अखिलेश आर्येन्दु का लेख : मानवता के निर्माता श्रीकृष्ण

अखिलेश आर्येन्दु का लेख : मानवता के निर्माता श्रीकृष्ण
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कृष्ण ऐसी वैदिक मूल्यावादी और सर्व उपयोगी संस्कृति के महानायक हैं जिनके रोम-रोम में विश्व मानवता का कल्याण और सुख-आनंद देने का भाव है। वे सब को साथ लेकर चलते हैं और विपरीत बुद्धि वालों को अपनी नीति और स्वभाव से अपने में समाहित कर लेते हैं।गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- जो व्यक्ति डर से रहित, दिल से सदा साफ, तत्त्वज्ञान के लिए जिज्ञासु, योग-ध्यान में समता से युक्त, सात्विकता के गुणों को धारण करता है, अपने बड़ों की पूजा करता है, यज्ञ-हवन करके प्रकृति और समाज को पवित्र करता है, वेद-शास्त्र में आस्थ रखता है, स्वधर्म का पालन करता है और अधर्म का रास्ता नहीं अपनाता, उसका इहलोक भी सुखमय होता है और परलोक भी।

Shri Krishna Janmashtami : मानवीय मेधा, प्रवृत्ति, मूल्य, धर्म और विज्ञान को सनातन धारा से जोड़कर उसका प्रबंधन, निर्माण और मार्गदर्शन करने वाले महामानव श्री कृष्ण का जीवन अद्वितीय है। वे विश्व मानवता का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते, बल्कि उसका शोधन भी करते हैं। वे जहां एक नीतिज्ञ हैं वहीं धर्म-संस्कृति के उद्गाता भी हैं। उनकी अनमोल कृति को किसी एक पुस्तक के रूप में नहीं संकुचित देख सकते। मनुष्य के कर्तव्य, कार्य, स्वभाव, शक्ति, सद्गण, विचार, सृजन और प्रबंधन सभी के आदर्श और नीति-निर्माता श्री कृष्ण हैं। यही वजह है पांच हजार साल गुजर जाने के बावजूद उनके गुण, कर्म, स्वभाव, शक्ति, मूल्य, अध्यात्म और धर्म की स्थापना की धारा दुनियाभर में स्वीकार है। वे गीता के जरिये अर्जुन को महज धर्म की स्थापना के लिए कर्तव्य पालन का उपदेश ही नहीं देते बल्कि मोह, भ्रम, द्वंद्व और मन की अस्थिरता से पैदा होने वाली समस्याओं, और दुर्बलताओं को दूर करने के लिए शुभ संकल्प व कर्मवीरता को अपनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं।

श्री कृष्ण समस्थ सद्गुणों और ऐश्वर्यों के मालिक हैं। उन्होंने संसार के हर व्यक्ति को सच्चे मायने में मानव बनने के लिए जरूरी मूल्यों काे आत्मसात करने पर बल दिया। उन्होंने कहा, सद्गुण रूपी ऐश्वर्य का मालिक बनने पर व्यक्ति सबसे पहले सच्चे मायने में मानव बनता है, फिर देवत्व को प्राप्त हो जाता है। दुनिया में पूज्य वही बनता है जो सभी तरह के सद्गुणों को धारण करता है और खामियों को दूर करने के लिए सदैव तैयार रहता है। श्री कृष्ण भगवान इसलिए कहे गए कि उन्होंने सभी तरह के सद्गुणों, अद्वितीय कर्तव्यों को धारण कर दुनिया को एक नई धारा के तीन सहज विचार- प्रेम, शांति और नीति के रास्ते को अपनाने पर जोर दिया। श्री कृष्ण ने पतितों को नीति द्वारा समझाया और धर्म-कर्तव्य के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरणा दी और साहस बधाया।

ऐश्वर्य के भंडार और इंसानियत के सबसे बड़े निर्माता व संवाहक श्री कृष्ण ने समाज को अनुकरण और अनुशरण के जरिए सद्गुण और दुर्गुण दोनों की अच्छाइयों और खामियों के बारे में बताया। वे हर व्यक्ति के जीवन को उत्तम मार्ग का अनुगामी बनाने की बात करते हैं। दुर्गुणी स्वभाव का व्यक्ति पानी के स्वभाव का होता है यानी हमेशा नीचे की ओर ही जाने की प्रवृति उसकी होती है और सद्गुणी व्यक्ति का स्वभाव अग्नि की तरह होता है। जैसे अग्नि जहां भी जलाई जाए उसकी लौ हमेशा ऊपर की ओर ही होती है। उत्तम जीवन के लिए तो अग्नि का स्वभाव बनाना ही होगा, अग्नि का स्वभाव बनाए बगैर उन्नति नहीं हो सकती है। श्री कृष्ण स्वभाव में सहज, शांत और पवित्र रहने की बात करते हैं। श्री कृष्ण ने शिशुपाल को सौ बार क्षमाकर समाज को यह संदेश दिया कि क्षमा करना जहां एक खासियत है वहीं पर सीमा से बाहर जाकर क्षमा करना कायरता भी है। वह चाहे व्यक्ति के साथ हो या राजा अथवा देश के साथ। श्री कृष्ण की यह नीति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। गौरतलब है हर आदमी में कोई न कोई गुण जरूर होता है, इसलिए कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि परमात्मा ने हममें कोई गुण या खासियत दी ही नहीं है। यह कहें कि सारी की सारी अच्छाइयां केवल मुझमें ही हैं, यह भी उचित नहीं।

