Haryana Panchayat Election : सर्वसहमति लोकतंत्र का पक्ष या विपक्ष

हरियाणा में पंचायती चुनाव का बिगुल बज चुका है व हर जगह सहमति व असहमतियों का दौर शुरू हो चुका है। समाज का हर प्रभावशाली और अपने आपको प्रभावशाली समझने वाला व्यक्ति, चुनाव की तैयारी में लगा हुआ है, वह हर संभव कोशिश में है कि गांव की चौधर उसकी झोली में आ जाए। इस सारी धमाचैकड़ी के बीच आजकल एक शब्द हम बार-बार सुन रहे हैं। सर्वसहमति
सरकार भी इस शब्द का जोर-शोर से प्रचार कर रही है। अखबारों व दूरसंचार के अन्य साधनों पर भी इस शब्द पर खूब चर्चा हो रही है। आए दिन सुनने को मिल रहा है कि अमुक गांव में सरपंच या पूरी पंचायत सर्वसहमति से चुन ली गई है। समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसे चुनाव को पसंद भी कर रहा है। सरकार भी ऐसे चुनावी तरीके को बढ़ावा देने के लिए ऐसी पंचायतों को विशेष अनुदान राशि (11 लाख) भी जारी करती है। सरकार का पक्ष देखें तो सरकार यह सब अपने चुनावी खर्च को बचाने के लिए करती है। क्योंकि किसी भी 500 से 1000 वोट वाले गांव में चुनाव करवाने पर सरकार को लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं और पूरे हरियाणा में इस चुनाव पर अरबों रुपये खर्च हो जाते हैं, आमतौर पर सामाजिक परिवेश में यह आम बात है कि सर्वसमति से गांव का भाईचारा खराब नहीं होता। चुनाव के कारण गांव में गुटबाजी को बढ़ावा मिलता है व आपसी रंजिश पैदा होती है। सर्वसमति से इस प्रकार के झगड़ों पर रोक लगती है तथा गांव का भाईचारा कायम रहता है। चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा अनाप-शनाप खर्चा किया जाता है। सर्वसहमति उस पर भी रोक लगती है। पंचायत चुनाव के दौरान गांव में नशे का बोलबाला हो जाता है। गांव में नशेड़ीओ की संख्या बढ़ जाती है। सर्वसहमति इस नशे पर रोक लगाती है।
इस तरह से अगर हम सोचते हैं, तो हमें सर्वसहमति शब्द बहुत ही कारगर लगता है। जो हर गांव व कस्बे में अपनाया जाना चाहिए। इससे हमारे पूरे हरियाणा में शांति व सौहार्द बना रहेगा व आपसी भाईचारा भी बना रहेगा। सर्वसहमति के इन सब खूबसूरत वह लोमहर्षक फायदों के बावजूद मैं मेरे प्यारे हरियाणावासियों के सामने एक भिन्न विचार रखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूं कि मेरे हरियाणा के लोग और लुगाई मेरे इस विचार पर चर्चा करें, व फिर अपनी सहमति दें कि सर्वसहमति लोकतंत्र के पक्ष में है या विपक्ष में।
हरियाणा क्षेत्रफल की दृष्टि से बाकी राज्यों के अनुपात में चाहे छोटा दिखाई पड़ता हो परंतु हरियाणा प्रदेश में उतनी ही विभिन्नताएं पाई जाती हैं जितनी किसी देश में होती हैं। हरियाणा उत्तर की शिवालिक की पहाड़ियों से लेकर दक्षिण की अरावली की पहाड़ियों तक फैला हुआ है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक व पूर्व से लेकर पश्चिम तक हिंदी बाहुल्य होने के बावजूद यहाँ विभिन्न प्रकार की बोलियाँ पाई जाती हैं। हिंदू बाहुल्य होने के बावजूद सिख, मुसलमान, ईसाई, जैन वह बौद्ध भी काफी संख्या में मौजूद हैं। उत्तर के तराई के क्षेत्र से लेकर दक्षिण में सूखे के क्षेत्र भी मौजूद हैं। भारतीय समाज में उपस्थित जातियों में से लगभग सारी जातियां यहाँ मौजूद हैं। हर गांव में कोई-न-कोई एक जाति बहुमत में पाई जाती है। सामाजिक पिछड़ेपन वह आर्थिक आधार का अंतर भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ता है। इतनी विभिन्नताओं के बावजूद अगर हम सर्वसहमति की बात करते हैं तो यह खोखली बात प्रतीत होती है। क्योंकि अगर हम सर्व सहमति को धरातल पर देखेंगे तो यह हमें लोकतंत्र के विरोध में दिखाई देगा। लोकतंत्र का इसके साथ दूर-दूर से कोई रिश्ता नजर नहीं आएगा।
आपको मेरी बात विचित्र लग रही है, तो चलो इसको विस्तृत रूप से देखते हैं। जिन लोगों ने कभी सर्वसहमति होते हुए देखी है या जो कभी सर्वसहमति की प्रक्रिया में शामिल हुए हैं, वे मेरी बात को शायद तथ्य के साथ समझ पाएंगे। सर्वसहमति की प्रक्रिया का सामान्यतः तरीका यह रहता है।
