प्रोफेसर रणबीर सिंह का लेख: आपातकाल में गूंजा था एक नारा, नसबंदी के तीन दलाल- इंदिरा, संजय और बंसीलाल

25 जून 1975 के दिन आपातकाल की घोषणा के कुछ समय बाद चौधरी बंसीलाल को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के केंद्रीय मंत्री परिषद में शामिल कर लिया। उनके स्थान पर चौधरी बंसीलाल की पसंद के अनुसार बाबू बनारसी दास गुप्ता को एक दिसंबर 1975 के दिन हरियाणा के मुख्यमंत्री की शपथ दिलवाई गई। बंसीलाल मंत्रीमंडल में बाबू बनारसी दास चौधरी बंसीलाल के सबसे नजदीकी मंत्री थे और भिवानी में विजय नगर में दोनों एक दूसरे के पड़ोसी भी थे। 1959 से दोनों राजनीति में थे और अपने स्वभाव के अनुसार बाबू बनारसी दास ने कभी चौधरी बंसीलाल को निराश नहीं किया। जिस समय चौधरी बंसीलाल को ताऊ देवीलाल ने राज्यसथा का टिकट दिलवाया उस समय चौधरी बंसीलाल खुद बाबू बनारसी दास गुप्ता के लिए राज्यसभा टिकट मांगने गए हुए थे। वहां काम नहीं बनने पर वापस लौटे तो खुद के टिकट मिलने की जानकारी मिली।
गुप्ता जी के मुख्यमंत्री काल में 1975-77 के बीच डॉ. विनय कुमार मल्होत्रा के जरनल आफ पंजाब में छपे एक लेख के अनुसार उस समय हरियाणा में तीन मुख्यमंत्री थे। एक तो बनारसी दास गुप्ता ही थे, दूसरे चौधरी बंसीलाल के बेटे सुरेंद्र सिंह थे और तीसरे सुपर मुख्यमंत्री चौधरी बंसीलाल खुद थे। यहां ये भी बताना आवश्यक हो जाता है कि बनारसी दास गुप्ता के कार्यकाल में उनकी ही मौजूदगी में मंच पर लाला गोरीशकंर जैसे विधायकों को भी सरेआम अपमानित किया गया था। असल में फैसले बनारसी दास गुप्ता नहीं बल्कि चौधरी सुरेंद्र सिंह ही लेते थे।
देश में जब इमरजेंसी लागू की गई तो सभी दलों के बड़े नेताओं को रोहतक की जेल में इकट्ठा किया गया था। इसके बाद कई नेताओं को जहां पूरा समय रोहतक जेल में रखा गया वहीं कुछ नेताओं को हरियाणा की दूसरी जेलों में भेज दिया गया। इमरजेंसीके दौरान देश के विभिन्न राजनीतिक दलों के तमाम बड़े-बड़े नेताओं को मीसा एक्ट 1971 के तहत जेलों में ठूंस दिया गया था। 25 जून की आधी रात को इमरजेंसी लागू हुई और 26 जून की शाम तक सभी नेताओं को रोहतक जेल में भेज दिया गया। हालात यह थे कि रोहतक जेल की बैरक कम पड़ गई तो यहां जेल के भीतर ही खुले मैदान में सभी को इकट्ठा कर लिया गया। आलम यह हो गया कि यहां रहने व खाने पीने तक की कोई व्यवस्था नहीं थी। रोहतक की जेल को इसलिए चुना गया था क्योंकि ये दिल्ली के नजदीक थी।
जहां लालकृष्ण आडवाणी, केआर मलकानी, पीलू मोदी, सिकंदर भट्ट के अलावा भैरों सिंह शेखावत, ताऊ देवीलाल, चंद्रशेखर, राज नारायण, जार्ज फर्नांडिस, बीजू पटनायक, भाजपा नेता विजय कुमार मल्होत्रा समेत सैकड़ों ऐसे नेता थे, जिन्हें दिल्ली से उठाकर रोहतक की जेल में भेज दिया गया। दो दिन में ही रोहतक जेल के हालात बेकाबू हो गए। यह मुद्दा इंदिरा गांधी तक पहुंचा तब उन्होंने फरमान जारी किया कि हरियाणा से संबंधित हवालातियों तथा एक-एक दिल्ली से भेजे गए वरिष्ठ नेता को हरियाणा की दूसरी जेल में शिफ्ट कर दिया जाए। इसके बाद रोहतक जेल से उन्हें हिसार, करनाल व अंबाला आदि जेलों में शिफ्ट किया गया। भाजपा के मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो चुके वरिष्ठ नेता एवं लाल कृष्ण आडवाणी जब वाजपेयी सरकार में उपप्रधानमंत्री थे तो उन्होंने रोहतक जेल देखने की इच्छा जताई। आडवाणी रोहतक की जेल में 18 जुलाई 1975 से 22 जुलाई 1975 तक रहे थे। आडवाणी जब उपप्रधानमंत्री बने तो वह 27 जून 2003 को रोहतक जेल में आए थे। यहां उन्हें जिस बैरक में रखा गया था वहां आडवाणी ने करीब आधा घंटा व्यतीत किया था।
