पूर्व मंत्री जगदीश नेहरा ने भारत-पाक विभाजन की दर्द भरी कहानी बयां की, जो आप को रुला कर रख देगी ...

हरिभूमि न्यूज. सिरसा
हिंदुस्तान बेशक आज आजादी का 75वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है, लेकिन विभाजन के दौरान बेघर हुए लोगों के जख्म उस रात का दृश्य देखकर आज भी हरे हो जाते हैं। भारत आजाद तो हो गया, लेकिन बंटवारे के दौरान मची भगदड़ में बड़ी संख्या में लोगों को न केवल अपनों से जुदा कर दिया, बल्कि रातोंरात घरबार छोड़ कर हिंदुस्तान में शरण लेनी पड़ी। भारत-पाक विभाजन के समय गहरी नींद में सोए 8 साल के बालक व उसके बड़े भाई को दादी रात को 12 बजे उठाकर हिंदुस्तान की सीमा में ले आई। दादी को उस समय यह भी सुध नहीं थी कि घर में कितने लोग हैं, उस समय केवल एक ही बात मन में आ रही थी कि कैसे न कैसे परिवार को सकुशल हमलावरों से बचा कर सुरक्षित जगह पर ले जाया जाए। भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुई लूटपाट व मार-काट के दौरान बहुत से लोग अपनों का खो बैठे। विभाजन के दौरान 20 अगस्त 1947 को रात 12 बजे दादी के साथ अपने बड़े भाई आदराम को लेकर पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आने वाले पूर्व मंत्री जगदीश नेहरा ने हरिभूमि के साथ उस समय की कई पीड़ादायक व झकझोर कर रख देने वाली स्थिति बयां की।
पूर्व मंत्री जगदीश नेहरा बताते हैं कि वे भारत की सीमा से 3 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के भावलपुर स्टेट के सीरियांवाली गांव में रहते थे। पड़ोस में ही हिंदुस्तान का सिवाना गांव था जिसमें उनके रिश्तेदार रहते थे। 15 अगस्त 1947 को को देश आजाद हो गया और पाकिस्तान में रहने वाले हिंदू हिंदुस्तान और हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों को पाकिस्तान में जाने का आदेश दे दिया गया। इस दौरान हिंदुओं और मुसलमानों में कई जगह मारपीट व लूटपाट भी शुरू हो गई।
नेहरा बताते हैं कि उस समय उनकी उम्र केवल 8 साल थी और वे अपने बड़े भाई आदराम के साथ सो रहे थे। 20 अगस्त की रात को दादी ने दोनों भाइयों को उठाया और हाथ पकड़ कर जैसे-तैसे ढाई-तीन किलोमीटर की दूरी पर बसे सिवाना गांव में जैसे-तैसे कर सुरक्षित ले आई तब जाकर सांस में सांस आया। विभाजन की घटना का जिक्र करते हुए नेहरा यह भी बताते हैं कि लोगों के मन में पहले यह भी था कि राज किसी का भी आए, लेकिन जनता अपनी ही जगह ही रहेगी। जैसे ही विभाजन की बात उठी और मारकाट शुरू हुई तो उनके गांव पर मुसलमानों ने अटैक कर दिया। उस समय अटैक से बचने के लिए चार बंदूकों वालों को गांव के चौबारे में चढ़ा दिया ताकि हमले से बचा जा सके। इसी दौरान तीन-चार दिन तक बैलगाडि़यों पर खाने को दाने और दूसरा सामान लाया गया। इसी दौरान भारी संख्या में कई गांवों के मुसलमान इकट्ठे होकर आए और गांव को आग लगा दी। इस दौरान गांव में ही सामान लूट रहे दो-तीन लोगों को इस भीड़ ने मार भी दिया। नेहरा बताते हैं कि मुसलमानों ने गांव में बने उनके बंटोड़ों व लकड़ियों में आग लगा दी और यह आग उन्हें दिख रही थी, क्योंकि वे ढाई-तीन किलोमीटर दूर सिवाना गांव में शरण लिए हुए थे।
हिंदुस्तान में भी स्थापित होने के लिए दस साल तक किया संघर्ष
नेहरा बताते हैं कि विभाजन के दौरान वे पूरी तरह से बेघर हो गए और रिश्तेदारों के सहारे हिंदुस्तान में शरण ली। दस साल तक हिंदुस्तान में भी आर्थिक और सामाजिक तौर पर कष्ट झेलने पड़े और स्थापित होने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। उस समय गांव में घर बनाने के लिए भी काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। गांव में मकान भी नहीं बनाने दिया गया, क्योंकि उस समय उनके पास गांव में जमीन नहीं थी। रिश्तेदारों ने पन्नीवालामोटा गांव में घर बनाने के लिए एक बीघा जमीन दी और उसके बदले भागसर में एक बीघा जमीन ली।
बाघा बॉर्डर पर हुआ जमीनों का वैरीफिकेशन
विभाजन का साक्षी रहे जगदीश नेहरा बताते हैं कि हिंदुस्तान से मुसलमान पाकिस्तान में कम गए और पाकिस्तान से हिंदू ज्यादा अनुपात में आए, जिसके बाद जमीनों में काट लगी। उन्होंने बताया कि उनके पास पाकिस्तान के सीरियांवाली गांव में 1200 बीघे जमीन थी और उन्हें हिंदुस्तान में इसके बदले 702 बीघे जमीन मिली। करीबन 20 से 40 फीसदी तक हिंदुस्तान में आए लोगों को जमीन कम मिली। जमीन की वैरीफिकेशन बाघा बॉर्डर पर हुई, क्योंकि इससे पहले सभी को अपनी-अपनी जमीन बताने के फार्म भरवाए गए थे। नेहरा बताते हैं कि 1952-53 में उन्हें भागसर गांव में जमीन अलाट हुई। जब वे भागसर गांव में पहुंचे तो पूरा गांव उजड़ा हुआ था। गांव में लूटपाट साफ दिख रही थी, जिसके बाद उनका परिवार नजदीक के गांव खाईशेरगढ़ में आ गया, जहां करीब 2 साल रहे। विभाजन के बाद रिश्तेदारों ने सहयोग किया और करीब दस साल बाद वे स्थापित हुए, जिसके बाद खेती करनी शुरू की और विभाजन के दंश से बाहर निकले।
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