आपातकाल : भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय

देश में आज से ठीक 46 साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री ने आपातकाल की घोषणा की थी। आपातकाल की कहानी उस दौर की याद दिलाती है, जब देश के आजाद होने के बाद भी देश के नागरिकों से सारे अधिकार छीन लिए गए थे। उस जमाने में किसी को इसका मतलब नहीं पता था,बस रेडियो पर एक आवाज आई , "भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है..." और उस दिन से ही 25 जून 1975 की तारीख इतिहास के पन्नों में काले धब्बे की तरह शुमार कर दिया गया। उन्हीं काले दिनों की व्याख्या करते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय मंत्री गजेन्द्र तोमर ने लिखा है -
70 के दशक का पूर्वार्द्ध भारतीय राजनीति के लिए उथल-पुथल भरा रहा था। 1971 के युद्ध के बाद चले आर्थिक प्रतिबंधों के दौर में भारत एक ओर जहां गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं से उबर पाने की अपनी कोशिशों को बेअसर होता देख रहा था, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की बढ़ती कीमतों के कारण महंगाई सुरसा की तरह अपना मुख फैला रही थी। वहीं दूसरी ओर आर्थिक कदाचार, भ्रष्टाचार, अनैतिकता जैसी बुराइयां लोकतंत्र की नैया को डुबाने में लगी थी। न्यायपालिका और कार्यपालिका में तकरार बढ़ती जा रही थी। पहले गुजरात और फिर बिहार से शुरु हुए छात्र आन्दोलनों ने स्व. जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आन्दोलन की शक्ल ले ली थी।
फिर आया 12 जून 1975 का दिन, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर अपना निर्णय सुनाते हुए चुनावों में भ्रष्ट तरीकों के इस्तेमाल के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया। इस निर्णय के बाद सरकार के विरुद्ध विरोध-प्रदर्शनों में तेजी आई और प्रधानमंत्री पर अपना पद छोड़ने के लिए दबाव बढ़ता जा रहा था। सत्ता की डोर हाथ से फिसलती देख अनुच्छेद 352 का अनुचित उपयोग किया गया। प्रधानमंत्री की सिफारिश पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने 25 जून की मध्यरात्रि को आपातकाल की घोषणा कर दी और उसके बाद लगभग ढाई वर्षों तक जो हुआ वह सब अनगिनत मुखों से किस्सों के रूप में आज हम भी सुनते रहते हैं।
आपातकाल का दौर ऐसा था जब किसी व्यक्ति को केवल इसीलिए गिरफ्तार किया जा सकता था कि सरकार को यह लगता है कि वह सरकार के खिलाफ कुछ कह सकता है, सरकार के लिए किसी की गिरफ्तारी का कारण बताना आवश्यक भी नहीं था। अखबारों को खबरे छापने से पहले सरकार की अनुमति लेना आवश्यक था, सरकार के खिलाफ कहने या लिखने की भी मनाही थी, इंदिरा की आलोचना ही राष्ट्रद्रोह का पर्याय बन गई थी। प्रधानमंत्री का बेटा पुरुषों की जबरन नसबन्दी करने में आमादा था, और-तो-और न्यायपालिका के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति भी स्वामीभक्ति का परिचय देते हुए सरकार के निर्णयों पर अपनी मुहर लगा चुके थे। इक्कीसवीं सदी में जीने वाले एक युवा को, जिसका जन्म आपातकाल के दौर के बाद हुआ है, जब कोई कहे कि इस देश में एक दौर ऐसा भी था तो उसके लिए इन बातों पर विश्वास करना ही कठिन है, पर वास्तविकता यही है।
आज बात-बात पर 'तानाशाही' और 'लोकतंत्र की हत्या' जैसे मुहावरों का इस्तेमाल करने वाली कांग्रेस ने ही आपातकाल के दौरान लोकतंत्र को ऐसे कई जख्म दिये हैं, जिनके निशान अमिट हैं। आज लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देते न थकने वाले वामपंथी भी तब आपातकाल के समर्थन में खड़े थे। आज सरकार के हर अच्छे कदम का एक स्वर में थोथा विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों ने भी तब मुंह में दही जमा कर रखा था। जिन लोगों ने उस दौर को देखा है वे इसे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय यूं ही नहीं कहते।
खैर काला हो या सुनहरा, है तो अध्याय ही, और महत्व की बात तो यह है कि वह अध्याय हमें जो सबक सीखाना चाहता था वह हमने कितना सीखा? इसके उत्तर में तो यही कहा जा सकता है कि एक युवा लोकतंत्र के रूप में हमने इससे एक अच्छा सबक सीखा है, क्योंकि उसके बाद से ही हमारी विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका ने समय-समय पर अपने कार्यों में लोकतंत्र के महान आदर्शों को धरातल पर व्यवहृत कर दिखाया है।
ऐसा नहीं है कि हममें कोई दोष शेष नहीं है, पर लोकतंत्र पर असीम श्रद्धा के कारण हम भारतीयों ने सदैव अपने अनुभवों से सीखते हुए, अपने दोषों को दूर करते हुए लोकतांत्रिक आदर्शों को प्राप्त करने की यात्रा जारी रखी है। वास्तव में हमारे लोकतंत्र की यही खूबी इसे दूसरों से अलग बनाती है कि हमने लगातार सीखते हुए अपने मार्ग में आने वाली बाधाओं को पार किया है और विश्व के सभी लोकतंत्रों के समक्ष एक आदर्श स्थापित किया है।
जो विश्वास हमें हमारे पुराणों एवं महाकाव्यों में गाए गए देवासुर संग्राम, लंकाविजय, महाभारत के युद्ध आदि आख्यानों के साथ-साथ पिछली दो सहस्राब्दियों में लगातार होने वाले बाहरी आक्रमण दिलाते हैं वही विश्वास आपात्काल के इस दौर ने भी पुष्ट किया है कि अधर्म, अन्याय, अत्याचार आदि सभी चाहे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हो जाए अन्त में तो उन्हें पराजित होना ही है।
स्वतंत्रता के बाद से लेकर आज तक समय-समय पर भारतीय मानस ने जिस तरह लोकतंत्र को बचाने के लिए त्याग दिया है, जिस तरह लोकतंत्रात्मक आदर्शों का पोषण किया है, वह अतुलनीय है। अब हम युवाओं पर यह जिम्मेदारी है कि हमारे पूर्वजों ने जिन महान लोकतांत्रिक मूल्यों की विरासत हमें सौंपी है उसे हम आगे ले जाएं। इसके लिए दृढ़संकल्पित होकर हमें कार्यशील होना होगा। यद्यपि आज आपात्काल जैसा संकट तो नहीं है किन्तु पहले की तुलना में भीतरघातियों की संख्या बहुत अधिक हो गई है, जो किसी भी हाल में भारत का मस्तक झुकाने में ही लगे हैं। अपने घर में ही छिपे इन शत्रुओं ने देश के समक्ष संकट खड़े करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसीलिए हमारा पूरी तरह सचेत रहते हुए विश्व के बृहदतम लोकतंत्र को और अधिक सुदृढ़, और अधिक गौरवशाली बनाने के लिए प्रयत्नशील होना जरूरी हो गया है। हम सभी अतीत के बुरे अनुभवों से सीखकर भविष्य की राह बनाने में अवश्य सफल होंगे।
गजेंद्र तोमर
राष्ट्रीय मंत्री (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद)
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