किसी भी गांव में सरपंच या पूरी पंचायत को सर्वसहमति से चुनने के लिए गांव में एक सर्व पंचायत बुलाई जाती है। (हालांकि उस पंचायत में उस गांव के कुल वोटों के 25 % वोट भी उपस्थित नहीं होते) फिर वह पंचायत पूरे गांव में से सभी पानों, गोत्रों, जातियों वह धर्मों से एक एक मौजिज व्यक्ति का चुनाव करती है। (हालांकि इन मौजिज लोगों के पास भी पूरे पानें, गोत्र, जाति या धर्म के लोगों का समर्थन नहीं होता) इन मौजिज लोगों की संख्या गांव के कुल वोटों का 1% भी नहीं होती फिर यह सभी मौजिज लोग एक साथ मिलकर एक अलग कमरे में बैठकर सरपंच व पंच के नामों पर मोहर लगाते हैं। अब क्योंकि ये मौजिज लोग अपने अपने पानों, गोत्रों, जातियों या धर्मों के रसूखदार लोग होते हैं, तो गांव के आम लोग (जिनकी संख्या गांव के कुल वोटों के 50% से ज्यादा ही रहती है) इन मौजिज व रसूखदार लोगों की सर्वसहमति पर अपनी असहमति नहीं जाता पाते। और इस प्रकार गांव के कुछ मुट्ठी भर लोग सर्वसहमति से सरपंच व पूरी पंचायत का चुनाव करवा देते हैं।
भारतीय संविधान निर्माताओं ने हर व्यक्ति को वोट का अधिकार दिया है। क्या इस सर्वसहमति की प्रक्रिया में संविधान की इच्छा के अनुसार प्रत्येक वोट ने सहमति दी है। अगर नहीं दी है तो फिर यह सर्वसहमति कैसे हुई? अब आप सोच रहे होंगे की ऐसे सभी वोट मिलकर तो कभी भी सर्वसहमति नहीं बना सकते। मैं कहूंगा कि आप बिल्कुल सही सोच रहे हैं। अब आप मुझसे सवाल करेंगे कि फिर उन सब फायदों का क्या होगा जो लेख की शुरुआत में आपने गिनाए थे। तो आइए इन फायदों का फिर से विश्लेषण करें।
सामान्य व्यक्ति सोचता है कि चुनाव से गांव में गुटबाजी होती है, परंतु सोचने वाली बात यह है कि किसी भी चुनाव में हमेशा अलग-अलग मत उभर कर आते ही हैं। उन सभी मतों में से हमें समाज व गांव के हित को ध्यान में रखना चाहिए। किंतु हम अधिक ध्यान उस मत पर देते हैं, जिसमें हमारा हित छिपा होता है। बस यहीं से यह अलग-अलग मत अलग-अलग गुटों में बदल जाते हैं। फिर हमें अलग मत का व्यक्ति विरोधी या दुश्मन लगने लगता है। ऐसी गुटबाजी से बचने के लिए हमें चुनाव टालने की आवश्यकता नहीं है। बल्कि आम जनता में चुनावी जागरूकता लाने की जरूरत है। सरकार को चाहिए कि लोगों को चुनाव व उसकी प्रक्रिया के प्रति, चुनाव में सबकी जिम्मेदारी के प्रति गांव भर में जागरुकता अभियान चलाएं। इसमें सरकार को समाज के मौजिज लोगों का सहयोग भी मिलना चाहिए।
चुनाव के दौरान प्रत्याशी अनाप-शनाप और बेहिसाब खर्चा करते हैं। जिससे गांव में शराब व दूसरे नशे का फैलाव होता है। इसके लिए भी हमें सर्वसहमति करवाने व चुनाव को टालने की जरूरत नहीं है। बल्कि यह सरकार की विफलता को दर्शाती है। जो चुनाव में ऐसे प्रत्याशियों पर रोक लगाने में विफल है। साथ में यह हमारी भी जिम्मेदारी है, कि हम सब मिलकर ऐसे प्रत्याशियों का खुलकर विरोध करें। हम अपने निजी हितों के बजाय गांव के हित को सर्वोपरि रखें। मैं सरकार से भी यह कहना चाहता हूँ कि सरकार अपने चुनावी खर्च को कम करने के लिए सर्वसहमति जैसे चुनावों को रोकने वाले शब्दों का प्रचार प्रसार न करें। बल्कि सर्वसहमति को ही रोकने के प्रयास करें। क्योंकि चुनाव पर लगने वाला पैसा कोई खर्च नहीं है, अपितु गांव में लोकतंत्र को प्रभावशाली बनाने के लिए किया गया एक जरूरी निवेश है। जिससे गांव का सबसे आम आदमी भी खास बन सके। कोई भी लोकतंत्र तभी बेहतर बन सकता है, जब चुनावी प्रक्रिया पूरी तरह से निष्पक्ष रूप में पूरी हो ताकि संविधान की भावना के अनुसार प्रत्येक नागरिक बिना किसी भय व द्वेष के अपने मत का प्रयोग कर सके। तभी सही मायनों में गांव की अपनी सरकार चुनी जाएगी व इस चुनाव का राज्य सरकार वह केंद्र सरकार के चुनाव पर भी असर पड़ेगा। गांव में लोकतंत्र मजबूत होगा तो राज्य व देश भर में लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी तथा देश का प्रत्येक नागरिक एक जिम्मेदार नागरिक बनेगा। हमारे आदर्श 'शहीद-ए-आजम' श्री भगत सिंह जी हमेशा कहते थे कि असली आजादी तब होगी जब अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक उसका लाभ पहुंचेगा और यह तभी संभव है जब गांव में लोकतंत्र मजबूत हो। इसलिए मैं अपने प्यारे हरियाणावासियों से निवेदन करना चाहता हूं कि कृपा भगत सिंह जी के विचारों को अपनाते हुए सोचिए कि हमारे ग्रामीण परिवेश में लोकतंत्र को कैसे मजबूत करें और फिर खुद से फैसला करें की सर्वसहमति क्या वास्तव में सर्वसहमति ही है?
(लेखक डॉ गुलाब सिंह, सहायक प्रोफेसर रसायनशास्त्र शहीद उधम सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय मटक माजरी इंद्री , ये उनके अपने विचार हैं।)
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