हरियाणा दिवस : जानें किन कारणों से पंजाब से अलग हुआ था हरियाणा, यह है पूरा इतिहास

हरियाणा दिवस : जानें किन कारणों से पंजाब से अलग हुआ था हरियाणा, यह है पूरा इतिहास
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Haryana Day : हरियाणा इस बार अपने गठन की 55वीं वर्षगांठ मना रहा है। इन सालों में हरियाणा ने राष्ट्रीय पटल पर विकास व समृद्धि का एक अनूठा इतिहास रचा है। किसी समय संयुक्त पंजाब का बेहद पिछड़ा इलाका रहे इस क्षेत्र ने जिस तेजी से विकास की रफ्तार पकड़ी है, वह यहां के लोगों के जज्बे और मेहनत की मिसाल है। हरियाणा गठन की साक्षी रही एक पीढ़ी आज भी हमारे बीच मौजूद है। नई पीढ़ी के लिए भी उन परिस्थितियों और संघर्षों के बारे में जानना बेहद जरूरी है।

Haryana Day : हरियाणा प्रदेश इस बार अपने गठन की 55वीं वर्षगांठ मना रहा है। इन सालों में हरियाणा ने राष्ट्रीय पटल पर विकास व समृद्धि का एक अनूठा इतिहास रचा है। किसी समय संयुक्त पंजाब का बेहद पिछड़ा इलाका रहे इस क्षेत्र ने जिस तेजी से विकास की रफ्तार पकड़ी है वह यहां के लोगों के जज्बे व मेहनत की मिसाल है। हरियाणा गठन की साक्षी रही एक पीढ़ी आज भी हमारे बीच मौजूद है। नई पीढ़ी के लिए भी उन परिस्थितियों व संघर्षों के बारे में जानना जरूरी है, जिनकी बदौलत हरियाणा एक राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया। हरियाणा प्रदेश के भारत के नक्शे पर आने की कहानी काफी उतार-चढ़ाव की है। हरियाणा को संयुक्त पंजाब से अलग किए जाने की मांग 1925 में ही उठनी शुरू हो गई थी। लेकिन इस मांग के पीछे हरियाणवी अस्मिता नही बल्कि उस समय की राजनीतिक परिस्थितियां थी।

1925 में संयुक्त पंजाब में हिंदू व मुस्लिम राजनेताओं के आपसी गठजोड़ से मजबूत हो रही यूनियनिस्ट पार्टी मुस्लिम लीग के लिए खतरे की घंटी थी। इसलिए 1925 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग के दिल्ली में हुए अधिवेशन में पीरजादा मुहम्मद हुसैन ने वर्तमान हरियाणा के भूभाग को पंजाब से अलग करके दिल्ली में मिलाने की मांग की। इसके बाद 1928 में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने भी इस मांग को दोहराया। 1931 में दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में मिस्टर ज्यॉफ्री कोर्वेट्स ने भी अंबाला डिविजन को संयुक्त पंजाब से अलग करने की बात उठाई। 1932 में दीनबंधु गुप्ता ने भी लिखा की अंबाला डिवीजन एतिहासिक तौर पर भी पंजाब का भाग नही रहा है। यहां की भाषा ,संस्कृति, इतिहास, परंपरा व जीवन शैली कुछ भी पंजाब से नहीं मिलता। इस तरह से 1947 में देश की स्वतंत्रता तक रह-रह कर वर्तमान हरियाणा को पंजाब से अलग करने की मांग उठती रही।

अलग हरियाणा प्रदेश के लिए परिस्थितियां उस समय परिपक्व हुई जब भाषाई राज्यों की मांग के तहत पंजाबी सूबे की मांग उठी। 1948 में मास्टर तारा सिंह ने पंजाबी सूबे की मांग से भी आगे बढ़ते हुए सिख सूबे की मांग उठाई। हालांकि उस समय पंजाब में सक्रिय कम्युनिस्ट पार्टी ने सिख सूबे की मांग को नकारते हुए पंजाबी सूबे की मांग रखी। यह मांग संयुक्त पंजाब की बाकि कई अन्य राजनीतिक पार्टियों को भी पसंद आई। पंजाबी सूबे की मांग उठते ही पंजाबी भाषी लोगों ने हिंदी भाषा को पढने व दूसरे किसी भी तरह के प्रयोग में लाने से मना कर दिया। इस की प्रतिक्रिया में हिंदी भाषी क्षेत्रों में यही रवैया पंजाबी भाषा को लेकर देखने में आया। समस्या की गंभीरता को देखते हुए पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर ने एक फार्मूला सुझाया जिसे इतिहास में सच्चर फार्मूले के तौर पर जाना जाता है। 1 अक्तूबर 1949 को लागू हुए सच्चर फार्मूले के तहत पंजाब को पंजाबी व हिंदी भाषी दो क्षेत्रों में विभाजित कर दिया गया। हिंदी भाषी क्षेत्र में तत्कालीन रोहतक, गुरुग्राम, करनाल, कांगड़ा, हिसार (घग्गर नदी के दक्षिण का भाग) जिले के साथ-साथ अंबाला की जगाधरी व नारायणगढ तहसील शामिल किए गए। पंजाबी भाषी क्षेत्र में गुरूमुखी व हिंदी भाषा क्षेत्र में देवनागरी लिपि का प्रयोग तय हुआ।

