अलका आर्य का लेख : मानसिक स्वास्थ्य पर फोकस हो

अलका आर्य
मानसिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य का ही एक हिस्सा है, जिसे अब तक अलग से देखा जाता रहा है। शारीरिक सेहत व मन की सेहत को एक ही लेंस से देखना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं। ना ही आमजन, परिवार, समाज व ना ही सरकार में नीतियां बनाने वाले, ऐसा नजरिया रखते हैं। नतीजतन इस समय दुनिया में मानसिक अस्वस्थता एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार' वर्तमान में दुनिया का हर आठवंा व्यक्ति किसी न किसी रूप में मानसिक विकार से ग्रसित है। इस संस्था का यह भी कहना है कि कोरोना महामारी ने लोगों की मानसिक सेहत पर बुरा असर डाला है। इस महामारी के कारण लोगों के अवसाद और चिंता जैसी स्थितियों की दर में 25 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई। जहां तक भारत का सवाल है तो 140 करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में मानसिक अस्वस्थता को लेकर जागरूकता का अभाव परिवार, समाज से लेकर सरकारी स्तर पर साफ नजर आता है।
भारत में लोगों की मानसिक सेहत का खुलासा स्वास्थ्य मंत्रालय और इंडियन कौंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च ने दिसंबर 2019 में जारी जिस रिपोर्ट में किया, उसके अनुसार हर सात भारतीयों में से एक मानसिक रोगी है। भारत में अंदाजन 20 करोड़ लोगों को मानसिक इलाज की दरकार है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि यह संख्या काेरोना महामारी से पहले की है, अब यह तादाद बढ़ गई होगी। जब मानसिक स्वास्थ्य वाले मुद्दे पर चर्चा होती है तो उसका एक अहम बिंदु बच्चे व किशोर वर्ग भी हैं। अगर इन्हीं की मानसिक सेहत सही नहीं है तो उसका असर आगे चलकर परिवार, समाज व राष्ट्र पर पड़ता है। एक कहावत है 'कैचदेम यंग' इस वर्ग पर फोकस करके उन्हें केवल हर तरह से शारीरिक तौर पर ही तंदुरुस्त रखना नहीं बल्कि मानसिक तौर पर भी उनकी सलामती को प्राथमिकता देना और इस दिशा में गैरसरकारी, अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और सरकारों को मिलकर काम करने की जरूरत है।
नवीनतम सर्वेक्षर्णों बताते हैं कि 10-19 आयु वर्ग के किशारों के बीच सात में से एक से अधिक किशोर मानसिक विकार के साथ जीने को अभिशप्त है। यूनिसेफ की ' द स्टेटआफ द वल्डर्स चिल्ड्रन रिपोर्ट 2021' के अनुसार कोविड-19 के कारण बड़ी संख्या में बच्चों और किशोरों की एक बड़ी आबादी का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ गया है। जिसका प्रभाव आगामी कई सालों तक रहेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 महामारी से पहले भी 21वीं सदी बच्चों और युवाओं के लिए मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण है। बाल अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था यूनिसेफ जून माह को पेरेंटिंग मंथ यानी परवरिश माह के रूप में मना रही है। इस परवरिश माह में यूनिसेफ युवा लोगों और बच्चों के लिए परवरिश पर ध्यान केंद्रित करता है और संबंध व सुरक्षा के महत्व को और सहायक रिश्ते को मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक अहम रक्षात्मक कारक के रूप में रेखांिकत करता है। सकारात्मक परवरिश किशोर विकास पर पड़ने वाले बाहरी नकारात्मक कारकों को कम कर सकती है। यूनिसेफ की ही स्टेट आॅफ द वर्ल्ड कम्पैन्यन रिपोर्ट में युवा लोगों ने बताया कि परिवार सपोर्ट का एक अद्भुत स्त्रोत हो सकते हैं। अभिभावक, बच्चों के पालक बच्चों की परवरिश कैसे करें, इस बावत विशेषज्ञों के टिप्स भी साझा किए गए हैं। मसलन बच्चों, युवाओं से लगातार संवाद