नशबंदी का कार्यक्रम भी यहां अन्य राज्यों से ज्यादा सख्ती से लागू किया गया। बसों से सवारियां उतारकर नसबंदी के समाचार मिलते थे। इतना ही नहीं टारगेट पूरा करने के चक्कर में बुजुर्गों व किशोरों की नसबंदी की अफवाहें भी तब खूब उडी थी। हरियाणा ही देश में ऐसा पहला राज्य भी था जहां नशबंदी का सार्वजनिक विरोध शुरू हुआ था। सोनीपत जिले के एक पीपली गांव में नशबंदी के विरोधियों ने एक पुलिसकर्मी की हत्या तक कर दी थी और अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई का दहिया खाप में ने डटकर विरोध किया था। सर्वखाप पंचायत की एक बैठक में भारी संख्या में लोगों की मौजूदगी ने सरकार के भी होश उडा दिए थे। सरकार ने इसके बाद संयम से काम लेते हुए किसी तरह इस मामले को ठंडा किया।
इस दमनचक्र के दौरान ही कुछ काम रचनात्मक भी हुए। प्रशासन में भ्रष्टाचार पर नकेल लगी। सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों ने समय पर दफ्तर आना शुरू कर दिया था। सड़कों और बाजारों से अतिक्रमण भी लोग खुद ही हटाने लगे थे। जहां नहीं हटाए गए थे वहां प्रशासन हटाकर रोड चौडे किए। अपराधों में भी तब काफी कमी देखने को मिली थी। इसके विपरित जनता में इंदिरा गांधी सरकार और हरियाणा में विशेषकर चौधरी बंसीलाल के विरूद्ध अच्छा खासा जनाक्रोश देखने को मिला। राेहतक निवासी वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सतीश त्यागी ने पुस्तक पाॅलिटिक्स आफ चौधर में लिखा है कि तब हरियाणा में एक नारा खूब लोकप्रिय हुअा- नसबंदी के तीन दलाल, इंदिरा, संजय और बंसीलाल। इसके अलावा जमीन गई चकबंदी में, मकान गया हदबंदी में, दरवाजे पर खड़ी औरत चिल्लाए, उसका मर्द गया नसबंदी में...कांग्रेस पार्टी के प्रति भी लोगों में भारी रोष था। आपातकाल के खत्म होते ही 1977 के लोकसभा की नौ सीटें कांग्रेस पार्टी बडे अंतराल से हारी।
खुद चौधरी बंसीलाल अपने गढ भिवानी में चंद्रावती श्योराण से बुरी तरह पछाड खा गए। इतना ही नहीं अहीरों के सबसे बडे नेता राव विरेंद्र सिंह ने कांग्रेस के समर्थन से चुनाव लडा था और लोगों ने इसकी भी सजा उन्हें देते हुए हरा दिया। ये वही राव विरेंद्र सिंह थे जो 1971 इंदिरा गांधी की प्रचंड लहर में भी अपनी सीट बचा गए थे। चौधरी बंसीलाल और उनकी पार्टी को लोगों ने उनके किए की सजा दी। पहली बार भारत में ऐसे चुनाव हुए थे जहां धर्म, जाति, शहरी-ग्रामीण या क्षेत्री पहचान का सवाल नहीं था। मतदाताओं का एक ही टारगेट था इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी का पतन सुनिश्चित करना। आपातकाल की ज्यादतियों और नशबंदी जैसे जबरदस्ती कार्यक्रमों के रोष स्वरूप जनता ने अपना वोट किया था। इस चुनाव के बाद बाबू बनारसी दास गुप्ता के नेतृत्व वाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और हरियाणा में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया।
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