दोनों क्षेत्रों में प्री यूनिवर्सिटी कक्षा तक शिक्षा इन्ही भाषाओं में निर्धारित हुई। इसके साथ ही हिंदी भाषा क्षेत्र में पंजाबी व पंजाबी भाषा क्षेत्र में हिंदी को दूसरी अनिवार्य भाषा के तौर पर पढ़ाना तय हुआ। लेकिन हिंदी भाषा क्षेत्र में पंजाबी को अनिवार्य तौर पर पढ़ाने का विरोध शुरू हुआ। सच्चर फार्मूला लोगों को ज्यादा पंसद नहीं आया। भारत सरकार ने 1953 में भाषा व संस्कृति के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के लिए फजल अली आयोग का गठन किया। पंजाब असैंबली में हरियाणा क्षेत्र के 22 विधायकों ने एकमत से पंजाब से अलग होने की मांग इस आयोग के सामने रखी। लेकिन आयोग ने तीन साल बाद पेश की अपनी रिपोर्ट में हरियाणा गठन को लेकर कोई खास रूचि नही दिखाई। इसके बाद पंजाब सरकार ने भारत सरकार को सिफारिश की कि पंजाब प्रांत को द्विभाषी घोषित करके उसे दो क्षेत्रों में बांट दिया जाए। इस फार्मूले गुरूमुखी व देवनागरी दोनों को पंजाब की सरकारी भाषाएं।

पंजाबी भाषा सूबे की मांग के पीछे एक बड़ा कारण पंजाब में अकालियों की कमजोर राजनीतिक स्थिति थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए 1951 के चुनाव में पंजाब की कुल 126 सीटों में से कांग्रेस को 96 सीटें मिली जबकि अकाली दल को 13 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसलिए अकालियों ने पंजाबी सूबे के लिए संघर्ष तेज कर दिया। अकालियों ने 1957 के विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया। कांग्रेस ने 120 सीटें जीती व प्रताप सिंह कैरों मुख्यमंत्री चुने गए। इसके बाद अकालियों ने अब पंजाबी सूबे के लिए सड़कों पर उतरने का फैसला किया। 1960 में मास्टर तारा सिंह ने पंजाबी सूबे की मांग को लेकर मोर्चा लगा दिया। मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों ने मास्टर तारा सिंह को गिरफ्तार करवा दिया। तारा सिंह के बाद फतह सिंह ने मोर्चा संभाला। फतह सिंह मरण व्रत पर बैठ गए। आखिर कार मास्टर तारा सिंह को रिहा करना पड़ा। तारा सिंह ने भी जेल से रिहा होते ही मरण व्रत धारण कर लिया। इस आंदोलन के बाद अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत मानते हुए अकालियों ने 1962 के विधानसभा चुनाव में भाग लिया। लेकिन इस बार फिर अकालियों को हार का मुंह देखना पड़ा।

1962 के चुनाव में कांग्रेस को 90 सीटें मिली तो अकालियों को 19 सीटों में संतोष करना पड़ा। पंजाब के बिगड़ते हालात को देखते हुए तत्कालीन गृह मंत्री ने 23 सितंबर 1965 को संसद के दोनों सदनों में पंजाब राज्य के पुनर्गठन के संबंध में संसदीय समिति के गठन की घोषणा की। इस समिति के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह बनें। हुकुम सिंह समिति के गठन के बाद 17 अक्तूबर 1965 में हरियाणा के विधायकोें ने रोहतक में एकजुट होकर अपने पक्ष पर चर्चा की। हरियाणा के विधायकों ने संभावित हरियाणा राज्य में शामिल किए जाने वाले इलाकों को लेकर विचार विमर्श किया। इस मौके पर तीन प्रस्ताव पेश किए गए। अंतत: सरदार हुकम सिंह समिति ने पंजाब के पुनर्गठन को स्वीकार किया। इस समिति की सिफारिश के अनुसार 23 अप्रैल 1966 को जस्टिस जेसी शाह की अध्यक्षता में एक तीन सदस्यीय सीमा आयोग का गठन किया गया। इस आयोग के अध्यक्ष थे जस्टिस जेसी शाह तथा एस दत्त व एमएम फिलिप को इसका सदस्य बनाया गया। इस आयोग ने 31 मई 1966 को अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में तत्कालीन हिसार, महेंद्रगढ़ ,गुरुग्राम व रोहतक जिला, संगरूर जिले की नरवाना व जींद तहसील,तहसील खरड़ (चंडीगढ सहित), नारायणगढ़, अंबाला व जगाधरी को मिलाकर हरियाणा राज्य के गठन की सिफारिश की गई। लेकिन आयोग की चंडीगढ व खरड़ की सिफारिश को स्वीकार नही किया गया। आयोग की सिफारिशों के अनुसार इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने 18 सितंबर 1966 को पंजाब पुनर्गठन विधोक 1966 पारित किया। इस विधेयक के अनुसार 1 नवंबर 1966 को भारत के नक्शे पर हरियाणा एक अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व में आया।

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