चुनावी मौसम : पांच साल से मेहनत कर रहे संभावित उम्मीदवारों का गणित बिगाड़ सकते हैं नए-नवेले

रवींद्र राठी. बहादुरगढ़
निकाय और पंचायत चुनाव नजदीक आते ही नए दावेदार मैदान में उतर कर सामने आ रहे हैं। लंबी-चौड़ी दावेदारी करने वाले ये नेता पिछले पांच वर्षों में कहीं दिखाई नहीं दिए। जरूरत के समय सेवा कार्य के माध्यम से भी सामने नहीं आएं। हालांकि ऐसा करने वाले इक्का-दुक्का नेताओं की जनता के बीच में पकड़ मजबूत हुई है, लोग उन्हें पहचानने लगे हैं। लेकिन, अधिकतर नए लोग चुनाव नजदीक देख ताल ठोकने की तैयारी कर रहे हैं। यह बहुत कुछ तो नहीं कर सकेंगे, मगर स्थापित नेताओं के लिए मुसीबत जरूर बन सकते हैं। यह कारण है कि चुनाव के समय ऐसे नेताओं को मनाने का भी सिलसिला चलता है।
बेशक आरक्षण के फेर में अटके निकाय और पंचायत चुनावों के अगले साल की शुरूआत मंे होने की संभावना बन रही है। बावजूद इसके क्षेत्र से दर्जनों नए दावेदार सामने आए हैं। इनमें से अनेक को तो एक साल पहले तक क्षेत्र की जनता जानती तक नहीं थी। मगर ज्यादातर इंटरनेट मीडिया के माध्यम से प्रकट होने लगे हैं। धीरे-धीरे लोगों के बीच में भी जाने लगे हैं। समाचारों के माध्यम से भी जनता में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं। शहर से लेकर गांवों की गलियों में भ्रमण करते नजर आने वाले ऐसे सफेदपोशों पर कई बार लोग सवाल दागने से भी नहीं चूकते कि चुनाव नजदीक आया तो नेताजी दिखाई देने लगे। इतना ही नहीं बीते चुनावों में मुंह की खाने वाले नेता भी दिखाई देने लगे हैं। यह अलग बात है कि वे भी पिछले चार-पांच साल से जनता की बजाय अपने हितों की पूर्ति में व्यस्त थे। चुनाव को देखते हुए वे भी मैदान में दिखने लगे हैं।
बुद्धिजीवी नागरिकों के अनुसार राजनीति में यह प्रचलन गलत है। राजनीति में आने के इच्छुक नेताओं को कम से कम 10 वर्ष जनता के बीच में संघर्ष करना चाहिए। जनता की समस्याएं सुननी चाहिए, उनसे जुड़ना चाहिए, उसके बाद उन्हें चुनाव के लिए मैदान में उतरना चाहिए। मगर, आजकल तो देखा जाता है कि कुछ दिन में ही दलबल के साथ लोग आते हैं और चुनाव की तैयारियों में जुट जाते हैं। ऐसे लोग यदि जीत भी जाते हैं, तो फिर जनता का काम नहीं कर पाते। पांच साल व्यतीत करने के बाद वे फिर चुनाव की तैयारी में जुट जाते हैं। ऐसे मौसमी नेताओं के कारण पांच साल से मेहनत कर रहे प्रत्याशी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है और असली खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है।
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