Knowledge News : रेवाड़ी का फेरीवाला, भारत का सम्राट बना हेमचंद्र विक्रमादित्य

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक : आप उस चायवाले को तो जानते ही होंगे, जो भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, लेकिन क्या आपने कभी फेरीवाले का भी नाम सुना है, जो भारत के सम्राट बने थे। दिमाग पर ज्यादा जोर लगाने की जरूरत नहीं है, आज हम उसी फेरीवाले की कहानी सुनेंगे, जो भारत का सम्राट रहा।
दोस्तों, अकबर का शाही इतिहासकार अब्बुल फजल ने लिखा है कि वो एक छोटा सा फेरीवाला था। सुबह से शाम तक रेवाड़ी की गलियों में नमक तेल बेचा करता था। असल में अब्बुल फजल भारत के सम्राट वीर हेमचंद्र हेमू की बात कर रहा है। वीर राजा हेमचंद्र हेमू ढूसर यानी भागर्व जाति से संबंध रहे थे। उनके पिता का नाम पूर्णदास था। हेमू के जन्म के समय पूर्णदास जी रेवाड़ी में ही रहते थे। पूजा पाठ में व्यस्त रहने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। इस वजह से बालक हेमू को जल्दी ही काम संभालना पड़ा। मेहनत करके जब हेमचंद्र हेमू ने अपनी स्थिति थोड़ी ठीक कर ली, तो सबसे पहले रेवाड़ी छोडकर सूर शासकों के यहां सरकारी नौकरी कर ली। पहले वो सरकारी फेरीवाले बने, इसके बाद शाही ठेकेदार के पद तक पहुंच गए। इसके बाद उनको शाहनगा एक बाजार का रुतबा मिला। ये वो महत्वपूर्ण अफसर होता था, जिसके जिम्मे पूरे अफगान के बाजार होते थे। थोड़े समय में ही उनके राजा इस्लामशाह व्यापार के साथ ही राज्य को चलाने के संबंध में उनसे सलाह मशविरा करने लगे थे।
1553 में इस्लामशाह की मृत्यु हो गई और मुबारिज खां आदिलशाह के नाम से बादशाह बना। वो एक मूर्ख शासक था और लोग मजाक में आदिलशाह को अदलीशाह यानी मूर्ख बादशाह कहते थे। हेमू जल्द ही आदिलशाह के महत्वपूर्ण व्यक्तियों में शामिल हो गए। आदिलशाह उन पर इतना मोहताज हो गया था कि एक छोटा सा काम भी बिना हेमचंद्र हेमू से पूछे बिना नहीं कर पाता था। थोड़े समय के बाद ही आदिलशाह की जगह सारे प्रशासनिक काम हेमचंद्र हेमू ही संभालने लगे थे और प्रधानमंत्री बन गए। प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने सारे पदों पर नियुक्तियां और उनको हटाने के अधिकार भी आदिलशाह से ले लिए और वो प्रधान सेनापति भी बन गए। एक तरह से नाम के लिए आदिलाशाह बादशाह थे, लेकिन असली शक्तियां हेमूचंद्र हेमू के हाथों में थी।
उधर, जब राजा कमजोर हो तो इसका फायदा दरबारी भी उठाते ही हैं। बहुत सारे अफगान सरदार खुद को स्वतंत्र घोषित करने लगे। ताजखां किरानी ने दक्षिण बिहार कब्जा लिया था। मुहम्मदखां सूर बंगाल को हथियाने के बाद सम्राट बनने के सपने देखने लगा था। इब्राहिम खां सूर और अहमदखां सूर को भी राजा बनने के सपने आने लगे। ऐसे समय में हेमू कहां चुप बैठने वाले थे। उन्होंने कलम छोड़कर तलवार संभाली और बुद्धि से काम लेते हुए कुल 22 युद्ध लड़े और अपने शत्रुओं का सफाया कर दिया।
इसी बीच, हुमांयू की मौत हो गई। दिल्ली का सिहांसन खाली था और ये मौका होता है, दूसरे राजा के लिए उस राज्य को अपने कब्जे में लेने का। आदिलशाह की तरफ हेमचंद्र हेमू इस अभियान पर निकले। इटावा, कालपी होते हुए हेमू आगरा पहुंचे। यहां उनकी टक्कर मुगल गवर्नर सिकंदरखां से होनी थी, लेकिन हेमू का नाम सुनते ही वो बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। आगरा पर कब्जा करने के बाद, उन्होंने दिल्ली की तरफ कूच किया। उस समय उनके पास एक विशाल सेना था। पचास हजार घुड़सवार, एक हजार हाथी, 51 बड़ी तोपें और पांच सौ छोटी तोपें। यहां पर उनका आमना-सामना तारदीबेगखां से हुआ और हेमू ने उनको आसानी से हराकर अपना विजय अभियान जारी रखा।
इसके बाद, हेमू ने दिल्ली में कदम रखा। यहां कदम रखते ही हेमचंद्र हेमू के सोचने का नजरिया भी बदल गया। एक कमजोर राजा के नीचे रहकर काम करने से अच्छा खुद राजा बनना उनको उचित लगा और उन्होंने शाही छत्र के नीचे बैठक कर खुद को विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित किया और अपने नाम के सिक्के भी चलवाए। इस तरह हरियाणा के एक इतिहासिक पुरुष भारत सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य बन गए। 7 अक्टूबर 1556 में भारत का सम्राट बनते ही हेमू ने जीते हुए इलाकों में गजब का प्रबंधन करना शुरू कर दिया। उन्होंने बहुत सारे गर्वनर नियुक्त किए और अपने इलाकों में पकड़ को और मजबूत कर लिया। बाबर का नाबालिग बेटा अकबर और उनका परिवार तो काबुल लौटने की योजनाएं बनाने लगा था, लेकिन सेनापति बेरमखां ने सबको लड़ने के लिए मनाया। उधर, हेमचंद्र हेमू को तो लड़ाई में दिक्कत ही नहीं थी और पानीपत की धरती पर 1556 में दूसरा युद्धा हुआ। एक तरफ हेमू थे और दूसरी तरफ अकबर के सेनापति बेरमखां। युद्ध में शुरुआत से ही पलड़ा हेमचंद्र हेमू के पक्ष में झुक गया था, लेकिन दुर्भाग्य उनका यहां इंतजार कर रहा था। बेरमखां के एक सैनिक ने निशाना साधकर उनकी आंख में तीर मारा और वो बेहोश हो गए। सेना में अफवाह फैल गई कि हेमू मारा गया और यही जीती हुई बाजी हार में पलट गई। अगर, वो ये युद्ध जीतते तो निश्चित तौर पर मुगल काल उसी दौर में खत्म हो गया होता। हमारी युवा पीढी वीर हेमचंद्र विक्रमादित्य के बारे में बहुत कम जानती है।
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