Knowledge News Haryana : अंग्रेज अफसर जिसने जाटों जैसा बनने की ठानी थी...

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक। 30 दिसम्बर, 1803 को जिस 'ईस्ट इंडिया कंपनी' ने मराठों से हरियाणवी भू-भाग अपने नियंत्रण में लिया था। उस कारोबारी कंपनी को यूँ तो 31 दिसम्बर, 1600 को महारानी विक्टोरिया ने भारतीय उपमहाद्वीप में व्यापार करने के लिए अनुमति पत्र जारी कर दिया था और बारह साल बाद 1612 में उसने गुजरात के सूरत में पहली फैक्ट्री भी स्थापित कर ली थी लेकिन कंपनी के भारत में शासन करने की असल शुरुआत 1757 से हुई और उसी के साथ कंपनी ने भारत के अन्य इलाकों पर काबिज होने का अभियान शुरू किया था।
इसके बाद अगली पूरी एक सदी तक भारत पर परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से 'कंपनी राज' ही रहा। 1857 में ब्रिटेन की राजशाही ने हिंदुस्तान की शासन व्यवस्था अपने नियंत्रण में से ली और देश की आजादी तक 'क्राउन' (ताज) का राज रहा।
हरियाणा में 'कंपनी राज' से 'ताज का राज' का समय 53 वर्ष (जनवरी 1804 फरवरी 1858) और 89 वर्ष (फरवरी 1858 अगस्त 1947) वर्षों तक रहा या यूँ कह लें कि 142 वर्षों तक हरियाणवी भू-भाग फिरंगी प्रभुत्व व वर्चस्व में रहा। 'ताज-राज' के साथ ही हरियाणा को पंजाब के साथ नत्थी कर दिया गया और हरियाणवी भू-भाग भी राजनीतिक व प्रशासनिक दृष्टि से 'पंजाब' हो गया।
लगभग एक सदी जमा एक दशक तक 'पंजाबी हरियाणा' वजूद में रहा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस हरियाणवी इलाके को प्रशासनिक दृष्टि से बंगाल प्रेसिडेंसी की 'दिल्ली टेरिटरी' में रखा था। अंग्रेजों ने पानीपत, सोनीपत, समालखा, गन्नौर, हवेली, पालम, नूंह, हथीन, तिजारा भोरा, टपूकड़ा, सोहना, रेवाड़ी, इंद्री-पलवल क्षेत्रों को रेजिडेंट के जरिये अपने सीधे नियंत्रण में रखा और इन्हें ' असाइन्ड टेरिटरी' का नाम दिया।
शेष इलाकों को अलग अलग नवाबों और सरदारों में बांट दिया और फिर 1933 में दिल्ली टेरिटरी को 'दिल्ली डिवीजन' के नाम से नॉर्थ वेस्ट प्रॉविन्स (वर्तमान उत्तरप्रदेश) के साथ नत्थी कर दिया।
दिल्ली डिवीजन को 5 जिलों और देसी रियासतों में विभाजित कर दिया गया। ये जिले-दिल्ली, गुड़गांव, रोहतक, हिसार व पानीपत थे। सात रियासतों में बहादुरगढ़, झज्जर, दुजाना, फर्रुखनगर, बल्लभगढ़, लोहारू व पटौदी होती थीं।
हरियाणा में अपना शासन कायम करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को काफी मश्शकत करनी पड़ी। यहां के लोगों ने बार-बार फिरंगी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह किया।
कई साल तक हरियाणा के लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम रखा लेकिन 1809 आते-आते कंपनी अपने मकसद में कामयाब हो ही गयी लेकिन ऐसा भी नहीं था कि इसके बाद हरियाणा के लोगों की नाक में फिरंगी नकेल पूरी तरह पड़ गयी थी।
जब कभी भी कंपनी की प्रशासन पर पकड़ कमजोर पड़ती थी तो हरियाणा के वीर उसके खिलाफ हथियार उठा लेते थे। 1810 और 1818 का विद्रोह, 1818 का रानियां विद्रोह, 1824 में किसानों का विद्रोह, 1814 में जींद के शासक प्रताप सिंह का विद्रोह, 1835- 36 का बलवाली विद्रोह, 1835 में दिल्ली के रेजिडेंट विलियम फ्रेजर की हत्या, 1843 का कैथल विद्रोह और 1845-46 में लाडवा के अजीत सिंह व सतलुज के बाएं किनारे स्थित सिख सरदारों का विद्रोह, ऐसे उदाहरण हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हरियाणा फिरंगी कंपनी के लिए लम्बे समय तक सिरदर्द रहा।
