रोहतक: जहां थी कभी बंदरों की बस्तियां, आज वहां बिखरी पड़ी हैं वानरों की अस्थियां

अमरजीत एस गिल : रोहतक
रोहतक-दिल्ली मार्ग पर स्थित अस्थल बोहर रेलवे स्टेशन से बंदरों के पलायन का पर्यावरणीय अध्ययन महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय का पर्यावरण विज्ञान विभाग करेगा। मंगलवार सुबह विश्वविद्यालय की प्रोफेसर राजेश धनखड़ पहरावर गांव के बीहड़ों में पहुंची। इन्होंने पहले यहां वह प्राकृतिक आवास देखा जहां वानर अब तक कुलाचे भरते थे। इसके बाद बंदरों की मौत की पुष्टि करने के लिए उनकी अस्थियों का भी अवलोकन किया है। इन्हें बंदर का जबड़ा, पीठ के हिस्से की कुछ हड्डियां और दिखाई दी है।
प्रो. धनखड़ का अनुमान है कि बंदर की मौत के बाद किसी जंगली जानवर ने शव का सफाया किया है। यहां कितने बंदर मरे हैं, इस बारे में प्रो. धनखड़ बताती हैं कि पूरे जंगल में खोजबीन सम्भव नहीं है। चूंकि कुछ हड्डियां हीशेष हैं। ऐसे में इनकी मौत के कारणों का भी खुलासा नहीं हो सकता है। अगर कोई पूरा शवमिले तो पोस्टमार्टम करवाकर मौत का रहस्यजाना सकता है।
कार्बन स्टोरज पर प्रतिकूल प्रभाव
पर्यावरणविदों के मुताबिक बंदर जंगल में रहते हैं। ये पेड़ों पर इधर-उधर कुलाचे मारते हैं। इस प्रक्रिया में पेड़ों के पौधे जमीन पर गिरते हैं। ये पौधे गल सड़कर मिट्टी में मिलते हैं। जिससे जमीन में कार्बन की मात्रा बढ़ती है। कार्बन की मात्रा बढ़ने से जमीन की उपजाऊ शक्ति में प्राकृतिक इजाफा होता है। कार्बन तत्व जमीन के लिए बिल्कुल वैसे हैं जैसे मानव शरीर में हीमोग्लोबिन। अगर रक्त में हीमोग्लोबिन का स्तर 13 से 16 है तो शरीर पहली नजर में स्वस्थ, वैसे ही अगर मिट्टी में कार्बन तत्व की मात्रा .5 से .75 तक (सतही मिट्टी) है तो ठीक वर्ना कुछ खराबी है। हमारी मिट्टी की सेहत बिगड़ गई है। हमारे खेत की मिट्टी में कार्बन तत्व और सूक्ष्म जीवाणुओं की मात्रा बहुत कम हो गई है।
वंशबेल के लिए जद्दोजहद
पहरावर गांव से खेड़ी साध गांव की तरफ जाने वाली सड़क पर रेलवे लाइन के साथ बने कुएं पर इस समय बचे हुए बंदरों का आवास है। पर संख्या आठ-दस से ज्यादा नहीं। इनमें दो मादा बंदर हैं, जो गर्भवती भी हैं। इनमें से एक का हाथ कटा हुआ और दूसरी का पैर। अगर प्रजनन तक ये जिंदा रही ताे यह सभी के लिए सुखद होगा, लेकिन यहां के हालात सुखदायी नहीं लग रहे हैं। दुल्हेड़ा डिस्ट्रीब्यूटरी से पानी पीकर प्यास बुझा लेते हैं, लेकिन पेट की आग शांत होने का जरिया इन्हें कोई नजर नहीं आता है। ऐसे में यहां कब तक बचें रहेंगे, सबसे बड़ा सवाल अब खड़ा हो चुका है।
भूखे दौड़ते हैं पटरियों की तरफ
रेलमार्ग से सवारी गाड़ियों की आवाजाही बंद हुई तो प्रकृति के इस प्राणी को भोजन मिलना बंद हो गया। जो प्राकृतिक जंगलों में बंदर खाते हैं। उनके ये आदी नहीं हैं। बंदरों की कई पीढ़ियाें ने यहां मानव निर्मित भोजन खाकर अपनी वंशबेल को आगे बढ़ाया। शायद खाने की प्राकृतिक चीजों से इनका पेट भरा और भूख सहन नहीं हुई। फिर इन्होंने यहां से पलायन शुरू किया। कुछ इस प्रक्रिया में ही शायद असमय मौत का शिकार हो गए। हालात ऐसे हैं कि जब रेलमार्ग पर गाड़ियों की आवाज यहां शेष बचे बंदरों को सुनती है तो भूख मिटाने के लिए रेल पटरी की तरफ दौड़ते हैं और दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं।
पहरावर में है व्यवस्था
बताया जा रहा है कि पहरावर गांव में लोगों ने बंदरों के लिए खाने की व्यवस्था की हुई है। लेकिन जो बंदर रेलवे लाइन के साथ जंगल में थे। उनकी शायद किसी ने सुध नहीं ली। जिसकी वजह से वानर भूखमरी का शिकार हुए और फिर अपना अंत देखकर यहां से कूच कर दिया। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रो. केपीएस महलवार का कहना है कि पहरावर बीहड़ से बंदर तिलियर पर्यटक केंद्र के जंगल में आ गए हैं। यहां पहले से काफी संख्या में बंदर हैं ऐसे में दूसरे जंगल के बंदरों का रूकना काफी मुश्किल है।
जंगल पर पड़ेगा असर
पर्यावरणविद प्रो. राजेश धनखड़ बताती हैं कि प्रकृति में किसी भी जीव का महत्व कम नहीं होता है। जो हमारा इको सिस्टम है, उसमें हर प्राणी अपना काम करता है। बंदर फिर से जंगल तैयार करने में अहम भूमिका निभाते हैं। रेलगाड़ियों से बंदर को जो फल वगैरा लोग डालते थे। उनके बीज फिर से जंगल उगाने में सहायक होते हैं। बंदरों के मल के जरिये बीज में जमी में जाता है और नया पौधा उगता है।
इनसे लें सीख
समीपवर्ती गांव गढ़ी माजरा के बलवान माजरा दो वक्त इनके लिए फल और पका हुआ भोजन डालकर आते हैं। यह बताते हैं कि वैसे तो बंदरों को भूख से बचाने की जिम्मेदारी हर संवेदनशील व्यक्ति की थी, लेकिन अस्थल बोहर स्टेशन के साथ नजदीकी गांव पहरावर है। इसलिए लोगों ने महामारी के इस माहौल में बंदरों का भी ध्यान रखना चाहिए था। गांव के लिए कुछ प्राणियों के लिए खाने की व्यवस्था करना कोई बड़ा काम नहीं होता है।
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