श्री कृष्ण ने समझाया कि जीवन में धर्म उतना ही जरूरी जितनी कि धन-दौलत। इसी तरह शुभकामना करते रहना उतना ही जरूरी है जितना कि आंनद के लिए परमात्मा की भक्ति। गीता में भगवान कहते हैं, हमें अपनी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों पर नज़र रखनी चाहिए। अच्छाइयां उस पीपल के पेड़ की तरह हैं जो खुद को शीतल करता है और राहगीर को भी। जिससे खुद का हित हो और सभी प्राणियों का ऐसा कार्य, गुण व स्वभाव का होना चाहिए। श्री कृष्ण ने अपने जीवन से इस बात को साबित कर दिया था। श्री कृष्ण कहते हैं, मन को निर्मल बनाना उतना ही जरूरी है जितना कि सहज। साथ में प्राणी मात्र के हित की कामना करना मनुष्य का पावन धर्म और कर्म है। जो महज अपने स्वार्थ और स्वाद में बने रहते हैं वे न तो अपना हित कर पाते हैं और न तो दूसरों का। महाभारत में उन्होंने सत्य, शुभ, त्यागी, अपरिग्रही, मैत्री स्वभाव वाले पांडव का साथ ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें प्रेरणा और धर्म की शक्ति भी देते रहे। जहां धर्म और धैर्य साथ-साथ होते हैं, उनकी सफलता सुनिश्चित होती ही है, इसलिए पांडव युद्ध में ही विजयी नहीं हुए बल्कि स्वर्ग के राज्य में भी विजय पताका फहराई। कृष्ण उपदेश करते हैं कि इंसान होने के बावजूद हम अपनी बुद्धि, विवेक, शक्ति और क्षमता के संबंध में कभी निष्पक्ष मूल्यांकन नहीं करते, इसलिए न तो धर्म की प्राप्ति कर पाते हैं और न तो अर्थ और मोक्ष का ही। दीनहीनता की वजह किस्मत नहीं बल्कि अपने वे कर्म हैं जो नकारात्मक, अशुभ संकल्प और नियम-मर्यादा से दूर होकर किए जाते हैं। इंसान अपने अवचेतन में कभी यह नहीं बिठा पाता कि उसकी जिंदगी का मकसद क्या है। यदि हम धर्म और धैर्य को संगी बना लें तो हमको एक सत्साहसी, शक्तिशाली, संकल्पवान, निरोगी, तंदुरुस्त, ऐश्वर्यशाली और भाग्यशाली मनुष्य बनने में कोई नहीं रोक सकता है। इसके लिए जरूरी है योगसाधना। श्री कृष्ण योगराज है। उनका योग अंदर व बाहर दोनों से पूर्ण व सकारात्मक है। उनके योग में वैज्ञानिकता, संस्कृति-प्रियता, आध्यात्मिकता, धार्मिकता और दार्शनिकता का समावेश है। जिससे वे आठों सिद्धियों और नौ निधियों के भंडार हैं। उनमें भगवत्ता की सोलह कलाएं हैं जो इहलोक और परलोक दोनों को सफल करती हैं। योग की सर्वोच्चता यही है। वे ऐसे मनीषी हैं जिनका जीवन मानवीय सद्गुणों, देवत्व की शिलाओं और धर्म की दृढ़ता में हर पल अनुरक्त है। उनमें अद्भुत धैर्य, संकल्प, सत्साहस, उमंग, शांति, स्वच्छता, शीलता, सहजता, संवेदना और करुणा जैसे अद्वितीय सद्गुण विभूषित हैं। वे उनका भी हित करते हैं जो उनका अहित करते हैं।

श्री कृष्ण ऐसी वैदिक मूल्यावादी और सर्व उपयोगी संस्कृति के महानायक हैं जिनके रोम-रोम में विश्व मानवता का कल्याण और सुख-आनंद देने का भाव है। वे सब को साथ लेकर चलते हैं और विपरीत बुद्धि वालों को अपनी नीति और स्वभाव से अपने में समाहित कर लेते हैं। वे परा-अपरा दोनों को जानने वाले हैं। वेद शास्त्र और आगम-निगम सभी के वे ज्ञाता हैं, इसलिए उनके जीवन में किसी भी मोड़ पर फिसलन नहीं है। वे उनका भी उद्धार करते हैं जो बराबर असुर नीति के पोषक रहे, क्योंकि उनका कार्य धर्म की रक्षा और अधर्म का नाश करना था। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं- जो व्यक्ति डर से रहित, दिल से सदा साफ, तत्त्वज्ञान के लिए जिज्ञासु, योग-ध्यान में समता से युक्त, सात्विकता के गुणों को धारण करता है, अपने बड़ों की पूजा करता है, यज्ञ-हवन करके प्रकृति और समाज को पवित्र करता है, वेद-शास्त्र में आस्थ रखता है, स्वधर्म का पालन करता है और दुख सहने और सुख के लिए अधर्म का रास्ता नहीं अपनाता, उसका इहलोक भी सुखमय होता है और परलोक भी।

(लेखक अखिलेश आर्येन्दु वैदिक वाड्.मय के अध्येता ये उनके अपने विचार हैं।)

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