घर-घर तिरंगा ने अभूतपूर्व वातावरण पैदा किया

अवधेश कुमार
देशभर में तिरंगे की जैसी धूम इस बार देखी गई उसकी विवेचना अनेक वर्षों तक होती रहेगी। किसी ने कल्पना नहीं की होगी कि तिरंगे की इतनी भारी संख्या में खरीद हो सकती है। कोई चीनी निर्मित तिरंगा, टेरी कॉटन पॉलिएस्टर तिरंगा, आदि कहकर भले उपहास उड़ा,, पर देश में तिरंगे का क्रेज अभूतपूर्व है। तिरंगा स्वतंत्रता के साथ वर्तमान में हमारी राष्ट्रीयता का पर्याय भी है। इस नाते कह सकते हैं कि तिरंगे के साथ राष्ट्रवाद की लहर पैदा हुई है।
स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने पर तिरंगे के प्रति ऐसी ललक आश्वस्त करती है कि अगर कायदे से अपील हो तो राष्ट्रीय प्रतीकों के नाम पर देश खड़ा हो सकता है। ऐसा नहीं है कि पूर्व प्रधानमंत्रियों ने कभी तिरंगे से लेकर भारतीय राष्ट्र के प्रति लोगों को भावनात्मक रूप से जोड़ने या किसी विषय पर राष्ट्र के लिए खड़ा करने की कोशिश नहीं की। हां, इसके पहले किसी ने भी तिरंगे को इतने व्यापक स्तर पर लोगों के बीच पहुंचाने के प्रति जनता में ऐसा सामूहिक संवेग पैदा करने की कोशिश नहीं की। स्वतंत्रता प्राप्ति के अगले कुछ वर्षों तक निश्चित रूप से तिरंगे आदि का आकर्षण रहा होगा पर जिन्होंने आजादी के 25वें, 50वें, और 60 वें वर्ष को देखा है वे मानेंगे कि 75 वर्ष इस मायने में वाकई सबको पीछे छोड़ चुका है। जो लोग फ्लैग कोड यानी ध्वज संहिता में किए गए परिवर्तन की आलोचना कर रहे हैं वे न भूलें कि ऐसा दुरुपयोग के लिए नहीं किया गया। आम लोगों से तिरंगे को जोड़ना है तो फिर सख्त फ्लैग कोड रहते यह संभव नहीं था। जब तिरंगे को आमजन से दूर रखा गया तो उसके कुछ कारण रहे होंगे। संभव था विभाजन की परिस्थितियों में एक बड़े वर्ग द्वारा तिरंगे के अपमान का भय रहा हो।
आजादी के बाद तिरंगे को महत्व दिया नहीं देने का आरोप लगाकर कुछ संगठनों के निष्ठा पर प्रश्न खड़ा किया जा रहा है। हम जानते हैं कि या आरोप सच से ज्यादा राजनीतिक है। सच यही है कि भारत के अनेक संगठनों ने तिरंगे को लेकर प्रश्न उठाए थे। कम्युनिस्ट पार्टियां उनमें शामिल हैं तो इन सबसे भी तिरंगे झंडे को बचाना था। तिरंगे को लेकर हजारों लोगों ने अंग्रेजों की यातनाएं सहीं अपना बलिदान दिया, तो ऐसे प्रतीक की संपूर्ण पवित्रता की कामना भी थी। कुल मिलाकर किसी भी स्तर पर इसका अपमान न हो पाए तथा इससे जुड़ी निहित उच्चतर भावनाएं बनी रहे इसे ध्यान में रखा गया था। इस नाते तिरंगा झंडा मूलतः सरकारी संस्थानों या फिर संगठित निजी संस्थानों तक ही पहुंच पाया। उसमें भी ज्यादातर संस्थानों को केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही इसके प्रयोग की अनुमति दी गई थी। लंबे समय के अनुभव से यह स्पष्ट हो गया है कि कुछ सिरफिरे, नासमझ या दुष्ट प्रवृत्ति के लोग यदि अपमान करना चाहें तो उनको तिरंगा उपलब्ध कहीं न कहीं से हो जाएगा।
वास्तव में थोड़ी भी गहराई से विचार करें तो ऐसा कोई कारण नजर नहीं आएगा जिसके आधार पर मान लिया जाए कि तिरंगे को आम आदमी की पहुंच से दूर रखना आवश्यक है। आम लोगों के हाथों में तिरंगा पहुंचाने के लिए कानूनी संघर्ष भी हुए। 2002 में एक सफलता मिली जब 15 अगस्त और 26 जनवरी के अलावा भी आम लोगों को तिरंगा फहराने की अनुमति मिली। शर्त यही था कि लोग शाम होते होते उसे सम्मान से उतार दें। कोई आम भारतीय नहीं चाहेगा कि उसके तिरंगे का किसी स्तर पर अपमान हो। वैसे प्रधानमंत्री द्वारा घर-घर तिरंगा की अपील के बाद लोगों में इसके नियम को जानने की उत्सुकता भी बढ़ी। देखा गया कि तिरंगा खरीदते समय एक दूसरे से बातचीत में भी लोग बता रहे थे कि किसी सूरत में यह जमीन में नहीं गिरना चाहिए, गलत तरीके से नहीं मोड़ा जाना चाहिए या इसका केसरिया भाग हमेशा ऊपर ही रहना चाहिए आदि आदि।
कहने का तात्पर्य कि आमजन तक तिरंगा पहुंचने के साथ इसकी पवित्रता बनाए रखने की भावना और इसके संबंध की सावधानियां भी लोगों तक पहुंच रहीं हैं। ऊपरी तौर पर शायद किसी को लग सकता है कि स्वतंत्रता दिवस का 75 वर्ष पूरा हो गया तो हमने एक तिरंगा खरीदा और छत पर लगा दिया या फिर कुछ लोगों के साथ सड़कों पर भारत माता की जय या झंडा ऊंचा रहे हमारा आदि नारा लगाते हुए कोई छोटा बड़ा जुलूस निकाल दिया और समाप्त। तिरंगे को लेकर पहले राष्ट्रभक्ति या राष्ट्र प्रेम के पहले के गीतों के साथ साथ जो नए गाने हमें सुनाई दे रहे हैं वह सब निहित स्वार्थों तथा केवल स्वयं या परिवार के दायरे से ऊपर उठकर देश के लिए सोचने और काम करने की प्रेरणा देते हैं। वे बताते हैं कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अगर व्यक्तिगत उन्नति या परिवार तक सीमित रखा होता तो हम आज भी गुलामी की बेड़ियों में जकड़े होते। उन्होंने व्यक्ति और परिवार से ऊपर उठकर भारत की मुक्ति को अपना ध्येय बनाया तभी आज हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं। हम नहीं कहते कि भारत के हर व्यक्ति के अंदर तिरंगे ने यही अहसास कराया होगा लेकिन एक हिस्से में भी यह भाव पैदा हुआ तो यह असाधारण उपलब्धि ही है।
( ये लेखक अवधेश कुमार के अपने विचार हैं।)
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