Delhi: शाहीन बाग से निकलर विश्व मंच तक कैसे पहुंचीं बिलकीस बानो, बुलंदशहर से है पुराना नाता

आज सभी नौजवानों और बुर्जुगों के लिए प्रेरणा बनी बिलकीस बानो पहली नजर में घर-परिवार और मोहल्ले की दादी या नानी जैसी दिखती हैं और वह ऐसी हैं भी, लेकिन नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के कारण अपने बच्चों का हक छीने जाने की आशंका और कुछ लोगों के साथ बेइंसाफी के डर से वह पिछले साल दिसंबर में शाहीन बाग में धरने पर आ बैठीं।
टाइम पत्रिका ने दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची किया शामिल
अब यह आलम है कि टाइम पत्रिका ने उन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शुमार किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इस सूची में जगह बनाने वाली बिलकीस बानो का कहना है कि उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह दुनिया में इतना ऊंचा मुकाम हासिल करेंगी। मोदी को बधाई देते हुए वह कहती हैं कि मोदी जी भी हमारी औलाद हैं। हमने उन्हें जन्म नहीं दिया तो क्या, उन्हें हमारी बहन ने जन्म दिया है। हम चाहते हैं कि वह हमेशा खुश और सेहतमंद रहें।
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की रहने वाली है बिलकीस बानो
मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की रहने वाली बिलकीस बानो दक्षिणी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में अपने बेटे-बहू और पोते पोतियों के साथ रहती हैं। उन्होंने बताया कि किताबी ज्ञान के नाम पर वह सिर्फ कुरान शरीफ पढ़ना जानती हैं। उन्हें न तो हिंदी आती है और न ही अंग्रेजी। हालांकि धरने के दौरान उनसे बात करने पहुंचे पत्रकारों और सरकारी प्रतिनिधियों को वह पूरे विश्वास के साथ इस कानून की खामियां गिनवाया करती थीं। भारत को अपना जन्म स्थान बताने वाली और देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने की हिमायत करने वाले दबंग दादी का कहना था कि उनके पास और उनके जैसे बहुत से लोगों के पास अपनी नागरिकता से जुड़े तमाम कागजात हैं, लेकिन यह लड़ाई उन लोगों के लिए है, जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त दस्तावेज शायद न हों। 82 साल की उम्र में भी बेहद सक्रिय और चार मंजिलें आसानी से चढ़ जाने वाली बिलकीस बानो दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों पर कथित पुलिस कार्रवाई के विरोध में कुछ अन्य महिलाओं के साथ कालिंदी कुंज रोड के एक हिस्से पर आ बैठीं।
कड़कड़ाती सर्दी में नहीं टूटा हौंसला
उनका कहना है कि शुरू में कड़कड़ाती सर्दी में वह दिन-रात दरी पर बैठी रहती थीं। फिर धीरे-धीरे लोग बढ़ने लगे और उनका प्रदर्शन सरकार के कानों तक जा पहुंचा तो वहां तिरपाल और गद्दों का इंतजाम किया गया। समय बीतने के साथ साथ वह शाहीन बाग की दादी के तौर पर मशहूर हो गईं और प्रदर्शनकारियों की आवाज बन गईं। उन्होंने बताया कि इससे पहले वह कभी इस तरह के किसी आंदोलन का हिस्सा नहीं रहीं, लेकिन जब उन्हें लगा कि उनके बच्चों का हक मारा जा रहा है तो उन्होंने इस प्रदर्शन का हिस्सा बनने का फैसला किया।
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