चित्तौड़गढ़ की विश्वप्रसिद्ध कला के प्रचार-प्रसार में जुटे देवेंद्र कादियान

रवींद्र राठी : बहादुरगढ़
हमारी विरासत की समस्त शास्त्रीय और लोक कलाओं के साथ ही प्रादेशिक पृष्ठभूमि से जुड़ी परम्पराएं भी हमें अपने ढंग से आकर्षित करती रही हैं। ऐसी ही सैकड़ों साल पुरानी राजस्थान की काष्ठ कला को 'कावड़' के नाम से जाना जाता है। इसकी दरो-दीवार पर तस्वीरें बिखरी होती हैं। हर तस्वीर में पूरी कहानी का एक-एक टुकड़ा बिखरा होता है। जो किसी व्यक्ति या प्रसंग से जुड़ी घटनाओं को बयां करती हैं।चित्तौड़गढ़ की इस विश्वप्रसिद्ध कला के प्रचार-प्रसार में जुटे देवेंद्र कादियान मूल रूप से झज्जर जिले के दूबलधन गांव के निवासी हैं।
देवेंद्र कादियान ने हरियाणा के कैथल में रहते हुए इलेक्ट्रॉनिक्स से बीएससी की। फिर 1989 में जयपुर की एक टीवी कंपनी में नौकरी शुरू कर दी। लेकिन समय का फेर ऐसा आया कि उनकी नौकरी छूट गई और एक एनजीओ ने उन्हें काष्ठ कला के उत्पादों के विपणन से जोड़ दिया। यहां की कावड़ कला से प्रभावित होकर उन्होंने भी करीब डेढ़ दशक पूर्व इसमें अपने जौहर दिखाने शुरू कर दिए। आज उनकी कला सबको बरबस ही अपनी ओर खींच रही है। चूंकि संस्कृति से जुड़ा ज्ञान और इसके प्रभाव से हमारी जीवन शैली में यथासमय आए सुखद परिणाम हमारे मन को भाते हैं।
बता दें कि कावड़ में बहुत सी खिड़कियां (फाटक) होती हैं, जो धीरे-धीरे खुलती हैं। वहीं सतरंगी तरीके से बनी चित्राकृतियां भी हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती हैं। वहीं धार्मिक पहलू की चर्चा करें तो यहां भगवान विष्णु, राम और श्री कृष्ण की लीलाओं का चित्रण किया जाता है। कहीं लक्ष्मीजी विष्णु के चरणों में विराजमान हैं, तो कहीं ऋषी मुनियों के आश्रम आदि का अंकन। गऊ माता, स्वर्ग-नरक और दान पेटी आदि का वर्णन अपने तरीके से व्याख्यायित करता है। भले ही कावड़ वाचन की वैसी परम्परा अब देखने को नहीं मिलती, मगर आज भी देवेंेद्र जैसे शिल्पकारों के समर्पण के बूते ये कला हमारे समाज में जिंदा है।
देवेंद्र बताते हैं कि इस लकड़ी के घर में एक पूरी कहानी कैद होती है। उनका मानना है कि कलाकार का काम रुचि के बिना नहीं हो सकता। इसके लिए लगातार प्रयास करते रहने और ट्रेनिंग की जरूरत होती है। उनकी बातचीत में हर नाउम्मीदी में एक आशा की किरण खोज लेने की सहज जिजीविषा के दर्शन होते हैं। वे हरियाणा की पारम्परिक काष्ठ-कला को लेकर रिसर्च करना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि लोग अपनी प्राचीन कला के बारे में जानें। इसे प्रोत्साहन दें। ताकि हमारी धरती की इस परम्परा का प्रवाह निरंतर बना रहे।
कादियान लकड़ी की कठपुतली, ईसर, तोरण, गणेश, बाजोट, माणकथंभ, चौपड़े, मुखौटे, छापे, मूर्तियां, मोर-मोरनी, लोक-प्रतिमाएं, विमान, झूले, छड़ीदार, हाथी, घोड़े, ऊंट, कबूतर आदि सजावटी सामान भी बनाते हैं। वे कहते हैं कि कावड़ बनाते समय उन्होंने कुछ नए प्रयोग भी किए, ताकि कहानी के प्रभाव को और गहरा बनाया जा सके।
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