Savitribai Phule Jayanti: जानिए देश की पहली महिला शिक्षक और कवयित्री के जीवन और उनसे जुड़े कुछ तथ्य...

हमारे देश के महान नायको में से एक सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) एक ऐसा नाम है जिनके द्वारा महिलाओं के उत्थान के लिए किए गए कार्यों को देश कभी भूल नहीं सकता है। सावित्रीबाई देश की पहली महिला टीचर (First Female Teacher) होनें के साथ साथ एक समाज सुधारक और कवयित्री थीं, जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। उन्हें भारत में फेमिनिज्म की जननी यानि की 'मदर ऑफ इंडियन फेमिनिज्म' (Mother of Indian Feminism) माना जाता है। आज 3 जनवरी को देश उनकी 191वीं जयंती (Savitribai Phule Birth Anniversary) मना रहा है। सावित्रीबाई की जयंती के खास मौके पर हम आपको उनके जीवन से जुड़े कुछ तथ्यों के बारे में बताएंगे।
शुरुआती जीवन
सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। सावित्रीबाई फुले के पिता का नाम खानदोजी नेवसे (Khandoji Nevase Patil) और माता का नाम लक्ष्मी (Lakshmi) था। उनकी शादी सामाजिक कार्यकर्ता ज्योतिराव फुले (Jyotirao) के साथ की गई थी। वैसे तो सावित्रीबाई और उनके पति ज्योतिराव फुले की कोई औलाद नहीं थी, लेकिन कहते हैं कि उन्होंने एक विधवा ब्राह्मण के लड़के यशवंतराव (Yashawantrao)। हालांकि इस बात को सही साबित करने के लिए कोई साक्ष्य नहीं हैं।
पढ़ाई लिखाई के बाद बनी देश की पहली महिला शिक्षक
जब सावित्रीबाई की शादी ज्योतिराव से हुई उस समय उन्हें पढ़ना- लिखना नहीं आता था। सावित्रीबाई के पति ने उन्हें घर पर पढ़ाया। ज्योतिराव के साथ अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, उनकी आगे की शिक्षा उनके पति के दोस्तों, सखाराम यशवंत परांजपे और केशव शिवराम भावलकर की जिम्मेदारी थी। सावित्रीबाई ने खुद को दो शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में नामांकित किया था। जिसके बाद वह देश की पहली महिला शिक्षक और प्रधानाध्यापिका रही होंगी।
जन्मदिन पर मनाया जाता है बालिका दिवस
उनके जन्मदिन 3 जनवरी को महाराष्ट्र में 'बालिका दिवस' के रूप में जाना जाता है। महाराष्ट्र के ज्यादातर बालिका विद्यालयों में इसे बालिका दिवस के रूप में मनाते हैं। सावित्रीबाई हमेशा महिलाओं और युवा लड़कियों को सताए जाने वाले अमानवीय और अन्यायपूर्ण व्यवहारों के बारे में बेबाकी से बोलतीं थी। वह सती और बाल विवाह जैसी प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाने से भी नहीं डरती थी।
जातिवाद को खत्म करने के लिए किए थे बड़े काम
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, उन्होंने पहली बार पुणे के महारवाड़ा में सगुनाबाई जो एक क्रांतिकारी नारीवादी भी थीं उनके साथ लड़कियों को पढ़ाया। एक समय पर सावित्रीबाई और उनके पति पुणे में लड़कियों के लिए तीन स्कूल चलाते थे। लेकिन, इसका कड़ा विरोध हुआ। दुर्भाग्य से, सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले की सफलता रूढ़िवादी विचारों वाले स्थानीय समुदाय के लोगों को रास नहीं आई। कहा जाता है कि उन्हें अपने ही समाज से अलग थलग कर दिया गया था। यहां तक की सावित्रीबाई को हर दिन काम करने के लिए एक अतिरिक्त साड़ी रखनी पड़ती थी क्योंकि अक्सर समाज के रूढ़िवादी सदस्य उन पर पत्थर और गोबर फेंकते थे।
सत्यशोधक समाज और बालहत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना
महिला शिक्षा पर जोर देनें के साथ- साथ उन्होंने जातिवाद के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद की थी। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की वकालत की और अपने पति के साथ मिलकर 'सत्यशोधक समाज' (Satyashodhak Samaj) की स्थापना की, जिसमें पुजारियों और दहेज के बिना विवाह का आयोजन किया जाता था। अपने पति के साथ, उन्होंने विभिन्न जातियों के बच्चों को पढ़ाया और कुल 18 स्कूल खोले। दोनों ने गर्भवती बलात्कार पीड़ितों के लिए 'बालहत्या प्रतिबंधक गृह' (Balhatya Pratibandhak Griha) नामक एक देखभाल केंद्र भी खोला और बच्चों को जन्म देने और बचाने में मदद की। इसके अलावा कवयित्री विधवाओं के पक्ष में भी बोलती थी और सिर मुंडवाने की प्रथा को रोकने के लिए संघर्ष करती थी।
दूसरों की जान बचाते- बचाते हुई मृत्यू
66 वर्ष की आयु में पुणे में बुबोनिक प्लेगहमारे देश के महान नायको में से एक सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) एक ऐसा नाम है जिनके द्वारा महिलाओं के उत्थान के लिए किए गए कार्यों को देश कभी भूल नहीं सकता है। के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। सावित्रीबाई और उनके दत्तक पुत्र यशवंत ने 1897 में नालासोपारा के आसपास के क्षेत्र में बुबोनिक प्लेग के प्रकट होने पर दुनिया भर में तीसरी महामारी से प्रभावित लोगों के इलाज के लिए एक क्लिनिक खोला। क्लिनिक पुणे के बाहरी इलाके में संक्रमण मुक्त क्षेत्र में स्थापित किया गया था। पांडुरंग बाबाजी गायकवाड़ के पुत्र को बचाने की कोशिश में सावित्रीबाई की वीरता से मृत्यु हो गई। जैसे ही उन्हें पता चला कि गायकवाड़ के बेटे को मुंडवा के बाहर महार बस्ती में प्लेग हो गया है, सावित्रीबाई फुले उसके पास पहुंची और अपनी पीठ पर लाद कर उसे अस्पताल लेकर आईं। इस प्रक्रिया में, सावित्रीबाई फुले को प्लेग हो गया और 10 मार्च 1897 को रात 9:00 बजे उन्होंने प्राण त्याग दिए। सावित्रीबाई द्वारा किए गए कार्यों को आज भी सराहा जाता है और देश भर के लोगों उनको अपनी प्रेरणा भी मानते हैं।
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