एडवोकेट रघुबीर दहिया का लेख: गदर आंदोलन के महानायक करतार सिंह सराभा

जहां ताकत ही सच है, वहां दमन शोषकों का हथियार है और जिस्म की रग-रग से दर्द के नासूर रीसने लगते हैं, तब उस दर्द की आवाज दूर दूर सुनाई पडती है। इस दमन के आगे जो सीना तानकर खडे होते हैं इतिहास में वे हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं। गदर आंदोलन के अप्रतिम वीर, एक महानायक और जिनकी रग रग में सशस्त्र क्रांति भरी थी वो नाम है करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha) शहीदे आजम भगत सिंह ( Shaheed Azam Bhagat Singh) जिन्हें अपना आदर्श मानते थे और उनकी शहादत से इतना प्रभावित हुए थे कि अपने साथ आजीवन करतार सिंह सरभा का फोटो रखा।
करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha) का जन्म पंजाब के लुधियान जिले के सराभा गांव में 24 मई 1896 को एक संपन्न परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम सरदार मंगल सिंह और मां का नाम साहिब कौर था। उनकी छोटी बहन का नाम धनकौर था। उनके तीन चाचा बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश सिंह सरकारी नौकरी में बडे अफसर थे। माता-पिता खेती बाडी का काम करते थे। जब बालक करतार पांच साल के ही थे, उनके पिता मंगल सिंह की मौत हो गई। तीन साल बाद मां साहब कौर भी अकेला छोडकर चली गईं। दादा सरदार बदन सिंह ने उनकाे तथा उनकी छोटी बहन को नाजों से पाला।
दादा के पास तीन सौ एकड जमीन थी। करतार सिंह (Kartar Singh Sarabha) की प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल में हुई, इसके बाद वे कुछ समय गुजरावाला स्कूल मेें भी पढे। बाद में मालवा खालसा हाई स्कूल लुधियाना में दाखिला ले लिया लेकिन बीच में ही छोडकर अपने चाचा के पास उडीसा रहने चले गए। चाचा के पास ही रहते हुए 1911 में दसवीं की परीक्षा पास की और रेवन्शाा कॉलेज में ग्यारवीं कक्षा में दाखिला ले लिया।
दादा बदन सिंह उनके भविष्य को लेकर चिंता कर रहे थे। उन्होंने अपने पुत्रों से सलाह कर करतार सिंह (Kartar Singh Sarabha) को अमेरिका भेजने का फैसला किया। एक जनवरी 1912 में वे सान फ्रांसिस्को अमेरिका की बंदरगाह पर उतरे। अमेरिका की धरती पर कदम रखते ही जब इमीग्रेशन अफसरों का भारतीयों के साथ व्यवहार देखा तो करतार सिंह सराभा के स्वाभिमान को ठेस लगी। वे अफसर भारतीयों को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड रहे थे।
पूछताछ अधिकारी के पूछने पर करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha) ने कहा कि वो बर्कले यूनिवर्सिटी में पढने की इच्छा से यहां आया है और उनका खर्च हर महीने उनके दादा भेजेंगे। तर्कपूर्ण उत्तरों से अधिकारी संतुष्ट हो गया और इस तरह उन्हें अमेरिका में रहने की इजाजत मिली। करतार सिंह कुछ दिन अपने गांव के सरदार रूलिया सिंहे पास रहे जो 1908 से ही वहां रह रहे थे। बर्कले यूनिवर्सिटी में वे पंजाबी होस्टल में रहे। यूनिवर्सिटी में उस समय तीस भारतीय विद्यार्थी पढते थे। दिसंबर 1912 में उन्होंने वहां आए लाला हरदयाल का भाषण सुना तो समझ गए कि भारत को आजादी मिलेगी तो सशस्त्र क्रांति से ही। इसे बाद वो ज्वाला सिंह, विशाखा सिंह, बाबा सोहन सिंह भकना, केसर सिंह और कांशीराम से भी मिले और सब इस तरह से देश की आजादी के लिए अपना सब न्यौछावर करने को तैयार हो गए।
