अवधेश कुमार का लेख : मुफ्तखोरी मतलब सत्ता का वैध दुरुपयोग

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं को मुफ्त प्रदान करने की प्रवृत्ति चिंताजनक रूप से प्रबल होती दिखी है। अंग्रेजी में इसके लिए फ्रीबीज शब्द प्रयोग किया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति पर गहरी चिंता प्रकट की। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कई भाषणों में इसे देश के लिए चिंताजनक बताया। उन्होंने जनता को आगाह किया था कि ऐसे लोग आपको कुछ भी मुफ्त देने का वादा कर सकते हैं लेकिन इसका असर देश के विकास पर पड़ेगा। बावजूद आप देखेंगे कि हर पार्टी अपने संकल्प पत्र ,गारंटी पत्र या घोषणा पत्र में मुफ्त वस्तुएं, सेवाएं या नकदी वादों की संख्या बढ़ा रही थी। वैसे तो इसकी शुरुआत 80 और 90 के दशक में दक्षिण से हुई लेकिन 21वीं सदी के दूसरे दशक में अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी ने इसे दोबारा वापस लाया। दिल्ली की जनता से बहुत कुछ मुफ्त देने के वायदे किया और उनको चुनाव में विजय मिल गई। कांग्रेस और भाजपा ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई तथा अपनी घोषणाओं में परिपक्वता का परिचय दिया। यही प्रवृत्ति बाद में कायम नहीं रह सकी। पांच राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान ,छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव में दलों के घोषणा पत्रों में मुफ्त सेवाओं, वस्तुओं और नकदी के वायदों के विवरणों को लिखने के लिए पूरी पुस्तिका तैयार हो जाएगी।
इसे आप मतदाता को घूस देना कहिये, लोकतंत्र का अपमान या और कुछ यह स्थिति डराने वाली हैं। हमारे देश के ज्यादातर राज्य वित्तीय दृष्टि से काफी कमजोर पायदानों पर खड़े हैं और लगातार कर्ज लेकर अपने खर्च की पूर्ति कर रहे हैं। यानी अनेक राज्यों का राजस्व आय इतना नहीं है कि वह अपने वर्तमान व्यय को पूरा कर सकें। कई राज्यों के व्यय के विवरण का विश्लेषण बताता है कि मुफ्त चुनावी वादों को पूरा करने या भविष्य के चुनाव को जीतने की दृष्टि से मुफ्त प्रदानगी वाले कदमों की इसमें बड़ी भूमिका है। देश की राजधानी दिल्ली में कोरोना काल में समय पर कर्मचारियों का वेतन देने तक की समस्या खड़ी हो गई थी। दिल्ली ऐसा अकेला राज्य नहीं था। जब राज्य अकारण नकदी देने लगे, मुफ्त सेवाएं वह वस्तुएं तक पहुंचाएं तो फिर लोगों में परिश्रम से जीवन जीने और प्रगति करने का भाव कमजोर होता है। कोई भी देश तभी ऊंचाइयां छू सकता है जब वहां के लोग परिश्रम की पराकाष्ठा करें। विश्व में जिन देशों को हम शीर्ष पर देखते हैं वहां के लोगों ने अपने परिश्रम, पुरुषार्थ और पराक्रम से इसे प्राप्त किया है। मुफ्तखोर समाज आलसी, कामचोर और भ्रष्ट होता है। अगर राजनीतिक दलों में मुफ्त देने की प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाए तो उस देश और समाज का क्या होगा इसकी आसानी से कल्पना की जा सकती है। एक ओर आपकी अर्थव्यवस्था कमजोर होगी, खजाने खाली होंगे और दूसरी ओर मेहनत की मानसिकता नहीं रहेगी तो फिर होगा क्या? क्या इस कल्पना मात्र से आपके अंदर डर पैदा नहीं होता?
दुर्भाग्य देखिए कि आम मतदाताओं का एक समूह राजनीतिक दलों की इस प्रवृत्ति के आधार पर ही विचार करने लगा कि कौन हमारा हित देखता है और कौन नहीं? आगे बढ़कर अब यह कौन ज्यादा देखता है और कौन कम इस तुलनात्मक मानसिकता तक पहुंच गया है। यानी जो ज्यादा मुफ्त दे नकदी दे वह हमारा हितेषी। आप किसी बस्ती में चले जाइए कुछ लोग ऐसा कहते मिल जाएंगे कि जो पार्टी हमको कुछ देगी उसी को वोट देंगे। मैं ऐसी कई बस्तियों में गया जहां महिलाओं ने वोट के बारे में पूछने पर सवाल ही किया कि आप लेकर क्या आये हो? यानी उनके लिए राज्य और देश के समक्ष उत्पन्न चुनौतियां , समस्याएं और मुद्दों के कोई मायने नहीं। फिर तो जो मुफ्त देगा उसको ये वोट दे देंगे। कोई भी शासन प्रणाली वहां के लोगों के व्यवहार पर ही सफल या असफल हो सकता है। लोगों की ईमानदारी, जागरूकता, अपने समाज और देश की प्रति प्रतिबद्धता तथा योग्यतम का समर्थन करने वाले समाज में हमेशा अच्छे लोग सत्ता में जाएंगे और वो व्यापक उद्देश्यों से सबके कल्याण के लिए काम करेंगे। लोभ या लालच से मत देने वाला समाज योग्यतम का समर्थन नहीं कर सकता। भारतीय समाज में वोट डालने की प्रवृत्ति ने