बांस गीत : संरक्षण के अभाव में विलुप्त होती छत्तीसगढ़ की एक पारंपरिक कला, देखिए वीडियो

धमतरी। छत्तीसगढ़ के ऐसे लोकगीत और वाद्ययंत्र, जो अब कम सुनने और देखने को मिलते हैं, उसमें से एक है बांस गीत। वाद्य का नाम है बांस, और उस बांस से जो धुन निकलता है, उसे कहा जाता है बांस गीत। धमतरी जिले के वनांचल गांव सिंगपुर के रहने वाले बुधराम यादव आज भी इस वाद्ययंत्र पर संगत करते हैं। बुधराम बताते हैं कि यहां महाभारत काल से ही इसे गाने और बजाने की परंपरा रही है। मान्यता है कि गोवर्धन पहाड़ उठाने के समय भगवान श्री कृष्ण ने इसे यादव जाति के लोगों को दिया था। समाज के जानसिंग यादव कहते हैं कि यह एक ईश्वरीय वरदान है, जिसको भगवान ने केवल यादव समाज के लोगों को दिया है। इसका उपयोग प्रायः समाज के लोग गाय चराते समय या किसी विशेष पारंपरिक पर्वों पर उपयोग करते हैं। यादव मानते हैं कि इस कला और इसके कलाकारों को सरंक्षित करने की जरूरत है।
आपको बता दें कि छत्तीसगढ़ में राउतों की एक बड़ी आबादी है। राउत जाति को यदूवंशी माना जाता है। अर्थात इनके पूर्वज कृष्ण को माना जाता है। ऐसा समझा जाता है कि गाय को जब जगंलों में ले जाते थे, तब गाय चराने के लिए उसी वक्त वे बाँस को धीरे-धीरे वाद्य के रूप में इस्तमाल करने लगे थे। गाय घास खाने में मस्त रहती थी और राउत बाँस गीत में मस्त रहते थे। छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में बाँस गीत बहुत महत्वपूर्ण शैली है। यह बाँस का टुकड़ा करीब चार फुट लम्बा होता है। यह बाँस अपनी विशेष धुन से लोगों को मुग्ध कर देता है। बाँस गीत में एक गायक होता है, उनके साथ दो बाँस को फूंककर बजाने वाले वादक होते हैं। गायक के साथ और दो व्यक्ति होते हैं, जिन्हें रागी और डेही कहते हैं। इसके लिए मालिन प्रजाति के बाँस को सबसे अच्छा माना जाता है। इस बाँस में स्वर भंग नहीं होता है। बीच से बाँस को पोला कर के उस में चार सुराख बनाए जाते हैं। जैसे बाँसुरी वादक की उंगलिया सुराखों पर नाचती हैं, बांस से विशेष धुन निकलने लगती है। लोकगीत जैसे सुवा, डंडा, करमा, ददरिया बांस की धुन पर बजाए जाते हैं।
खैरागढ़ विश्वविद्यालय में संरक्षण की कोशिश
पूरे एशिया में विख्यात इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़ इस प्रकार की तमाम विलुप्त होती छत्तीसगढ़ी पारंपरिक कला और वाद्यंत्रों को सहेजने के प्रयास में जुटी हुई है। विश्वविद्यालय के लोक संगीत प्रभाग के विभागाध्यक्ष योगेन्द्र चौबे ने बताया कि लोगगीत, लोक वाद्ययंत्र, और अन्य पारंपरिक कला गतिविधियों के लिए विश्वविद्यालय में शोध आदि के प्रबंध किए गए हैं। यहां कई शोधार्थियों द्वारा इन पारंपरिक कलाओं को विषय के रूप में चयन करके अध्ययन किया जा रहा है। विश्वविद्यालय की कुलपति पदमश्री डॉ. ममता चंद्राकर ने बताया कि इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय प्रबंधन लोक जीवन से जुड़ी तमाम कलाओं के सहेजने के लिए तत्पर है। शोधार्थियों के लिए लोक संगीत प्रभाग से समुचित मार्गदर्शन दिया जा रहा है, साथ ही इनके लिए शुरू किए गए नियमित पाठ्यक्रमों में भी छात्र-छात्राओं का रूझान देखा जा रहा है। बांस गीत का का प्रचलित गीत है....छेरी ला बेचव, भेंड़ी ला बेचँव, बेचव करिया धन गायक गोठन ल बेचव धनि मोर, सोवव गोड़ लमाय रावत.....छेरी ला बेचव, न भेड़ी ला बेचव, नइ बेचव करिया धन जादा कहिबे तो तोला बेचँव, इ कोरी खन खन रवताईन….देखिए बांस गीत का एक वीडियो-
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