इसके बाद संभाएं शुरू हो गई। 10 मई 1913 को गदर पार्टी की स्थापना की गई। एक साप्ताहिक समाचार पत्र गदर निकालने तथा उसे मुफ्त वितरित करने का फैसला लिया गया। छापेखाने का नाम युगांतर आश्रम प्रेस रखा। गदर अखबार अंग्रेजी में प्रकाशित होता था तथा इसका अनुवाद हिंदी, उर्दू, पश्तो, पंजाबी, बंगाली, नेपाली, गुजराती में होता था। अंग्रेजी से पंजाबी में अनुवाद करतार सिंह करते थे। वह गदर अखबार चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा और बर्मा आदि देशों में भेजा जाता था, जहां भारतीय रहते थे।
गदरी योद्धाओं ने आंदोलन के लिए बहुत सारी धनराशि भी इक्ट्ठा की। बडी संख्या में हथियार भी जमा किए गए और इस तरह भारत में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति की शुरूआत हो गई। प्रथम विश्वयुद्ध को एक अच्छा अवसर मानते हुए करतार सिंह अपने साथियों के साथ भारत आने के लिए रवाना हुए। वे 15 सितंबर 1914 को बचते बचाते कोलंबो के तट पर पहुंचे और पुलिस की आंखों में धूल झोंकते हुए मद्रास से पंजाब पहुंच गए।
लगभग 8000 गदरी भारत में तब तक गदर के लिए पहुंच चुके थे। 18 साल की उम्र में सराभा ने गदरी क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। वे खुद एक अथक परिश्रमी और निर्भय योद्धा थे। उन्होंने मंजे हुए क्रांतिकारी रास बिहारी बोस को बंगाल से पंजाब बुला लिया। विष्णु पिंगले के साथ करतार सिंह ने फौज में बगावत कीि एक कारगर योजना बनाई और उस योजना को अंजाम तक पहुंचाने के लिए उन दोनों महानायकों ने मेरठ, कानपुर, लखनऊ, फैजाबाद, इलाहाबाद, अंबाला, रावलपिंडी, फिरोजपुर, आगरा और बनारस आदि छावनियों में भारतीय सैनिकों को विस्तार से बगावत और सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार किया।
21 फरवरी 1915 बगावत का दिन तय किया गया। भारत का राष्ट्रीय ध्वज भी तैयार किया गया लेकिन किरपाल सिंह नाम के लिए जासूस ने तारीख का भेद अंग्रेजी पुलिस के सामने खोल दिया। उस गद्दार के कारण पूरी योजना ही खटाई में पड गई। बहुत विचार कके 19 फरवरी की तारीख तय की गई। करतार सिंह अपने 100 क्रांतिकारी साथियों के साथ फिरोजपुर छावनी की और बढे लेकिन यहां भी किसी गद्दार ने इसकी सूचना अंग्रेजों को दी।
अंग्रेजों ने सब छावनियों से पहले ही भारतीय सैनिकों को निशस्त्र कर दिया था। बहुतों को गिरफ्तार कर यातनाएं दी जा रही थी। थोडा सा भी संदेह होने पर मृत्युदंड दिया जा रहा था। इतनी मेहनत से बनाई योजना देश के ही गद्दारों की वजह से धराशायी हो गई थी। करतार सिंह मायूम तो हुए लेकिन किसी तरह अपने साथी हरनाम सिंह के अफगानिस्तान बार्डर पहुंच गए। 2 मार्च 1915 को गंडा सिंह नाम सूचना देकर करतार सिंह सराभा को गिरफ्तार करवा दिया।
26 अप्रैल 1915 से शुरू होकर 13 सितंबर 1915 तक चलने वाले न्याय के उस नाटक में सरकार ने 404 गवाह रूपी विदूषक खडे किए। आखिर में अंग्रेजों ने अपनी चाहत पूरी करते हुए करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha) को सबसे खतरनाक क्रांतिकारीर बताया और फांसी की सजा सुनाई। 16 नवंबर 1915 को महान क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा, विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, जगत सिंह, बख्शीश सिंह, सुरैण, सुरैण सिंह को फांसी दी गई।19 साल की उम्र में अपना सर्वोच्च बलिदान देने वाले महान शहीद करतार सिंह सराभा (Kartar Singh Sarabha) के बारे में आज बच्चे बच्चे को बताने की जरूरत है ताकि शहीदों के सपने पूरे हो सकें। आज उनकी जयंती पर हम उन्हें नमन करते हैं।
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