17 साल बाद आएगा उजियारा : रंग ला रही विश्वास बहाली की मुहिम, अब नक्सलगढ़ के इन गांवों में फिर से सुनाई देगी अ आ इ ई... की गूंज

गणेश मिश्रा-बीजापुर। अनगिनत बाधाओं और चुनौतियों को पार कर नक्सलगढ़ के ग्रामीण अपने 3 गांवों में 17 साल बाद स्कूल खोलने में कामयाब हुए हैं। साल 2005 के सलवा जुडूम अभियान के बाद ये गांव आतंक और दहशत की गिरफ्त में सरकार की पहुंच से दूर होकर मुख्यधारा से कट गए थे। छतीसगढ़ सरकार की विश्वास बढ़ाने और अंतिम छोर तक सरकार की योजनाओं को पहुंचाने की नीति ने एक बार फिर माओवाद प्रभावित इलाके में ग्रामीणो के दिल जीतने में कामयाबी पाई और मोसला, कचिलवार, गुण्डापुर जैसे नक्सलगढ़ के गांवों के स्कूलों में फिर अ आ इ ई... की गूंज सुनाई देने लगी है।
दरअसल बीजापुर जिला माओवादी प्रभाव की दृष्टि से देश का अति संवेदनशील इलाका है। आज भी यहां के सैकड़ों गांव सरकार, सरकारी अमले और सरकारी योजनाओं से कोसों दूर हैं। साल 2005 में नक्सल विरोधी सलवा जुड़ुम अभियान ने यहां दहशत और आतंक का माहौल पैदा कर सैकड़ों गांवों और नागरिकों को विस्थापन का दंश झेलने पर मजबूर कर दिया था। इस दौरान जिले में 350 स्कूल बंद हो गए और हजारों बच्चों के भविष्य पर ग्रहण लग गया।
विश्वास बहाली में लग गए 3 साल
सरकार की पहल और शिक्षा विभाग के प्रयासों से जिले में बीते 3 साल में 160 से ज्यादा स्कूल खुले, लेकिन मोसला, कचिलवार और गुण्डापुर की चुनौतियों से पार नहीं पाया जा सका। बीते 3 साल से ग्रामीणों से लगातार संपर्क कर विश्वास बहाली की मुहिम को अमली जामा पहनाने में शिक्षा विभाग की टीम अब जाकर सफल हुई जब ग्रामीणों की रज़ामन्दी के बाद झोपड़ी में स्कूल फिर से शुरू किए गए। इस दौरान गांव के मुखिया और पुजारी ने स्थानीय रीति रिवाज से पूजा-अर्चना की और बच्चों के साथ राष्ट्रगान का गायन किया गया।
ऐसे खोले जाते हैं नक्सलगढ़ के बंद स्कूल
बीजापुर जिले के ज्यादातर इलाके माओवादियों के प्रभाव में आते हैं। ऐसे में सीधे गांव में घुसकर कोई भी काम कर पाना मुमकिन नहीं होता। इस मुहिम में शिक्षा विभाग की टीम गांव के पढ़े लिखे बेरोजगारों से लगातार संपर्क करती है और उन्हें ग्रामीणों के साथ बात के लिए तैयार किया जाता है। ग्रामीणों से बातचीत का रास्ता तैयार होने के बाद शिक्षा विभाग की टीम गांव जाकर स्कूल खोलने की पहल कर शिक्षा से होने वाले लाभ बताकर सहमति लेती है। ग्रामीण तय करते हैं कि ज्ञानदूत कौन होगा और तय करने के बाद ग्राम पंचायत के प्रस्ताव पर उनका चयन किया जाता है। स्कूल की सहमति मिलने के बाद शिक्षा विभाग की टीम आला अफसरों को इसकी जानकारी देकर स्कूल खोलने की मुहिम को अमली जामा पहनाती है।
ग्रामीण खुद बनाते हैं स्कूल भवन यानी झोपड़ी
ग्रामीण जहाँ झोपड़ी बनाने की जिम्मेदारी खुद उठाते हैं, वही शिक्षा विभाग ड्रेस, कॉपी, पेन, किताब, टाटपट्टी, रजिस्टर ब्लैक बोर्ड, मध्यान्ह भोजन की व्यवस्था करता है। इन सारी कवायदों के बीच यहां के ज्यादातर स्कूल नदी-नालों के पार पहाड़ी इलाके में बसे होने से पहुँचविहीन इलाके में शुमार किये जाते हैं। नक्सल प्रभाव वाला इलाका होने से दहशत का दबाव भी बना रहता है। इन हालातों में ये खोले गए स्कूल माओवादी इलाक़े के बदलते हालात और सरकार की विशवास बहाली की मुहिम को मजबूती प्रदान करते हैं।
ज्ञानदूतों के जरिये संवरेगा बच्चों का भविष्य
17 साल बाद खोले गए स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई के लिये ज्ञानदूतों की व्यवस्था की गई है। ये ज्ञानदूत इन इलाकों के स्थानीय शिक्षित बेरोजगार हैं, जो गांव में रहकर बच्चों को शिक्षा देने का काम करेंगे। जिला प्रशासन ने इनकी नियुक्ति डीएमएफ मद से की है, जिन्हें बाकायदा डाइट के माध्यम से प्रशिक्षण दिये जाने की व्यवस्था की गई है। बारिश के बाद सरकार इन जगहों पर झोपड़ी की जगह शेड निर्माण की स्वीकृति देगी, जिसके बाद इन गांव में शिक्षा की बुनियादी सुविधाओं के विकास के साथ सरकार की मौजूदगी भी प्रभावी बन सकेगी।
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