इन बगावतों को अंग्रेजों ने अपनी ताकत से कुचल तो जरूर दिया लेकिन लोगों के बागी तेवर बने रहे। 1857 के सैनिक विद्रोह और नतीजतन दिल्ली के पतन की खबर मिलते ही इस क्षेत्र के लोगों ने फिरंगी हुकूमत को मिटाने के लिए इस मौके का पूरा फायदा उठाया और पूरी ताक़त से अंग्रेजों को टक्कर दी और जून-जुलाई 1857 को सम्पूर्ण हरियाणा क्षेत्र को ब्रिटिश सत्ता से स्वतंत्र करा लिया लेकिन वो कहते हैं ना कि हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था। अंग्रेजों की मदद के लिए बीकानेर, पटियाला, जींद आदि देशी रियासतों के राजा अपनी सेना लेकर आ खडे हुए और जनता के विद्रोह को कुचल दिया गया।
देश के अन्य भागों की तरह हरियाणा पर भी अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया। आधी सदी के कंपनी राज में ब्रिटिश सत्ता को यह अहसास बखूबी हो गया था कि उनके लिए हरियाणा को संभालना एक बड़ी चुनौती था। 24 सितम्बर, 1803 को दिल्ली पर ईस्ट इंडिया कंपनी का आधिपत्य स्थापित होने के बाद ब्रिटिश रेजीडेंसी अस्तित्व में आ गयी और हरियाणा में भी अब ब्रिटिश रेजिडेंट्स के जरिये कंपनी की हुकूमत शुरू हुई।
डेविड ओक्टरलनी को पहला (कार्यकारी) रेजिडेंट नियुक्त किया गया। उस दौर में रेजिडेंट ही एक तरीके से वास्तविक शासक होता था क्योंकि इस पद में एक मजिस्ट्रेट, जज व कलेक्टर की शक्तियां निहित होती थीं। कुल मिलाकर रेजिडेंट ही 'सर्वेसर्वा' होता था।
शुरूआती दौर में अंग्रेज हरियाणवी क्षेत्र में अपना प्रभाव कायम करने के प्रति ज्यादा उत्सुक नहीं थे हालांकि वे इस क्षेत्र के रणनीतिक महत्व से वाक़िफ़ थे। सिन्धु नदी की ओर से किसी भी विदेशी हमले की स्थिति में यह क्षेत्र ही दिल्ली के लिए सुरक्षा कवच का काम कर सकता था इसलिए अंग्रेज़ इसे 'बफर स्टेट' के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे लेकिन वे उदासीन नहीं रह सके क्योंकि इस क्षेत्र के बेक़ाबू जमींदारों और मुखियाओं ने ब्रिटिश टेरिटरी की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगा दिए थे।
इस बीच फरवरी 1804 में कर्नल विलियम स्कॉट ने रेजिडेंट का कार्यभार ग्रहण किया। स्कॉट की वैचारिक दृष्टि उदार थी। पदभार संभालने से पहले उसने एक मसौदा तैयार किया जिसमें अंग्रेज़ों के मुग़ल बादशाह से संबंधों की रूपरेखा तय की गयी।
स्कॉट ने मुगल बादशाह को पूरा सम्मान दिए जाने के साथ-साथ उसके ख़र्चों के लिए कम-से-कम 36 लाख रुपये सालाना दिए जाने को वकालत की। दुर्भाग्य यह रहा कि पदभार संभालने से पहले ही स्कॉट की मृत्यु हो गयी। अब फिर से ओक्टरलनी को नवम्बर 1804 में स्थाई रेजिडेंट बनाया गया।
स्कॉट की सिफारिश के विपरीत ओक्टरलनी ने बादशाह को सालाना 155500 रुपये दिए जाने का सुझाव दिया और साथ ही ख़ास त्योहारों पर ख़र्चे हेतु अलग से 10000 रुपये दिए जाने के प्रावधान की बात की।
ओक्टरलनी ने असाइन्ड टेरिटरी को भी बादशाह के नियंत्रण में रखने का विरोध किया। जनरल लेक भी ओक्टरलनी की राय से सहमत था लेकिन कलकत्ता में बैठी सर्वोच्च सरकार चाहती थी कि असाइन्ड टेरिटरी बादशाह के अधीन ही रहे।
