तो वह बहुत नाराज हुए। उन्होंने राज खोसला से कहा, 'यह तो सरासर नाइंसाफी है। हीरोइन को फिल्म में मार दिया तो फिल्म कैसे चलेगी? ऐसा हरगिज नहीं होना चाहिए। फिल्म में हीरो को भी मारना होगा, तब कहानी कन्विंसिंग लगेगी। मनोज कुमार के कहने पर राज खोसला ने क्लाइमैक्स री-शूट किया, जिसमें मनोज कुमार की भी डेथ दिखाई गई। फिल्म जब रिलीज हुई तो यह एंड पसंद किया गया। 'दो बदन' फिल्म सुपर हिट हुई।

बहुत बदल गई है फिल्म इंडस्ट्री आज की हीरोइनें एक जैसी दिखती हैं

पिछले साठ वर्षों में फिल्म इंडस्ट्री में बहुत बदलाव आए हैं। बदलाव लगातार चलने वाली प्रोसेस है। इंडियन फिल्म इंडस्ट्री ने टेक्निकली बहुत प्रोग्रेस की है-क्या मेकअप हो, एडिटिंग हो, म्यूजिक हो, व्हीएफएक्स हो। इंडियन फिल्मों ने दुनिया को यह दिखाया है कि हमारी फिल्में किसी भी एंगल से हॉलीवुड से कम नहीं हैं। 'बाहुबली', 'आरआरआर', 'ब्रह्मास्त्र' ऐसी कितनी ही फिल्मों के नाम लिए जा सकते हैं। अब एअर कंडीशंड स्टूडियोज आ चुके हैं, पहले गर्मी में इनडोर स्टूडियोज में काम करना आसान नहीं था। हम अभिनेत्रियों के लिए अपनी ड्रेस बदलना संभव नहीं था। पेड़ों के पीछे ड्रेस बदलने पड़ते थे। पिछले बीस-पचीस वर्षों से वैनिटी वैन आ गई है, जिसमें एक्टर्स अपना शॉट देकर वैन में जाकर आराम करते हैं। अब बहुत ज्यादा कमर्शियल माहौल हो चुका है। आज की हीरोइनें एक जैसी दिखती हैं। किसी की कोई डिफरेंट हेयर स्टाइल नहीं, एक जैसा मेकअप लुक होता है, जिससे कोई डिस्टिंक्टिव स्टाइल नहीं बनती।

आशा पारेख की फोटो

चैनल्स के हस्तक्षेप बढ़ने से बंद करना पड़ा प्रोडक्शन हाउस

कुछ वर्ष पहले मैंने टीवी शोज का निर्माण-निर्देशन किया था। 'पलाश के फूल', 'बाजे पायल', 'कोरा कागज' और 'दाल में काला' जैसे सफल शोज बनाएं, निर्देशित किए। आगे चलकर मेरे काम में चैनल्स का हस्तक्षेप बढ़ता गया, जो मुझे नागवार गुजरा। मुझे मेरे कॉन्सेप्ट के अनुसार निर्देशन देना था, मुझे उनके अनुसार निर्देशन में बदलाव नहीं करने थे। आखिरकार मुझे अपना प्रोडक्शन हाउस बंद करने का फैसला लेना पड़ा।

इसलिए फिल्मों में अभिनय ना करने का फैसला लिया

पिछले कुछ वर्षों से फिल्मों में काफी कुछ बदल गया है। मुझे जो कैरेक्टर रोल मिल रहे थे, उनमें संतुष्टि वाली कोई बात नहीं थी। सुबह 9 बजे की शिफ्ट में मेरे साथ शॉट देने के लिए मेरे को-आर्टिस्ट शाम 6 बजे सेट पर आएंगे तो मैं कितना इंतजार करती? अगर बात कभी-कभी लेट आने की होती तो भी समझौता किया जा सकता है, लेकिन फिल्म-दर-फिल्म यही सिलसिला चलता रहे तो ऐसे माहौल में कैसे काम कर सकती हूं? इंडस्ट्री में कुछ ऐसे स्टार्स हैं, जो दूसरे कलाकारों की इज्जत नहीं करते हैं। मैंने ऐसे ही स्टार्स की वजह से फिल्मों में अभिनय ना करने का फैसला लिया।

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