डा. सूर्यकांत मिश्रा का लेख : आचार संहिता को चिढ़ाती घोषणाएं

चुनाव से पूर्व मतदाताओं को लुभाने की नीयत से फ्री की रेवड़ियां बांटने पर निर्वाचन आयोग मौन क्यों है? कहने को तो आचार संहिता के बाद किसी प्रकार की घोषणा या नए कार्यों को करना नियम विरुद्ध होता है, किंतु निर्वाचन आयोग पार्टियों द्वारा की जाने वाली लोक- लुभावन घोषणाओं पर आंख और मुंह पर पट्टी बांधे नजर आता है। निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों के साथ विचार विमर्श कर मसौदा भी तैयार किया। मसौदे में पूछा गया है कि फ्री की घोषणाओं पर अमल करने के लिए धन कहां से अर्जित किया जाएगा? इसे बताना भी जरूरी होगा। इतना सब होते हुए भी आचार संहिता लगने के बाद निर्वाचन आयोग की चुप्पी समझ से परे है।
विधानसभा चुनाव से पहले नेता येन - केन- प्रकारेण सत्ता में काबिज होना चाह रहे हैं। विधानसभा के प्रथम चरण का मतदान आज 7 नवंबर को होना है। पहले चरण में छत्तीसगढ़ और मिजोरम में चुनाव होने हैं। छत्तीसगढ़ में दो चरण में चुनाव होंगे। छग में कांग्रेस सरकार के मुखिया भूपेश बघेल सहित कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी तथा प्रियंका गांधी वाड्रा ने चुनाव प्रचार- प्रसार की कमान संभाली है। चुनाव प्रचार के बहाने बड़े-बड़े लोक लुभावन वादे अपने घोषणा पत्र के माध्यम से कांग्रेस ने किए हैं। सबसे ज्यादा किसानों को साधने का प्रयास किया गया है। राहुल गांधी ने तो केजी से पीजी तक शिक्षा को मुक्त करने का ऐलान भी कर दिया है! कांग्रेस की ललचायी घोषणाओं के बाद भारतीय जनता पार्टी भी चुप नहीं बैठी है। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने भी अपना घोषणा पत्र जारी कर दिया है।
घोषणा पत्र में क्या होगा ? किसके लिए होगा ? कौन खुश तथा कौन नाराज होगा? कहना मुश्किल है, लेकिन सबको लुभाने की कोशिश जरूर है। भाजपा ने भी अनेक लोकलुभावन घोषणाएं की हैं। सवाल यह उठता है कि चुनाव आचार संहिता के बाद ऐसा करना आचार संहिता का उल्लंघन क्यों नहीं माना जा रहा है ? जब वाहनों की जांच के दौरान कैश से लेकर हर प्रकार की सामग्री यह मानकर जब्त की जा सकती है, कि वह मतदान को प्रभावित कर सकती है, तब रेवड़ियाें का वादा करती चुनावी घोषणाओं पर विराम क्यों नहीं लग पा रहा है? यह आचार संहिता का उल्लंघन कैसे नहीं है? चुनाव आयोग क्या कर रहा है?
चुनाव से पूर्व मतदाताओं को लुभाने की नीयत से फ्री की रेवड़ियां बांटने पर निर्वाचन आयोग मौन क्यों है? देखा जाए तो चुनाव संपन्न होने के बाद 5 वर्षों तक सत्ताधारी दल को जन सामान्य के लिए योजनाओं की याद नहीं आती। जैसे ही नए चुनाव पास आते हैं दो सप्ताह के भीतर योजनाओं की झड़ी मानसूनी बादल की तरह बरसने लगती है। कहने को तो आचार संहिता के बाद किसी प्रकार की घोषणा या नए कार्यों को करना नियम विरुद्ध होता है , किंतु निर्वाचन आयोग पार्टियों द्वारा की जाने वाली लोक- लुभावन घोषणाओं पर आंख और मुंह पर पट्टी बांधे नजर आता है। परियोजनाएं बनाना और उन्हें लागू करना राज्य सरकार का अधिकार है।
मतदाता के लिए भी इसे जानना जरूरी है। वह इसलिए कि परियोजनाओं का आर्थिक प्रभाव क्या होगा। यह विचारणीय है कि चुनाव जीतने के लिए घोषित मौजूदा लोक- लुभावन फ्री की रेवड़ियों की कीमत आने वाली पीढ़ी को तो नहीं चुकानी पड़ेगी? अगली पीढ़ी का भविष्य कहीं गिरवी तो नहीं रख दिया जाएगा? सबसे बड़ा सवाल यह की इन फ्री की रेवड़ियों वाली घोषणाओं के लिए धन कहां से आएगा? वास्तविक रूप में देखा जाए तो अधिकांश घोषणाओं का आर्थिक आधार नींव के बिना धूल- धूसरित होता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने रेवड़ियों के मामले पर केंद्र सरकार, चुनाव आयोग और राजस्थान सरकार से जवाब भी मांगा है, इससे साफ है कि शीर्ष अदालत इस मसले पर सख्त है।
