आरक्षण पर बवाल : संशोधन विधेयक पर राज्यपाल ने सरकार से पूछे सवाल, 10 बिन्दुओं पर मांगा जवाब

रायपुर। छत्तीसगढ़ में आरक्षण विधेयक पर बवाल मचा है। राज्यपाल ने 12 दिनों बाद भी आरक्षण संशोधन विधेयकों पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। विधेयक पर फिर से विचार करने सरकार को लौटाया भी नहीं गया है। अब राजभवन ने राज्य सरकार से 10 सवाल पूछ लिए हैं। सवाल में अनुसूचित जाति और जनजाति को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा मानने का आधार पूछा है।
राजभवन ने अपने जवाब में पूछा है कि क्या इस विधेयक को पारित करने से पहले अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति का कोई डाटा जुटाया गया था? अगर जुटाया गया था, तो उसका विवरण प्रस्तुत किया जाए। 1992 में आये इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने आरक्षित वर्गों के लिए आरक्षण 50% से अधिक करने के लिए विशेष एवं बाध्यकारी परिस्थितियों की शर्त लगाई थी। उस विशेष और बाध्यकारी परिस्थितियों से संबंधित विवरण क्या है।
राजभवन ने कहा -उच्च न्यायालय में चल रहे मामले में सरकार ने आठ सारणी दी थी। उनको देखने के बाद न्यायालय का कहना था, ऐसा कोई विशेष प्रकरण निर्मित नहीं किया गया है, जिससे आरक्षण की सीमा को 50% से अधिक किया जाए। ऐसे में अब राज्य के सामने ऐसी क्या परिस्थिति पैदा हो गई, जिससे आरक्षण की सीमा 50% से अधिक की जा रही है। राजभवन ने यह भी पूछा है कि सरकार यह भी बताए कि प्रदेश के अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग किस प्रकार से समाज के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों की श्रेणी में आते हैं।
राजभवन ने चाहा है कि आरक्षण पर चर्चा के दौरान मंत्रिमंडल के सामने तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र में 50% से अधिक आरक्षण का उदाहरण रखा गया था। उन तीनों राज्यों ने तो आरक्षण बढ़ाने से पहले आयोग का गठन कर उसका परीक्षण कराया था। छत्तीसगढ़ ने भी ऐसी किसी कमेटी अथवा आयोग का गठन किया हो तो उसकी रिपोर्ट पेश करे। राजभवन ने क्वांटिफायबल डाटा आयोग की रिपोर्ट भी मांगी है।
अजा और अजजा के व्यक्ति सरकारी सेवाओं में चयनित क्यों नहीं हो पा रहे
वहीं विधेयक के लिए विधि विभाग का सरकार को मिली सलाह की जानकारी मांगी गई है। राजभवन में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के लिए बने कानून में सामान्य वर्ग के गरीबों के आरक्षण की व्यवस्था पर भी सवाल उठाए हैं। तर्क है कि उसके लिए अलग विधेयक पारित किया जाना चाहिए था। राजभवन ने यह भी जानना चाहा है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के व्यक्ति सरकारी सेवाओं में चयनित क्यों नहीं हो पा रहे हैं।
सरकार ने आरक्षण का आधार अनुसूचित जाति और जनजाति के दावों को बताया है। वहीं संविधान का अनुच्छेद 335 कहता है कि सरकारी सेवाओं में नियुक्तियां करते समय अनुसूचित जाति और जनजाति समाज के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाये रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा। राजभवन ने पूछा है कि सरकार यह बताए कि इतना आरक्षण लागू करने से प्रशासन की दक्षता पर क्या असर पड़ेगा, इसका कहीं कोई सर्वे कराया गया है?
राज्यपाल का क्षेत्राधिकार
संवैधानिक विधि के विशेषज्ञ बी.के. मनीष का कहना है, राज्यपाल द्वारा मांगी गई जानकारी अभी की परिस्थितियों में उनके क्षेत्राधिकार के बाहर है। राज्यपाल विधेयकों के पारित होने से पूर्व किसी भी चरण पर यह जानकारी मांग सकती थीं। अथवा आशंका की अभिव्यक्ति शासन से कर सकती थीं। विधेयक के पारित होने के बाद राज्यपाल को उसके बारे में जांच करने और उसके बारे में जानकारी एकत्रित करने का अधिकार तभी प्राप्त हो सकता है, जबकि वह अनुच्छेद 200 के तहत पहले यह घोषणा करें कि वे विधेयकों पर अनुमति नहीं दे रही हैं।
50 प्रतिशत आरक्षण उच्चतम न्यायालय का निर्णय
विधानसभा के पूर्व प्रमुख सचिव देवेंद्र वर्मा का कहना है कि विधेयक शुरू से ही फंसे हुए हैं। उनका कहना है कि आरक्षण में अधिकतम सीमा 50% का निर्धारण उच्चतम न्यायालय ने इंदिरा साहनी (मंडल कमीशन) केस में किया है। इससे पहले महाराष्ट्र में आरक्षण की सीमा 50% से अधिक करने पर महाराष्ट्र के कानून को उच्चतम न्यायालय निरस्त कर चुका है। अभी भी तमिलनाडु, हरियाणा और कर्नाटक की 50% की सीमा को परीक्षण करने सम्बन्धी याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में लम्बित हैं।
संविधान का अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के सामने प्रस्तुत विधेयक पर विवेकाधिकार है कि वे अनुमति देते हैं, नहीं देते हैं अथवा राष्ट्रपति को विचार के लिए भेजती हैं। वे अनुमति कब देती हैं, उसकी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है। अगर राज्यपाल विधेयकों को वापस करतीं है, तो उसके साथ एक नोट भी देतीं, जिस पर विधानसभा में फिर से विचार कर पारित करना पड़ता। उसके बाद वे विधेयकों को अनुमति देने से नहीं रोक सकतीं, लेकिन वह अनुमति भी कब देंगी उसकी सीमा तय नहीं है।
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