स्कॉट ने जिद पर अड़ते हुए कहा कि कम से कम इतना तो होना ही चाहिए कि असाइन्ड टेरिटरी का प्रशासनिक नियंत्रण रेजिडेंट के हाथों में हो। आख़िरकार उसका प्रस्ताव मान लिया गया।
स्कॉट ने कार्यभार संभालते ही उसने हरियाणा में शांति और व्यवस्था क़ायम करने की दृष्टि से दो सुझाव दिए। पहला था कि पूरी टेरिटरी को चार प्रमुख सरदारों-साहिब सिंह (पटियाला), भाग सिंह (जींद), जसवंत सिंह (नाभा) और भाई लाल सिंह (कैथल ) के हवाले कर दिया जाए तथा दूसरा सुझाव यह कि उस पूरे भाग पर ब्रिटिश नियंत्रण हो जिससे मराठे राजस्व वसूलते थे।
उधर ईस्ट इंडिया कम्पनी के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। कंपनी खुद को अंदरूनी झगड़ों में उलझाना नहीं चाहती थी। इसलिए उसने टेरिटरी को सीधे अपने नियंत्रण में लेने के बजाय सुरक्षा की दृष्टि से केवल सैनिक उपाय किये।
इसका नतीजा ये हुआ कि यमुना के दायें किनारे पर स्थित भू-भाग को रेजिडेंट के अधीन रखा गया जबकि एसाइन्ड टेरिटरी व शेष भाग को विभिन्न सरदारों और मुखियाओं को सौंप दिया।
1806 की गर्मियों में अर्चिवाल्ड सेटन ने बतौर रेजिडेंट ज़िम्मेवारी संभाली और उसके सहायक के रूप में चार्ल्स मेटकॉफ को नियुक्त किया गया। सेटन तथा मेटकॉफ की जोड़ी ने पहली बार इस क्षेत्र में नियमित प्रशासन स्थापित करने के प्रयास किये।मेटकॉफ को दिल्ली शहर व उसकी टेरिटरी के लोगों में कुछ खास किस्म की मर्दानगी दिखी और वह उसका क़ायल हो गया। मेटकॉफ को इस क्षेत्र में मौजूद स्वायत ग्रामतंत्र (पंचायती सिस्टम) ने भी काफ़ी प्रभावित किया, जिसका उसने बख़ूबी इस्तेमाल भी किया। मेटकॉफ जमींदार वर्ग की सरकार के प्रति निष्ठा सुनिश्चित करना चाहता था ताकि किसी भी आपात स्थिति में इस वर्ग पर भरोसा किया जा सके।
मेटकॉफ का मानना था कि ग्रामीण समुदाय छोटे-छोटे रिपब्लिक्स (गणतंत्र) की तरह हैं, जो आत्मनिर्भर हैं और उन्हें अपने अस्तित्व के लिए भी किसी विदेशी शासक पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। इसीलिए भले ही देश या प्रदेश में हिन्दू पठान, मुगल, मराठा, सिख अथवा अंग्रेज का राज आता-जाता रहा हो, गांवों की व्यवस्था पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
ब्रिटिश शासन को जमींदार वर्ग का हितैषी साबित करने के लिए मेटकॉफ ने भूमि का लम्बे समय तक के लिए सेटलमेंट (बंदोबस्त किया और कृषि व किसान की हालत सुधारने के मकसद से पुराने नहर-तंत्र की बहाली के लिए व्यापक स्तर पर सर्वेक्षण कराया।
इसका नतीजा ये हुआ कि 1825 तक पुरानी फिरोजशाह नहर चालू अवस्था में आ गयी, जिससे खेती की सेहत में काफी सुधार आया। मेटकॉफ की इसी नीति को उसके बाद जॉन लॉरेंस ने आगे बढ़ाया।
लॉरेंस अंग्रेजों की तरह गोरे रंग का नहीं था बल्कि गहरे रंग का मजबूत कद-काठी और रौबदार व्यक्तित्व का स्वामी था। बाहरी तौर पर वह न सिर्फ 'जाटों' जैसा दिखता था बल्कि हरियाणवी बोली बोला करता था और आम लोगों के बीच घूमता फिरता था। बिना किसी लाग-लपेट के सीधी बात कहना और उसकी कथनी व करनी में कोई फर्क न होना, ऐसे गुण थे जिनके चलते लॉरेंस जनता में लोकप्रिय था।
