Knowledge News : गदर की कहानी- जीटी रोड पर उदमीराम ने अंग्रेजों को था छकाया...

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक : हरियाणा में कंपनी राज के खिलाफ पहली चिंगारी 11 मई 1857 को गुडगांव पर कब्जा लेने के साथ शुरू होती है। मेवाती बहुत बहादुरी से लडे़। दिल्ली पर बागियों का कब्जा हो चुका था, लेकिन अंग्रेजी सेनायें बाहर उत्तर में रिज पर डटी रहीं, क्योंकि जीटी रोड पर पानीपत और अम्बाला की छावनियों और फिरोजपुर सड़क पर हांसी और सिरसा की छावनियां दिल्ली पर अंग्रेजों का दबाव बनाए रखने में मददगार थीं।
जीटी रोड पर अंग्रेजी सेनाओं और अन्य युद्ध सामग्री को रोकने के लिए रोहतक जिले की सोनीपत तहसील के अनेक गांव में भी बगावत फ़ैल गयी। इसमें अंग्रेजी सेना से बर्खास्त हरियाणा के सिपाहियों, किसानों और दस्तकारों का बड़ा हाथ था।
अलीपुर और सोनीपत के बीच लिवासपुर, कुंडली, मुरथल, बहालगढ़, खानपुर व हमीदपुर सराय के वीरों ने बार-बार अंग्रेजी सेना और उनकी टुकड़ी पर हमले करने शुरू कर दिए। लिबासपुर के उदमीराम की युवकों की टोली के कारनामे आज भी सुने सुनाए जाते हैं, लेकिन हैरानी की बात ये है कि अंग्रेजी दस्तावेजों में उदमीराम का कहीं भी जिक्र नहीं किया गया है।
उदमीराम का बलिदान हरियाणा के वीरतापूर्ण इतिहास में गौरवशाली पन्नों के रूप में दर्ज है। बिलासपुर गांव के उदमीराम अपने गांव के नम्बरदार थे और देशभक्ति का जज्बा उनकी रग-रग में भरा पड़ा था। युवा उदमीराम ने अंग्रेज़ों के जुल्मों के लिए उन्हें सजा देने के लिए 22 लोगों का एक टोल तैयार किया। अंग्रेज अफसर आज की जीटी रोड से अक्सर गुजरते थे।
उदमीराम और उनके साथी भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों मसलन, लाठी- जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी, फरशे आदि से यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते थे और उन्हें मौत के घाट उतारकर गहरी खाइयों व झाड़-झंखाड़ों के हवाले कर देते थे। इसी क्रम में उदमीराम ने साथियों के साथ पत्नी सहित इस मार्ग से गुजर रहे एक बड़े अफ़सर पर घात लगाकर हमला बोल दिया। अंग्रेज इस क्षेत्र में तब तक काबू पाने में असमर्थ रहे, जब तक उन्हें और अधिक अंग्रेजी, पटियाला, कुंजपुरा और करनाल की सैनिक सेवाएं उपलब्ध नहीं करा दी गयीं।
उधर, उत्तर में थानेसर जिले में देसी सेना तो बगावत नहीं कर पाई, परन्तु नम्बरदारों और चौधरियों ने कंपनी राज के खिलाफ विद्रोह की कमान संभाली। अनेक जगह अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ होती रहीं। थानेसर में ही अंग्रेजी शक्ति का मुकाबला करते हुए 135 बागी शहीद हो गए। 62 विद्रोहियों को लुटेरे कहकर मार डाला गया। अनेक लोगों को बिना मुकदमा चलाये सरेआम फांसी पर लटका दिया गया।
इन दिनों अम्बाला और दिल्ली के बीच जीटी रोड पर अनेक देशभक्तों के पंजर पर लटके देखे जा सकते थे। अम्बाला जिले में भी विद्रोह के स्वर रोपड़ और गढ़ी कोताहा में विशेषकर देखे गए। रोपड़ के सरदार मोहन सिंह और उनके साथियों के पकड़े जाने पर अम्बाला में फांसी दे दी गयी और गढ़ी कोताहा को तोपखाने की मदद से नेस्तनाबूद कर दिया गया।
