प्रभात कुमार राय का लेख : शांति की पहल करें भारत-चीन

प्रभात कुमार राय
चौबीस फरवरी को रूस ने यूक्रेन पर सैन्य आक्रमण कर दिया था। प्रारम्भ में सैन्य विशेषज्ञों का यह मानना था कि यह आक्रमण कुछ दिनों के पश्चात खत्म हो जाएगा, क्योंकि रूस की अत्यंत शक्तिशाली सेना का मुकाबला यूक्रेन की निर्बल सेना अधिक दिनों तक कदाचित नहीं कर सकेगी। सैन्य विशेषज्ञों के अनुमान के एकदम विपरीत रूसी आक्रमण में निरंतर तहस-नहस होते हुए यूक्रेन की सेना और उसके नागरिकों ने शानदार शौर्य और हिम्मत के साथ आक्रमण का कड़ा मुकाबला किया है। यूक्रेन की इस अप्रतिम बहादुरी ने वियतनाम द्वारा अमेरिका के विरुद्ध अंजाम दिए गए प्रबल सैन्य प्रतिरोध की यादें ताजा कर दी हैं। वियतनाम के साथ ही साथ 1939 में सोवियत रूस के आक्रमण के विरुद्ध फिनलैंड सरीखे छोटे से देश के द्वारा अंजाम दिए गए शौर्य पूर्ण सैन्य प्रतिरोध का भी स्मरण करा दिया है, जबकि एक वर्ष चले युद्ध में फिनलैंड में स्टालिन की ताकतवर लाल सेना के पराजय झेलनी पड़ी थी। फिनलैंड अपनी कुछ जमीन सोवियत रशिया के हाथों गंवाकर अपनी आजादी को बाकायदा कायम रख सका। हिटलर, मुसोलनी, स्टालिन और पुतिन सरीखे निरंकुश तानाशाह प्रायः समझ ही नहीं पाते कि आजादी के मतवाले योद्धा क्या कुछ कारनामा कर गुजर सकते हैं। यूक्रेन भी रूस के हाथों अपनी कुछ जमीन खोकर अपनी आजादी को यकीनन कायम रख सकेगा। अमेरिका की कयादत में नाटो सैन्य संगठन की दगाबाजी के कारण यूक्रेन वस्तुतः रूस के नृशंस आक्रमण के समक्ष एकदम अकेला पड़ गया है।
अमेरिका और यूरोप के नाटो राष्ट्र अपनी पार्लियामेंट में यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की की तकरीरों पर जोरदार तालियां पीटने के अतिरिक्त और अधिक कुछ कर नहीं सके हैं। यहां तक कि यूक्रेन पर रूस का बर्बर आक्रमण रोकने का संजीदा प्रयास तक भी नहीं कर सके हैं। नाटो के सैन्य भरोसे पर ही यूक्रेन ने वस्तुतः रूस से सैन्य लोहा लिया, किंतु नाटो राष्ट्र ने तो यूक्रेन को महज अस्त्र-शस्त्र प्रदान करके अपने सैन्य कर्तव्य की इतिश्री कर ली है। यहां तक कि रूस के विरुद्ध नाटो राष्ट्रों द्वारा जो आर्थिक प्रतिबंध आयद किए गए हैं, वो अभी तो आधे अधूरे बने रहे हैं। यूरोप के नाटो राष्ट्रों कदाचित तौर पर साहस नहीं जुटा पाए हैं कि रूस से प्राकृतिक गैस का आयात बंद कर सकें। अमेरिका तो भारत को नैतिक नसीहत दे रहा है कि भारत को रूस से सस्ते कच्चा तेल नहीं खरीदना चाहिए, जबकि खुद अमेरिका आज तक भी रूस से कच्चे तेल के आयात को बाकायदा जारी रखे हुए है। ऐतिहासिक सत्य है कि प्रत्येक युद्ध का खात्मा तो अवश्य ही होता है, किंतु कभी कोई युद्ध आलमी जंग में परिवर्तित हो जाता है। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के आगाज पर एक विहंगम दृष्टि डालें तो दोनों ही विश्वयुद्धों वस्तुतः दो देशों के मध्य अंजाम दिए युद्ध से प्रारम्भ हुए थे। दो देशों के मध्य शुरू हुए युद्धों ने अंततः दुनिया के तमाम देशों को अपनी चपेट में ले लिया था।
प्रथम विश्वयुद्ध का प्रारम्भ 28 जून 1914 को सर्बिया के एक राष्ट्रवादी द्वारा आॅस्टि्रया-हंगरी राज्य के वारिस आर्कड्युक फर्डिनेंड का कत्ल करने से हुआ था, जबकि प्रतिशोध में आॅस्टि्रया हंगरी ने सर्बिया पर आक्रमण कर दिया। फिर क्या था कि एक के बाद एक देश इस युद्ध में शामिल होते हुए चले गए। एक सितंबर 1939 को जर्मनी ने पोलैंड पर हमला अंजाम दिया था, दो देशों के मध्य शुरू हुआ युद्ध आखिरकार विनाशकारी द्वितीय विश्वयुद्ध में परिवर्तित हो गया। रूस और यूक्रेन के मध्य जारी जंग क्या कहीं तीसरे विश्वयुद्ध का आगाज तो नहीं है, क्योंकि दो शक्तिशाली सैन्य पक्षों में विभाजित हो चुकी दुनिया, कभी भी इस युद्ध में कूद सकती है और इसे विश्वयुद्ध बना सकती है। अतः परमाणु बमों से लैस शक्तिशाली देशों के मध्य तीसरी आलमी जंग शुरू होने से पहले ही यूक्रेन-रूस युद्ध का समुचित निदान करने की पहल होनी चाहिए।