बनाए रखना, उनकी बात को धैर्यपूर्वक सुनना। उन्हें यह अहसास दिलाना कि अभिभावकों, भरोसेमंद लोगों के साथ बातों को साझा करना चाहिए। अभिभावक हमेशा उनके साथ हैं। बच्चों का पालन-पोषण, प्यार व देखभाल बराबरी के भाव के साथ करें, उनके बच्चों का लिंग और उनका लैंगिक रुझान चाहे कुछ भी हो। अपने बच्चों को यह भी बताना चाहिए कि मानव शरीर कैसे काम करता है और तरुणावस्था एक प्राकृतिक बदलाव है। उन्हें यह बताना भी जरूरी है कि जिंदगी में बड़े लोग भी समस्याओं का सामना करते हैं और वे भी दूसरों की मदद लेते हैं।
दरअसल मानसिक सेहत को लेकर जागरूकता का अभाव है और अन्य कारणों के चलते भी यह मुद्दा सार्वजनिक विचार-विमर्श का मुद्दा नहीं बन पाया है। अगर घर,परिवार ही इस मुद्दे पर ठोस पहल करे तो हालात में कुछ सुधार हो सकता है। परवरिश माह का उद्वेश्य इस दिशा में कुछ जागरूकता लाना ही है। यूनिसेफ की बाल संरक्षण प्रमुख सोलेडेड का कहना है' जब हम बच्चों व किशोरों की मानसिक सेहत व तंदुरस्ती पर ध्यान नहीं देते, तो हम उनकी रिश्ते बनाने,सीखने व बढ़ने संबधित योग्यता को सीमित कर देते हैं। अभिभावकों की दुनिया में अगली पीढ़ी को पालने व सशकतीकरण करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। हमें इस चुनौतीपूर्ण माहौल में अभिभावकों व देखभाल करने वालों को वो सपोर्ट जिसकी उन्हें जरूरत है, मुहैया कराने के लिए कार्रवाई करनी होगी।'
गौरतलब है कि लंदन स्कूल आफ इकोनाॅमिक्स के एक नए विशलेषण से संकेत मिलता है कि मानसिक विकारों के कारण कई किशोर विकलंागता या मौत के शिकार हो रहे हैं। कोविड-19 ने महामारी किशोरों के पालन-पोषण और स्कूली शिक्षा के अभाव, संबंधों में अलगाव, हिंसा के कारण उपजे भेदभाव, गरीबी और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को बढ़ा दिया है, जिनसे कई तरह के मनोविकार फैल रहे हैं। हर साल 10-19 आयु वर्ग के लगभग 46,000 किशोर दुनियाभर में आत्महत्या कर रहे हैं, जिनके पीछे मानसिक प्रताड़ना एक बहुत बड़ा कारक सामने आया है। वहीं विश्लेषण में यह स्पष्ट हुआ है कि मानसिक स्वास्थ्य की स्थितियों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को हल करने में अधिक बजट खर्च किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों से भी किशोरों की मानसिक सेहत का पता चलता है। दुनिया में एक अरब लोग किसी न किसी रूप में मानसिक विकार से पीड़ित हैं। इनमें सात पीड़ितों में से एक किशोर शमिल है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के बीते साल के अनुमानों के अनुसार दुनियाभर में आत्महत्या मौत के प्रमुख कारणों में से एक हो चुका है। गौर करने वाली बात यह भी है कि मानसिक सेहत खराब होने की आर्थिक कीमत भी चुकानी पड़ती है। साल 2019 मेंजारी एक रिपोर्ट के अनुसार-भारत को 2012 से 2030 के बीच मानसिक स्वास्थ्य की खराब स्थिति के कारण 1.03 खरब डाॅलर का आर्थिक नुकसान उठाना होगा। भारत सरकार के सामने आमजन के मानसिक स्वास्थ्य की सलामती एक बहुत बड़ी चुनौती है। मुल्क में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के इलाज के लिए पेशेवर चिकित्सकों व बुनियादी ढांचे की भी कमी है। शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में तो यह कमी बहुत ही है। जिस तरह सरकार कोविड से सबक लेते हुए शारीरिक स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार की योजनाएं बना रही हैं, उसी तरह मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के लिए भी ठोस काम करने की दरकार है।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)
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