दक्षिणी-पश्चिमी हरियाणा में बल्लभगढ़, फरुखनगर, बहादुरगढ़ और झज्जर की रियासतों ने भी 1857 में कंपनी राज के ख़िलाफ़ बगावत कर दी और बहादुरशाह जफर को अपना बादशाह मान लिया।
दिल्ली से बीस मील दूर दक्षिण में बल्लभगढ़ में महाराजा नाहर सिंह ने आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। उसकी सेना यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित थी और आगरा तथा मथुरा से आने वाली अंग्रेजी सेनाओं का डटकर मुकाबला करने में कामयाब रही।
कर्नल लारेंस ने गवर्नर-जनरल को भेजे पत्र में लिखा था- "दिल्ली दक्षिण-पूर्व में राजा नाहर सिंह की बहुत मोर्चाबंदी है। हमारी सेनायें इस दीवार को तब तक नहीं तोड़ सकतीं, जब तक चीन या इंग्लैंड से कुमक न आ जाए" ये बल्लभगढ़ की शक्ति का ही परिणाम था कि अंग्रेज़ सितम्बर 1857 में दिल्ली में दक्षिण से घुस पाए। उत्तर में कश्मीरी गेट को ही चुना।
राजा नाहर सिंह को दिल्ली फ़तह कर लेने के बाद धोखाधड़ी से जनरल शावर ने गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली ले जाकर दिसम्बर में उसे राजद्रोह के दोष में फांसी पर लटका दिया। उनकी जमीन छीन ली गयी। उनके परिजनों और रिश्तेदारों को भी उजाड़ दिया गया।
मेवात पर क़ब्ज़ा जमा लेने के बाद जनरल शावर ने देसी रियासतों को कुचलने की ठानी। फ़र्रुखनगर पर अक्टूबर में हमला कर दिया। बड़ी घमासान लड़ाई हुई, परन्तु प्रशिक्षित सैनिक शक्ति और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद और तोपखाने की मदद से अंग्रेज किलों को ध्वस्त करने में कामयाब हो गए। नबाव अहमद अली गुलाम खान को दिल्ली ले जाया गया और उसे विद्रोही करार देकर फांसी पर लटका दिया गया।
बागी रियासतों में झज्जर उन दिनों की सबसे बड़ी रियासत थी। नबाव अब्दुर रहमान खान ने भी 1857 में अंग्रेजी राज के खिलाफ़ बगावत कर दी और अपने चाचा व ससुर अब्दुल सनद खान को सेना देकर जंग में बादशाह की मदद के लिए बादली भेज दिया। नवाब ने धन और सेना की मदद से विद्रोहियों की मदद की। परन्तु नवाब बहुत दयालु था। उसने यूरोपीय लोगों, औरतों, बच्चों और अंग्रेज अफसर मेटकॉफ को भी शरण दी, जो गुड़गांव से भागकर जान बचाने आये थे, परन्तु अंग्रेज सरकार को इतना ही काफी था कि नवाब ने बगावत में मदद की थी।
17 अक्टूबर को लारेंस ने नवाब को छुछकवास कैंप बुलवाकर गिरफ्तार कर लिया और तीखे संघर्ष के बाद अंग्रेज झज्जर पर कब्जा करने में कामयाब हो गए। खजाने को लूट लिया और नवाब को लाल किले में कैद कर डाल दिया गया। फ़ौजी अदालत में उन्हें दोषी करार देकर 23 दिसम्बर को लाल किले के सामने फांसी पर लटका दिया और सम्पति जब्त कर ली। जायदाद अंग्रेजपरस्त गद्दारों में बांट दी गयी या अंग्रेजी राज में शामिल कर ली। नवाब बहादुरगढ़ पर भी हमला कर उसे पकड़ लिया और राजद्रोह के आरोप में दिल्ली में फांसी दे दी गयी।
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