निर्वाचन आयोग घोषणाओं के मामले में पूरी तरह अनभिज्ञ अथवा चुप रहता हो, ऐसा कहना भी गलत हो सकता है । कारण यह कि निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों के साथ विचार विमर्श का मसौदा भी तैयार किया है। मसौदे में पूछा गया है कि फ्री की घोषणाओं पर अमल करने के लिए धन कहां से अर्जित किया जाएगा? इसे बताना भी जरूरी होगा। कोई टैक्स, सेस या किस योजना के तहत धन अर्जित किया जाएगा? जिससे फ्री की रेवड़ियां बांटी जा सके? इतना सब होते हुए भी आचार संहिता लगने के उपरांत निर्वाचन आयोग की चुप्पी समझ से परे है। किसी प्रदेश को तंगहाली अथवा कंगाल बनाने में फ्री की योजनाएं अहम भूमिका निभा सकती हैं। इस तरह की घोषणाओं के बाद राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में रहे अथवा विपक्ष में बैठे, मुफ्त की योजनाओं को लागू करना अथवा कराना मुमकिन नहीं हो पता है।
सीधे शब्दों में कहूं तो स्थिति ऐसी होती है कि न तो निगलते बनता है और न ही उगलते। मुफ्त की योजनाओं को बंद करने अथवा ऐसी घोषणाओं पर विराम लगाने सुप्रीम कोर्ट में एक नहीं अनेक याचिकाएं लंबित हैं। कानून के जानकार यह भी कहते नहीं थकते की अदालत के पास आदेश जारी करने की शक्ति है, किंतु आदेश के बाद किसी योजना के कल्याणकारी होने का दावा करते हुए पुनः अदालत का दरवाजा न खटखटा दिया जाए। ऐसे में स्थिति विकट हो सकती है। यह बहस का विषय हो सकता है न्यायपालिका को हस्तक्षेप क्यों करना पड़ा?
फ्री की योजनाओं को लेकर सभी दल एक कड़ी में बंधे देखे जा सकते हैं। हर दल चाहता है कि फ्री की रेवड़ियां बांटना जारी रहे। इससे उनका कुछ नहीं बिगड़ता । धन आम जनता का होता है, और गद्दी उनकी सुरक्षित रहती है। मैं एक सवाल निर्वाचन आयोग से करना चाहता हूं , कि जब सरकार के पास विकास कार्यों के लिए फंड नहीं होने का रोना रोया जाता है, तो चुनाव जीतने के लिए, ललचाई घोषणाओं के लिए फंड कहां से उपलब्ध हो जाता है ? यही बड़ा कारण है जिससे हमारी अर्थव्यवस्था लचर होती जा रही है। देश के प्रत्येक मतदाता को यह जानने का हक है कि फ्री की रेवड़ियों या निः शुल्क गिफ्ट बांटने के लिए सरकार अथवा राजनीतिक दल पैसे कहां से ला रही है अथवा लाएंगी? देश के एक-एक करदाता को यह जानने का अधिकार है कि उसकी गाढ़ी कमाई का हिस्सा, जो टैक्स के रूप में जा रहा है , उसका उपयोग कहां और कैसे हो रहा है? साथ ही घोषणा पत्र में लालच देने वाली पार्टी को यह बताना होगा की घोषणाओं को पूरा करने के लिए फंड कहां से आएगा? नागरिकों को रेवड़ियों का वादा करने वाले इन दलों को कटघरे में खड़ा करना चाहिए।
आज हर दल सत्ता चाहता है और सत्ता की चाहत में उसके द्वारा फ्री की रेवड़ियों की मिठास घोषणा पत्र में लपेटकर मतदाताओं को पड़ोसी जाती है। यही वह घोषणाएं होती है जो देश अथवा प्रदेश को दिवालिया करने में अपनी भूमिका अदा करती है। निर्वाचन आयोग ही वह ताकतवर संगठन है, जो ऐसी राजनीतिक पार्टियों पर लगाम लगा सकता है। आने वाले लोकसभा चुनाव में यदि निर्वाचन आयोग को ऐसी शक्ति दे दी जाती है, जिससे वह चुनाव आचार संहिता के उपरांत राजनीतिक दलों द्वारा की जाने वाली लोक लुभावना घोषणाओं पर लगाम लगा सके, तो हम प्रदेश के विकास की नई तस्वीर देख सकते हैं । यदि हमारे निर्वाचन आयोग को ‘पिंजरे का तोता’ बनाकर रख दिया गया तो, वह दिन दूर नहीं जब भारत वर्ष का प्रत्येक राज्य श्रीलंका बन जाएगा। यदि हम श्रीलंका या फिर ऐसा ही कोई राष्ट्र नहीं बनना चाहते हैं, तो वित्त आयोग से लेकर नीति आयोग को फ्री की घोषणाओं पर नियंत्रण करने पर गौर करना होगा ।
डा. सूर्यकांत मिश्रा (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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