यूक्रेन द्वारा नाटो सैन्य संगठन का सदस्य देश बन जाने की ख्वाहिश के साथ ही यह वर्तमान सैन्य संकट शुरू हुआ था। यक्ष प्रश्न है कि रूस और यूक्रेन के मध्य जारी भीषण युद्ध का समापन हो सकता है अथवा शनैः शनैः यह तीसरे विश्व युद्ध में परिवर्तित हो सकता है। अमेरिका के नेतृत्व में नाटो राष्ट्रों द्वारा यूक्रेन को विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों की भरपूर सप्लाई दी जा रही है। राष्ट्रपति पुतिन का सैन्य अहंकार अपने चरम बिंदु पर कायम है और वह एक के बाद एक यूक्रेन के शहरों को खाक़ में मिला देने लिए भीषण बमबारी अंजाम दे रहा है। दूसरी तरफ यूक्रेन का राष्ट्रपति जेलेंस्की है, जो अपनी आखिरी सांस तक युद्ध जारी रखने के संकल्प के प्रति प्रतिबद्ध है। ऐसी स्थिति में विश्व पटल पर ऐसी कौन सी कूटनीतिक शक्तियां हैं, जो दोनों देशों को युद्ध समाप्त करने के लिए रजामंद कर सकती हैं। चीन कूटनीतिक तौर पर रूस के साथ खड़ा है और अमेरिका पूर्णतः खड़ा हुआ है यूक्रेन के साथ। संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव पर 141 राष्ट्र रूस के विरुद्ध मतदान करते हैं। केवल पांच राष्ट्र ही खुलकर रूस के पक्ष में मतदान करते हैं। भारत और चीन सहित 35 देश मतदान का बहिष्कार करके तटस्थ बने रहते हैं।
तीसरे विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ी हुई दुनिया को केवल भारत और चीन मिलकर बचा सकते हैं। चीन और भारत भले ही परस्पर सीमा विवाद में उलझे हुए राष्ट्र रहे हैं, किंतु इस वक्त यदि मिलकर कूटनीतिक पहल अंजाम दें, तो फिर यूक्रेन सैन्य संकट का समाधान संभव हो सकता है। भारत का प्रगाढ़ कूटनीतिक संबंध रूस और अमेरिका के साथ कायम रहा है। रूस वस्तुतः विगत 50 वर्ष से भारत का प्रबल रणनीतिक सहयोगी राष्ट्र रहा है और विगत 20 वर्ष से भारत का कूटनीतिक संबंध अमेरिका के साथ प्रगाढ़ होता चला गया है। क्वाड सुरक्षा मोर्चे पर भारत वस्तुतः अमेरिका का रणनीतिक सहयोगी देश है। चीन विगत 20 वर्ष से रूस का निकट सहयोगी राष्ट्र है। चीन और अमेरिका भले ही कूटनीतिक तौर पर परस्पर विरोधी देश रहे है़, किंतु दोनों के मध्य गहन व्यापारिक संबंध हैं। अपनी समस्त कटुता को दरकिनार करते हुए भारत और चीन को संयुक्त तौर पर पहल अंजाम देकर यूक्रेन युद्ध का खात्मा करने का प्रयास प्रारम्भ करना चाहिए। हालांकि चीन और भारत द्वारा खुले तौर पर किसी भी युद्धरत पक्ष के साथ खड़े नहीं हुए हैं और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पटल पर परस्पर वार्ता द्वारा युद्ध का शांतिपूर्ण समाधान की पैरवी करते रहे हैं। शंघाई कॉओपरेशन ऑर्गेनाइजेशन और ब्राजील, इंडिया, चाइना, रशिया (ब्रिक्स) मंच पर रशिया के साथ भारत और चीन सहयोगी देश हैं। अतः भारत और चीन को मिलकर यूक्रेन सैन्य संकट का समुचित निदान निकालने की कूटनीतिक पहल करनी चाहिए, क्योंकि यूक्रेन-रूस युद्ध का निदान निकालने में हो रही देरी वस्तुतः विश्व को विनाशकारी तीसरे विश्वयुद्ध में झोंक सकती है, जो यकीनन परमाणु बमों से लड़ा जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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