Knowledge News : शहजादा अजीम और तुलाराम का शौर्य

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक : हरियाणा में कंपनी राज के खिलाफ पहली चिंगारी 11 मई 1857 को गुड़गांव पर कब्जा लेने के साथ शुरू होती है। इसके बाद धीरे-धीरे ये पूरे हरियाणा में फैल जाती है। मेवात के पश्चिम में अहीरवाटी के रेतीले इलाके में राव तुलाराम की रेवाड़ी की जागीर होती थी।
1857 में राव तुलाराम ने भी मई के महीने में सेना इकट्ठी कर रेवाड़ी की तहसील पर कब्जा कर लिया और बादशाह की तरफ से वहां का शासक होने का ऐलान कर दिया। रामपुरा में मजबूत किला बनाकर उसमें गोला-बारूद बनाने का कारखाना भी लगा दिया।
दिल्ली पर कब्ज़ा कर लेने के बाद अंग्रेज जनरल शावर ने अक्टूबर के शुरू में पटौदी पर हमला कर दिया और फिर रामपुरा के किले को नेस्तनाबूद कर दिया, परन्तु राव तुलाराम पहले से ही बच निकले थे। शावर फिर झांझर, कानौद और रेवाड़ी को लूटने के बाद नवम्बर में दिल्ली लौट गया। राव तुलाराम ने शेखावटी से सैनिक एकत्र कर और जोधपुर की बाग़ी सेनाओं को भी शामिल कर रेवाड़ी और रामपुरा पर फिर कब्ज़ा कर लिया।
अंग्रेजी सरकार ने इस पर लेफ्टिनेंट कर्नल गैराड को शक्तिशाली सेना देकर राव तुलाराम को कुचलने के लिए भेज दिया। परन्तु अब तुलाराम अकेले नहीं थे। झज्जर के नवाब की सेना अब्दुल समद खां के नेतृत्व में नारनौल आ पहुंची थी। भट्ट के शहजादे मुहम्मद अजीम खान भी हिसार के इलाके से उखाड़ दिए जाने के बाद अपनी सेना के साथ राव तुलाराम के साथ आ मिले।
उधर, अंग्रेजी सेना की मदद के लिए पंजाब व मुल्तान की सेनाएं और घुड़सवार भी आ चुके थे। नारनौल के पास नसीबपुर गांव में विद्रोही सेनाओं ने 16 नवम्बर 1857 के दिन अंग्रेजी फ़ौज पर हमला कर दिया, बड़ा भीषण संग्राम हुआ, अनेक अंग्रेजी अफसर मारे गए।
राव तुलाराम, सेनानायक कृष्णगोपाल और रामलाल भी युद्ध में काम आये। लड़ाई के बाद एक अंग्रेज अफसर ने लिखा है कि इतना बेहतर मुकाबला भारतीय दुश्मनों ने कभी नहीं किया था, जितना यहां हुआ बागियों में न कोई झिझक थी और न ही कोई डर।
वे बड़ी वीरता के साथ सीधा हमला कर रहे थे। पहले तो अंग्रेजी सेना के पांव उखड़ ही गये थे, परन्तु अंग्रेजी कमांडरों की होशियारी और तोपखाने की ताकत ने मैदान को हाथ से जाने से रोक लिया।
हरियाणा में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की यह आखिरी लड़ाई थी। राव तुलाराम अंग्रेज के खिलाफ शक्ति जुटाने की कोशिश में इधर-उधर भटकते रहे। परन्तु हालात बदल चुके थे। आखिर वे 1858 में तात्या टोपे के गिरफ्तार कर लिए जाने पर बम्बई होते हुए अफ़ग़ानिस्तान चले गए। उनकी सेहत काफी गिर चुकी थी। अफ़ग़ान अमीर ने उनकी दवा-दारू के लिए शाही हकीम तैनात कर दिया, लेकिन अब शरीर जबाब दे चुका था। 1863 में 38 साल की आयु में राव तुलाराम ने प्राण त्याग दिए। काबुल शाही सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
समय के साथ जैसे हरियाणा में जातिवाद का जहर जातियों में फैला, उसके बाद महापुरुषों के बारे में भी औछी टीका टिप्पणियों का दौर शुरू हुआ है। सामाजिक समरसता के लिए हम जिम्मेदार व्यक्ति को बचना चाहिए।
साभार: पॉलिटिक्स ऑफ चौधर
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