अभी खत्म होता नहीं दिख रहा किसान आंदोलन : पीएम के कानून वापसी के ऐलान के बाद भी संवादहीनता बरकरार

रवींद्र राठी. बहादुरगढ़
कृषि कानूनों को वापस लिए जाने की प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद भी किसान आंदोलन खत्म होता नहीं दिख रहा है। दरअसल, 22 जनवरी के बाद सरकार और किसानों के बीच आज तक ना ही कोई मीटिंग हुई ना कोई बातचीत। स्थितियां तो वहीं की वहीं हैं। प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद किसान आंदोलन की दिशा दिल्ली की दहलीज पर बैठे संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं पर निर्भर है। मोर्चा की निर्णायक बैठक शनिवार को होनी थी, लेकिन यह फिलहाल रविवार तक टाल दी गई है। अब सबकी नजरें इस बैठक पर टिकी हैं।
आंदोलनकारी किसान तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की घोषणा का तो स्वागत कर रहे हैं। लेकिन उनके अनुसार बात अभी अधूरी है। जब तक संसद में तीनों कानून वापस नहीं लिए जाते आंदोलन खत्म नहीं होगा। टीकरी बॉर्डर पर मुख्य मंच से गरजते किसान नेताओं का कहना है कि अभी सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग मानी है। इससे किसान नुकसान से बच गए। खेती-किसानी को बचाने के लिए सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होना जरूरी है। सरकार को यह कानून बनाना होगा कि कहीं भी किसान की फसल समर्थन मूल्य से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी। आंदोलन में यह प्रमुख मांग रही है। धरनारत किसान संसद में इस कानून को खत्म किए जाने की प्रक्रिया के पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा ने कृषि कानून विरोधी आंदोलन के तहत 26 नवंबर को पंजाब से दिल्ली कूच शुरू किया था। दो महीने बाद गणतंत्र दिवस पर टै्रक्टर परेड के दौरान हिंसा के बाद दम तोड़ते नजर आ रहे आंदोलन को राकेश टिकैत के आंसुओं ने बचाया और इसके बाद खाप पंचायतों की मदद से यह आगे बढ़ा। बेशक सभी खाप चौधरी शुरू से ही तीनों कृषि कानूनों के विरोध में लामबंद हो गए थे। लेकिन 27 जनवरी के बाद खापों ने आंदोलन में भीड़ जुटाने और आंदोलनकारियों के भोजन समेत अन्य व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी उठाई। गांवों में आंदोलन के लिए बड़ा समर्थन भी खापों ने ही जुटाया। यही बड़ा कारण था कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा नेताओं को गांव-गांव में विरोध का सामना करना पड़ा।
आंदोलन की शुरूआत से ही पंजाब के किसानों को हरियाणा के किसानों का साथ मिलने से आंदोलन परवान चढ़ा। तमाम आक्षेपों के बाद भी किसानों की नफरी बढ़ती चली गई। विभिन्न सियासी हमलों के बाद भी किसानों ने धैर्य नहीं खोया। शांति के साथ एकजुटता बनाए रखी। यही कारण है कि गुरनाम चढूनी और राकेश टिकैत के रूप मंे दो बड़े किसान नेता उभरे। हरियाणा और पंजाब में भाजपा नेताओं के उग्र विरोध ने भी सरकार को सोचने पर मजबूर किया। राज्यपाल सत्यपाल मलिक, बीजेपी सांसद वरुण गांधी, पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र सिंह द्वारा खुलकर किसान आंदोलन का समर्थन करने से सरकार की किरकिरी हुई। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में प्रधानमंत्री की छवि पर सवाल उठे। उपचुनावों में मिली हार के अलावा पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब के होने वाले चुनावों ने कानून वापसी की पटकथा लिख दी।
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