'कांग्रेस और महल' का गढ़ रहा खैरागढ़ : कमलेश्वर वर्मा ने 2003 में बोया जातिवाद का बीज, तब से वही प्रत्याशी चयन का प्रमुख आधार

कांग्रेस और महल का गढ़ रहा खैरागढ़ : कमलेश्वर वर्मा ने 2003 में बोया जातिवाद का बीज, तब से वही प्रत्याशी चयन का प्रमुख आधार
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1977 के प्रचंड कांग्रेस विरोधी लहर में कांग्रेस और उसका मजबूत 'गढ़' पहली बार टूटा और जनता पार्टी के माणिक लाल गुप्ता ने कांग्रेस उम्मीदवार शिवेन्द्र बहादुर सिंह को पराजित कर विधायक का ताज पहना। 2003 के विधानसभा चुनाव में पहली बार 'जातिवाद' की हवा चली। इस चुनाव में लोधी समाज के कमलेश्वर वर्मा ने कुल मतदान का 19.11 प्रतिशत वोट प्राप्त कर क्षेत्र में जातिवादी प्रत्याशी के लिए नया रास्ता खोल दिया। फिर यहां क्या बन गया ट्रेंड... पढ़िए पूरी स्टोरी...

प्रदीप बोरकर, खैरागढ़। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले की खैरागढ़ विधानसभा सीट परम्परागत रूप से कांग्रेस की सीट मानी जाती रही है। इस विधानसभा क्षेत्र में अब तक हुए कुल 17 चुनावों में कांग्रेस ने सर्वाधिक 13 बार जीत हासिल की है। कांग्रेस के इस मजबूत गढ़ को भेदने में विपक्ष केवल चार बार सफल हुआ है। इस बार भाजपा ने पंजा खोलने की कोशिश में कोमल जंघेल पर भरोसा जताया है। वहीं कांग्रेस ने 16 साल बाद महिला प्रत्याशी यशोदा वर्मा को चुनाव मैदान में उतारा है। खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र में खैरागढ़ राज परिवार का दबदबा रहा है। सन् 1952 के प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस प्रत्यशी के रूप में खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने पहली बार जीत हासिल की थी। तब से क्षेत्र में कांग्रेस की राजनीति ज्यादातर 'कमल विलास पैलेस' खैरागढ़ से संचालित होती रही है। इस सीट से अब तक खैरागढ़ राजपरिवार के चार सदस्यों ने 9 बार विजय श्री का वरण किया है। जबकि एक बार छुईखदान के राजा महंत ऋतुपर्ण किशोर दास (1957) विधायक निर्वाचित हुए थे। खैरागढ़ के राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह 1952 और 1967 तथा लाल ज्ञानेन्द्र सिंह 1962 में विधायक चुने गये थे। स्व. रानी रश्मि देवी सिंह और देवव्रत सिंह ने चार-चार बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया है। 1972 में कांग्रेस की टिकट पहली बार 'महल' से बाहर गयी और विजय लाल ओसवाल विधायक निर्वाचित हुए।

1977 में पहली बार हुई कांग्रेस की हार

1977 के प्रचंड कांग्रेस विरोधी लहर में कांग्रेस और उसका मजबूत 'गढ़' पहली बार टूटा और जनता पार्टी के माणिक लाल गुप्ता ने कांग्रेस उम्मीदवार शिवेन्द्र बहादुर सिंह को पराजित कर विधायक का ताज पहना। बाद में 1980 से 2006 तक यह सीट पुनः राजपरिवार और कांग्रेस के कब्जे में आ गया। 2003 के विधानसभा चुनाव में पहली बार 'जातिवाद' की हवा चली। इस चुनाव में लोधी समाज के कमलेश्वर वर्मा ने कुल मतदान का 19.11 प्रतिशत वोट प्राप्त कर क्षेत्र में जातिवादी प्रत्याशी के लिए नया रास्ता खोल दिया। इसके बाद के चार चुनावों में क्षेत्र में प्रत्याशी चयन का प्रमुख आधार 'योग्यता' की बजाय 'जाति' बन गई।

2006 उप चुनाव में कोमल जंघेल ने भेदा कांग्रेस का किला

कांग्रेस और राजपरिवार के इस अभेदगढ़ को दूसरी बार 2006 के उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी कोमल जंघेल भेदने में सफल रहे। कोमल जंघेल की विजय में भाजपा के परम्परागत वोटों के अलावा उनके समाज के समर्थन का भी बहुत बड़ा योगदान था। 2008 के चुनाव में अपने प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी की तुलना में तेज तर्रार छवि के चलते कोमल जंघेल दूसरी बार विधायक चुने गये। 2013 के चुनाव में यह सीट पुनः कांग्रेस के कब्जे में चली गयी और कोमल जंघेल को हराकर गिरवर जंघेल विधायक बने।

भाजपा-कांग्रेस ने एक ही जाति से प्रत्याशी उतारा

2018 के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ने जाति विशेष के उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा और दो परम्परागत प्रतिद्वंदी कोमल जंघेल और गिरवर जंघेल आमने-सामने थे। इस बार खैरागढ़ विधानसभा क्षेत्र का तीन बार प्रतिनिधित्वि कर चुके देवव्रत सिंह छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे। 2003 के बाद पहली बार क्षेत्र में त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई थी। अनुभवी देवव्रत सिंह अपने सधे हुए चुनावी प्रबंधन के कारण जनमत को अपने पक्ष में करने में सफल हुए। त्रिकोणीय संघर्ष में उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंदी कोमल जंघेल को 870 मतों से पराजित कर न केवल एक नया इतिहास रचा, बल्कि अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली। इस चुनाव में प्रदेश में प्रचण्ड कांग्रेस लहर के बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी गिरवर जंघेल तीसरे स्थान पर पिछड़ गये थे। बहरहाल उपचुनाव के लिए बाजी अब सज चुकी है। प्रदेश में सत्तारूढ़ कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए जहां यह उपचुनाव प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। है, वहीं छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस जोगी के लिए अपना 'गढ़' बचाने की चुनौती भी है।

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