देशहित चाहने वालों को अनेक बार निराश भी किया है। कोई भी प्रवृत्ति अपने आप पैदा नहीं होती। संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में चुनाव भी एक अहिंसक युद्ध हो गया है। राजनीतिक दलों का सत्ता में आने की आकांक्षा पालने में कोई समस्या नहीं है। कोई भी दल अपने कार्यक्रम या विचारधारा सत्ता में आने के बाद ही लागू कर सकती है। किंतु येन-केन- प्रकारेण सत्ता पानी है इस चरित्र ने भारतीय राजनीति को मूल्यों और मुद्दों से काफी अलग किया। सत्ता बड़े लक्ष्य पाने का साधन बनने की बजाय सत्ता के ही साधन और लक्ष्य बन जाने से राजनीति का यह खतरनाक चरित्र पैदा होता है। फिर एकमात्र लक्ष्य हर हाल में अधिक से अधिक वोट पाना रह गया जिसके लिए अनेक नेताओं और दलों ने वो सारे रास्ते अपनाये जो स्वस्थ समाज और लोकतंत्र में अस्वीकार्य थे। इसी में बाहुबली और धनबलियों का राजनीति पर वर्चस्व हुआ तथा राजनीति का अपराधीकरण लंबे समय तक हमारी सत्ता का चरित्र रहा। थोड़ी गहराई से विचार करें तो मुफ्त सेवाएं, वस्तुएं और नकदी देने का चरित्र भी इसी धारा का अंग है। प्रकारांतर से देखा जाये तो यह सत्ता की ताकत के दुरुपयोग को वैध बनाने का उपक्रम है। पश्चिमी देशों से एक प्रवृत्ति चली आम जनता को अधिकार प्रदान करने का। यानी यह अधिकार आपका है नहीं, हम दे रहे हैं। इसी में से खाद्य सुरक्षा से लेकर रोजगार गारंटी जैसे कार्यक्रम निकले हैं। पहली दृष्टि में लगता है कि ये सारे जनकल्याण के कार्यक्रम हैं किंतु धरातल पर इनका साकार स्वरूप देखें तो तस्वीर अलग है। ये सब मुफ्तखोरी के अंग बन गए हैं। सरकार महंगे दाम में अनाज खरीद कर यदि 2 रुपये किलो 3 रुपये किलो या फिर मुफ्त में लोगों को खाद्यान्न प्रदान कर रही है तथा समाज के एक बड़े समूह को 100 दिन के रोजगार की गारंटी है जिसमें एक अंश कमीशन का देने के बाद काम करने की आवश्यकता नहीं होती। गांधी जी कहते थे कि मैं अपने भारत में मुफ्त खोरी की किसी शर्त पर अनुमति नहीं दे सकता। बड़ा वर्तमान राजनीति की प्रवृत्ति की गांधी जी की सोच के विपरीत है। यानी हम राज्य के खजाने को मुफ्त खोरी बढ़ाने की प्रवृत्ति पर खर्च करेंगे।
समाज में शत-प्रतिशत वंचितों निराश्रितों के लिए राज्य को अवश्य संरक्षक बनकर खड़ा होना चाहिए। भारतीय परंपरा में हमारे धर्मशास्त्रों ने राजा और राज्य के कर्तव्यों में इसका विस्तार से उल्लेख किया है। ऐसे लोगों की संख्या हर समाज में अत्यंत कम होती है। उसमें भी आवश्यकता के अनुसार ही सहायता के नियम होने चाहिए। राज्य की भूमिका लोगों को उनकी क्षमता के अनुसार व्यक्तित्व विकसित करने में निवेश करने की होनी चाहिए ताकि वे स्वयं अपने ज्ञान, क्षमता, उधमिता से प्रगति कर सकें। लोगों में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा हो तथा उसके लिए आधारभूत संरचना और संस्थाएं लगातार विकसित होती रहें। चिंता की बात है कि जिन नेताओं पार्टियों ने एक समय वोट लेने के लिए लुभावने नारे परलोक में तथा धनबल बाहु बल का विरोध करते हुए अपने आदर्श पर अरे रहे हुए भी आज मुफ्त खोरी बढ़ाने की दौड़ में शामिल हो गए हैं।
साफ है की राजनीति संविधान बाल और बाहुबली के प्रभाव खत्म करने के लिए जिस तरह संघर्ष करना पड़ा वैसे ही स्थिति फ्री व्यूज यानी मुक्त थोड़ी की प्रवृत्ति के संदर्भ में पैदा हो रही है। संसदीय लोकतंत्र में जनमत निर्माण के पीछे राजनीतिक दलों के साथ पत्रकारिता सामाजिक सांस्कृतिक धार्मिक समूहों की प्रमुख भूमिका होती है। इसलिए ऐसे सभी तत्वों को सामने आकर इसका प्रतिकार करते हुए आम जनता को सचेत करना चाहिए ताकि वह मुफ्त कोड़ी के लालच में वोट देने की बजाय योग्यतम का चयन करें। ध्यान रखिए 2019 में कांग्रेस ने गरीबी प्रमाण 72 हजार का नारा दिया था।
यानी सभी के खाते में साल में 72000 सरकार देगी पर उसे चुनावी सफलता नहीं मिली। लोगों ने कांग्रेस की जगह भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को समर्थन दिया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि उनके हाथों हमारा देश विकसित होगा सुरक्षित रहेगा। पार्टियां अगर 2019 के इस चुनाव परिणाम का ध्यान रखें तो वो मुफ्तखोरी की अंधी दौड़ से बचेंगी।
(लेखक- अवधेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)
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