छत्तीसगढ़ में भाजपा जीती... पर क्या कांग्रेस हारी नहीं...? जिम्मेदारी किसकी थी...

छत्तीसगढ़ में भाजपा जीती... पर क्या कांग्रेस हारी नहीं...? जिम्मेदारी किसकी थी...
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चन्द्रकान्त शुक्ला

आपको याद होगा साल 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव के नतीजों का वह दिन... भाजपा बुरी तरह हार गई थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री डाक्टर रमन सिंह मिडिया के सामने आए और बोले... मैं मुख्यमंत्री हूं, हार की जिम्मेदारी मेरी है, और किसी की नहीं। अब याद कीजिए 2023 के विधानसभा चुनाव के आए नतीजों के दिन से आज तक... क्या छत्तीसगढ़ में हार की जिम्मेदारी किसी कांग्रेसी नेता ने ली...!

नतीजों के ही दिन सीएम बघेल ने ये कहा जरूर कि, मुझे जनादेश स्वीकार है... इस्तीफा देने राजभवन भी पहुंचे। लेकिन हार की जिम्मेदारी उन्होंने नहीं ली। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस आलाकमान ने भले ही एन चुनाव के वक्त भूपेश है तो भरोसा है... वाले नारे का बदलवाकर भरोसे की सरकार करवा दिया, लेकिन चुनाव में पार्टी का नेतृत्व तो मुख्यमंत्री होने के नाते श्री बघेल ही कर रहे थे। सबसे ज्यादा चुनावी सभाएं उन्होंने लीं, अबकी बार 75 पार भी वे अकेले ही नतीजे के एक दिन पहले तक कहते रहे। उनके अपने जिले दुर्ग... जिसे पूरे पांच साल तक मंत्रियों वाला जिला या सबसे ताकतवर जिला कहा जाता रहा... वहां पार्टी की बुरी गत बन गई। तो क्या हार की जिम्मेदारी उनकी नहीं बनती।

चुनाव जब सर पर आ गया था तब कहने को प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए बस्तर सांसद दीपक बैज तो खुद अपनी सीट तक हार गए। लेकिन राजधानी आकर उन्होंने भी जिम्मेदारी लेने या इस्तीफा देने से साफ इनकार किया। बस्तर में सात सीटें गंवाने तक की जिम्मेदारी उन्होंने नहीं ली।


सीएम का पद नहीं मिलने पर मुंह फुलाए बैठे रहे सरगुजा महाराज टीएस सिंहदेव लगभग साढ़े चार साल तक अपनों के बीच यही कहते रहे कि, हमारी तो कोई सुनता नहीं, हमारी तो चलती नहीं...चुनाव को जब चार महीने बचे तब डिप्टी सीएम पद का झुनझुना बजाते हुए सरगुजा पहुंचे... वहां अपनों का भी ठंडा रिस्पांस देखकर उनकी खुशी तत्काल काफुर हो गई थी। लेकिन साढ़े चार साल तक उन्होंने जो चलती नहीं, सुनता नहीं का राग अलापा... उसे सरगुजा की जनता कैसे भूल जाती। चुनाव के बीच भी यह कहते रहे कि इस बार 2018 जैसी स्थिति नहीं है। टिकट बंटवारे में अपनी चला ले जाने के बावजूद भी पार्टी को छह सात सीट पर जीत की बात कह रहे थे। नतीजों के दिन संभाग की सभी चौदह सीटें गंवा देने, जिनमें खुद उनकी भी सीट शामिल थी... वे भी जिम्मेदारी लेने से बचते रहे। उलटे 'हारकर मैदान नहीं छोडू़ंगा' जैसा डायलाग तुरंत ही चिपका दिया।

बाकी के जितने मंत्री हारे, उनमें एक दो को छोड़कर कितनी 'अहमियत' रखते थे... पूरा प्रदेश जानता है। मो. अकबर, डा. डहरिया और रविन्द्र चौबे की ही गिनती उनमें होती थी... जिनकी कुछ चलती थी। बाकी तो सबको पता है। एक मंत्री तो चुनाव अभियान के दौरान ही प्रशासन से जान को खतरा बताते रहे। उनका वीडियो पूरे प्रदेश में वायरल होता रहा। उस विडियो को प्रदेश की जनता ने किस रूप में लिया होगा... ये तो नतीजे बता ही रहे हैं।

अब बात कर लेते हैं आलाकमान के ऊपर से भेजे गए प्रभारियों की। उन्होंने भी तो जिममेदारी लेने जैसी कोई बात कहीं की नहीं। उलटे टिकट बंटवारे के दौरान कहीं आडियो तो कहीं वीडियो शेयर किया जाता रहा। टिकट वितरण के दौरान जिस कदर असंतोष के स्वर उभरे... उस पर किसी ने मुंह तक नहीं खोला। आलम यह रहा कि राजधानी तक में बागी खड़े हो गए। अब जाकर हार पर दिल्ली में मंथन हो रहा है। चलिए देखते हैं... मंथन से क्या निकलता है। किसको 'अमृत' मिलता है और किसके हाथ 'विष' लगता है।

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