1833 का साल हरियाणा के इतिहास में एक और महत्वपूर्ण साल था हरियाणवी क्षेत्र अब तक जिस बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, उसे कंपनी ने दो हिस्सों बंगाल और नार्थ-वेस्ट प्रोविंस में बाँट दिया और हरियाणा को नार्थ-वेस्ट प्रोविंस से जोड़ दिया।
आगरा इस प्रोविंस का मुख्यालय था अब समूचा हरियाणा 'दिल्ली डिवीजन' के नाम से इस प्रोविंस का हिस्सा बन गया और इसका प्रशासन संभालने वाले अधिकारी का पदनाम रेजिडेंट के बजाये कमिश्नर हो गया।
अगले 25 वर्षों तक हरियाणा इस प्रोविंस का अंग रहा। अंग्रेजों के लिए स्वतंत्र प्रवृति के हरियाणवी लोगों पर हुकूमत करना आसान नहीं रहा। यहां बसने वाली मार्शल क़ौमों ने मौक़ा मिलने पर अंग्रेज़ों की नाक में दम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी क्योंकि हरियाणा के लोग अंग्रेजों को भी लुटेरे ही मानते थे।
गुडगांव के मेव, गुज्जर व अहीर, रोहतक के जाट और रांघड, हिसार के भट्टी, रांगढ़, पछादे, विश्नोई व जाट और करनाल के सिखों ने फिरंगी निजाम का मजबूती से विरोध किया।
हालात यह थे कि सेना की मदद के बिना अंग्रेजी प्रशासन यहा के लोगों से भू-राजस्व भी वसूल नहीं कर पाता था। गांवों में लोग अंग्रेजों के कारिंदों को पीटपाटकर भगा दिया करते थे।
आगे चलकर जैसे-जैसे अंग्रेजों ने अपना न्याय तथा पुलिस तंत्र स्थापित कर लागू करना शुरू किया, पंचायतें बेमानी होती गयीं क्योंकि क़ानून-व्यवस्था का सारा जिम्मा अब नए ब्रिटिश तंत्र पर आ गया।
1857 के उपद्रव से पहले ऐसे कई योग्य व दूरदर्शी अंग्रेज प्रशासक हरियाणा में आये जो इस इलाके को तेजी से विकसित करने के लिए आतुर थे। विद्यान लेखकर डॉ. स्पीयर की मानें तो इस इलाके के लिए यदि ओक्टरलनी 'बाबर' और 'चा 'अकबर' था तो थॉमस मेटकॉफ शाहजहां' था लेकिन ऐसे काबिल प्रशासकों के बावजूद भी या इन्हीं की वजह से हरियाणा के लोगों और फिरंगी राज के बीच टकराव ही रहा।
इस टकराव की दो वजह स्पीयर ने बताई है। पहली वजह यह कि ब्रिटिश प्रशासन ने जमीन का मूल्यांकन काफी बड़ा चढ़ाकर किया, नतीजतन सरकार ने दमनकारी तरीकों से लगान वगैरा वसूल किये, जिससे किसान ख़फ़ा हुए और दूसरी वजह यह कि अंग्रेज सरकार ने से चली आ रही पंचायत व्यवस्था से छेड़छाड़ की।
जाटों जैसा दिखने वाला अफसर लारेंस जैसा प्रशासक भी लोगों में कोई उत्साह नहीं जगा सका, यधपि वह ग्रामीण जनता के प्रति सहानुभूति पूर्ण सोच रखता था।
ब्रिटेन के लिए पंजाब की अहमियत फिरंगी ईस्ट इंडिया कंपनी ने दूसरे एंग्लो-सिख युद्ध में सिखों को फरवरी 1849 परास्त कर 2 अप्रैल 1849 को ब्रिटिश भारत में मिला लिया। पंजाब फिरंगी विजय का अंतिम पड़ाव था। अतीत में भी पंजाब का इतिहास विदेशी हमलों से भरा पड़ा था ईसा से वर्षों पहले सिकंदर से लेकर अंग्रेजों तक यह सिलसिला चलता रहा।
पंजाब की समृधि और सम्पन्नता विदेशियों को आक्रमण के लिए उकसाती थी ये ताकतें कैसे कमजोर हुई और कैसे अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व कायम किया, इसके बारे में कार्ल मार्क्स ने 8 अगस्त, 1853 के 'दि ट्रिब्यून' में लिखा- 'मुगलों की सर्वोच्च सत्ता को ब्रिटिश वायसरायों ने तोड़ा। मराठों ने ब्रिटिश वायसरायों की सत्ता को तोड़ा। मराठों की सत्ता को अफगानों ने खंडित किया और जब सब आपस में लड़ रहे थे तो ब्रिटेन घुसा और उसने बल का प्रयोग कर सबको क़ाबू कर लिया।
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