बमफाड़ रिव्यूः परेश रावल की डेब्यू फिल्म का सिर्फ नाम धांसू, काम धड़ाम

बमफाड़ रिव्यूः परेश रावल की डेब्यू फिल्म का सिर्फ नाम धांसू, काम धड़ाम
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नासिर जमाल दर्शकों से नहीं जुड़ पाता। सदा कम दिमाग की हरकतें करता हुआ, ओवर स्मार्ट बना रहता है। उसकी मोहब्बत का अंदाज भी लुभावना नहीं है।

ऐक्टिंग की दुनिया में आने के लिए आदित्य रावल को क्या बमफाड़ से बेहतर प्लेटफॉर्म मिल सकता था। जवाब है, हां। उनके माता-पिता स्वरूप संपत और परेश रावल के पास फिल्मों का लंबा अनुभव है। मगर आदित्य ने डेब्यू के लिए जो फिल्म चुनी, उसे देख कर लगता है कि माता-पिता का अनुभव उनके काम नहीं आया। बतौर ऐक्टर आदित्य को इतने लाउड किरदार से ओपनिंग मिली है कि कहीं-कहीं लगता है, वह पहली फिल्म में एंग्री यंग मैन बनकर छा जाना चाहते हैं। जबकि उनके एंग्री होने के पीछे ठोस तर्क भी नहीं है। वह एक रसूखदार पिता की बिगड़ी औलाद बने हैं, जिसके शर्ट के दो ऊपरी बटन हमेशा खुले रहते हैं और दिमाग बंद। इसीलिए यह लड़का हर सही-गलत परिस्थिति में सामने वाले पर हावी होने की कोशश करते हुए, यही साबित करने में लगा रहता है कि 'वह किसी से पतला नहीं मूतता।'

फिल्म प्रचार डॉट कॉम के अनुसार, आदित्य का किरदार जो भी दावा करे मगर गंगा किनारे इलाहाबाद में बसी बमफाड़ की धार बहुत पतली है। अंग्रेजी के एन अक्षर वाले नासिर जमाल (आदित्य रावल) को एन अक्षर वाली नीलम भा जाती है। नीलम को इलाहाबाद में राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पाले बैठे बाहुबली टाइप जिगर फरीदी (विजय वर्मा) ने एक घर दिला रखा है, जहां वह उससे दिल बहलाने के लिए आता-जाता रहता है। होते-होते नासिर-नीलम की मोहब्बत परवान चढ़ती है और जब तक बात जिगर फरीदी तक पहुंचती है, तब तक गंगा में बहुत सारा पानी बह चुका होता है। अब आगे-आगे नासिर-नीलम और पीछे जिगर फरीदी।

इलाहाबाद से कहानी लखनऊ पहुंचती है और फिर यू-टर्न लेकर इलाहाबाद। कहानी जैसे-जैसे बढ़ती है, वैसे-वैसे बचकानी होती जाती है और अंत में कहीं की नहीं रहती। बमफाड़ ऐसा कुछ पेश नहीं करती, जो आपने बॉलीवुड की मसाला फिल्मों में पहले न देखा हो। फिल्म की स्क्रिप्ट और निर्देशन कमजोर हैं। एडिटिंग टेबल पर भी बमफाड़ नहीं संभली। इलाहाबाद के जिस मोहल्ले में नासिर-नीलम का प्यार पनपता है, वहां के दृश्य ऐसे हैं, मानो हमेशा कर्फ्यू लगता रहता है। इलाहाबाद फिल्म में कहीं अपने रंग में नहीं दिखाता।

नासिर जमाल दर्शकों से नहीं जुड़ पाता। सदा कम दिमाग की हरकतें करता हुआ, ओवर स्मार्ट बना रहता है। उसकी मोहब्बत का अंदाज भी लुभावना नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि आदित्य ने इसे निभाने में पूरी मेहनत की परंतु उनके अभिनय में यहां ऐसी बात नहीं दिखती कि वह कुछ अलग हैं। वहीं विजय वर्मा ने जिगर फरीदी के रोल में एक टोन को बरकरार रखा है और शी के बाद फिर से प्रभावित करते हैं। यह अलग बात है कि लेखक-निर्देशक उनके लिए कहानी में उल्लेखनीय दृश्य नहीं निकाल सके। शालिनी पांडे की यह पहली हिंदी फिल्म है और वह छाप नहीं छोड़ पातीं। वैसे, एक-दो दृश्यों को छोड़ उनके करने को यहां कुछ खास नहीं था। इश्क का इत्र और मुनासिब गीत जरूर संवेदना जगाते हैं। राज शेखर ने इन्हें लिखा है और संगीतबद्ध किया है विशाल मिश्रा ने।

रंजन चंदेल ने मुक्काबाज में सह-लेखन किया था। निर्देशक के रूप में यह उनकी पहली फिल्म है। वह अनुराग कश्यप स्कूल से आते हैं। बमफाड़ को उन्होंने कश्यप की भाषा और अंदाज में रचा है। उनका अपना मौलिक इसमें नहीं दिखता। आगे बढ़ने के लिए उन्हें मौलिकता की तलाश करनी होगी। कुल जमा बमफाड़ अपने नाम के अनुरूप नहीं है। सुई के कांटे बढ़ने के साथ वह धड़ाम से गिर पड़ती है।

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