World Thalassemia Day : अवेयरनेस से पॉसिबल है थैलेसीमिया से बचाव, जानें इसके लक्षण व उपचार

World Thalassemia Day : अवेयरनेस से पॉसिबल है थैलेसीमिया से बचाव, जानें इसके लक्षण व उपचार
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थैलेसीमिया (Thalassemia) ब्लड रिलेटेड एक जेनेटिक डिसऑर्डर है, जो बच्चे को अपने पैरेंट्स के जींस से प्राप्त होती है। थैलेसीमिया मेजर पेशेंट को जीवन भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना पड़ता है। दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल सीनियर कंसल्टेंट-पीडियाट्रिक हीमेटोलॉजी डॉ. अमिता महाजन से जानिए इसके कारण, लक्षण और बचाव के बारे में डिटेल।

थैलेसीमिया (Thalassemia) ब्लड रिलेटेड एक जेनेटिक डिसऑर्डर है, जो बच्चे को अपने पैरेंट्स के जींस से प्राप्त होती है। थैलेसीमिया मेजर पेशेंट को जीवन भर ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना पड़ता है। दिल्ली के अपोलो हॉस्पिटल सीनियर कंसल्टेंट-पीडियाट्रिक हीमेटोलॉजी डॉ. अमिता महाजन से जानिए इसके कारण, लक्षण और बचाव के बारे में डिटेल। आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में हर साल करीब एक लाख बच्चे थैलेसीमिया मेजर बीमारी के साथ दुनिया में जन्म लेते हैं। भारत में हर वर्ष 10-15 हजार बच्चे जन्मजात थैलेसीमिया के साथ पैदा होते हैं। भारत में तकरीबन 5 करोड़ लोग थैलेसीमिया कैरियर भी हैं, जिनसे यह बीमारी हो सकती है।

क्या है थैलेसीमिया

थैलेसीमिया पेशेंट के शरीर में प्रोटीन निर्माण प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है, जो रेड ब्लड सेल्स (आरबीसी) में मौजूद हीमोग्लोबिन के निर्माण के लिए जरूरी होती है। इस वजह से व्यक्ति के शरीर में आरबीसी अपनी सामान्य आयु 120 दिन की जगह 15-20 दिन में ही नष्ट हो जाते हैं, जिससे आरबीसी की संख्या कम हो जाती है। शरीर में रक्त की कमी की भरपाई 3-4 सप्ताह के भीतर ब्लड ट्रांसफ्यूजन से की जाती है। ब्लड ट्रांसफ्यूजन की प्रक्रिया जिंदगी भर चलती है। समुचित देखभाल और उपचार के चलते थैलेसीमिया पीड़ित व्यक्ति 50 साल तक जिंदा रह सकते हैं। लेकिन ब्लड ट्रांसफ्यूजन सही समय पर ना होने पर शरीर में खून की कमी से उसकी मृत्यु पहले भी हो सकती है।

थैलेसीमिया के प्रकार

मानव शरीर में हीमोग्लोबिन बनाने वाले जींस के जोड़े होते हैं। अगर बच्चे को हीमोग्लोबिन के दोनों जींस ठीक मिलते हैं, तो बच्चा पूरी तरह स्वस्थ होता है। यदि उसे जींस के जोड़े का एक हिस्सा ठीक और एक हिस्सा खराब मिलता है, तो वो थैलेसीमिया कैरियर/माइनर लेकिन स्वस्थ होता है। इनका हीमोग्लोबिन 11 ग्राम/डीएल. रहता है। अगर शिशु को दोनों जींस खराब मिलें तो बच्चा थैलेसीमिया मेजर रोग से ग्रस्त होता है। इसमें मरीज को हर 3-4 सप्ताह के अंदर ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता होती है।

क्या हैं लक्षण

थैलेसीमिया माइनर के कोई खास लक्षण नजर नहीं आते हैं। लेकिन थैलेसीमिया मेजर की स्थिति जन्म के 4-6 महीने बाद दिखने लगती है-बच्चे में चिड़चिड़ापन या भूख की कमी, शरीर में खून की कमी, पीलिया होना, शारीरिक विकास की गति धीमी होना, चेहरे की चमक कम पड़ना, पेट में सूजन आना, लिवर का बड़ा होना, सुस्त होना। 6 महीने के बच्चे की स्थिति को देखते हुए डॉक्टर उसका कंप्लीट ब्लड काउंट और थैलेसीमिया टेस्ट करते हैं। जिसमें हीमोग्लोबिन की मात्रा और रक्त कणों की जांच भी की जाती है।

बचाव के उपाय

पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली थैलेसीमिया बीमारी से बचने के लिए जागरूकता जरूरी है कि शादी से पहले दोनों पार्टनर का ब्लड टेस्ट किया जाए। थैलेसीमिया जांच के लिए हाई परफॉर्मेंस लिक्विड क्रोमेटोग्राफी (एचपीएलसी) और म्यूटेशन टेस्ट किया जाता है। जहां तक संभव हो थैलेसीमिया माइनर लोग शादी ना करें। अगर शादी करें तो गर्भ में पल रहे 10-11वें सप्ताह के भ्रूण की जांच करा लेनी चाहिए। भ्रूण में थैलेसीमिया के लक्षण होने पर शिशु का गर्भपात कराना ही ठीक रहेगा ताकि बच्चे को जीवन भर परेशानी ना उठानी पड़े।

इलाज

थैलेसीमिया मेजर का सटीक इलाज बोन मैरो ट्रांसप्लांट सर्जरी है। डेढ़ से सात साल की उम्र से पहले ट्रांसप्लांट होने पर रिजल्ट्स अच्छे मिलते हैं। बच्चा नॉर्मल जिंदगी जी सकता है। हालांकि 7 साल से ज्यादा उम्र पर या वयस्क होने पर भी ट्रांसप्लांट किया जा सकता है, लेकिन बड़ी उम्र में आयरन लेवल बढ़ने, लिवर साइज बढ़ा होने से समस्याएं बढ़ जाती हैं जिससे ट्रांसप्लांट कई मामलों में असफल भी हो सकता है।

ब्लड ट्रांसफ्यूजन के साइड इफेक्ट्स

कई बार रोगी को बार-बार ब्लड चढ़ाने से शरीर में आयरन की मात्रा अधिक हो जाती है। ब्लड सेल्स टूटने से आयरन बॉडी में ज्यादा मात्रा में पहुंच जाता है। यह अतिरिक्त आयरन शरीर के विभिन्न भागों में जमा होने लगता है और शरीर में कई तरह के विकार पैदा करता है। जैसे- त्वचा के अंदर जमा होकर कालापन लाता है। किडनी, लिवर, हार्ट, एंडोक्राइन ग्लैंड्स को भी प्रभावित करता है, जो घातक साबित होता है। शरीर में जमा अतिरिक्त आयरन की मात्रा कम करने के लिए चेलेशन थैरेपी की जाती है। मरीज की स्थिति के हिसाब से ओरल मेडिसिन और इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिससे शरीर में जमा आयरन यूरिन के रास्ते बाहर निकल जाता है।

प्रस्तुति- रजनी अरोड़ा

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