हरियाणा की सबसे बड़ी बॉडी मेकिंग मार्केट को कोविड-19 ने लगाया जंग

हरिभूमि न्यूज : जींद
कोरोना वायरस (Corona virus) के चलते भारत की उभरती वाहन बॉडी मेकिंग जींद की मार्केट पूरी तरह डूब चुकी है। रोहतक रोड पर 13 किलोमीटर तक फेली बॉडी मेकिंग मार्केट में 45 यूनिट है। जिनके साथ 200 के लगभग अन्य दुकानें जुड़ी हुई हैं। बॉडी मेकिंग यूनिटों से औसतन रूप से हर रोज 25 से 30 ट्रक, डंपर, हाइवा, बसें तैयार होकर निकलती थी। यानि महीने में 700 से 900 तक गाडि़यां यहां से तैयार होकर निकलती थी। हर रोज करोड़ों रुपये का कारोबार यहां पर होता था। आसपास गांवों के लगभग पांच हजार लोग बॉडी मेकिंग यूनिटों में काम करते थे। पिछले तीन माह से बॉडी मेकिंग यूनिटों से एक भी गाड़ी तैयार होकर नहीं निकली है और न ही गाडि़यां तैयार होने के लिए यूनिटों में आ रही हैं। गुणवत्ता तथा दामों के मामलों में जींद बॉडी मेकिंग मार्केट का भारत वर्ष में तूती बोलती रही है।
अब हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि बॉडी मेकिंग यूनिटों में सन्नाटा पसरा हुआ है, जो मकैनिक, कारपेंटर यहां पर कार्य करते थे, उन्होंने मजबूरी में सब्जियों की फेरी लगाना व अन्य काम को अपना लिया है। जो बॉडी मेकिंग यूनिट में ठेकेदारी करते थे वे खुद मजदूरी करने को मजबूर हैं। जिन लोगों ने बॉडी मेकिंग की यूनिट लगाई हुई हैं उनके सामने जमीन का भारी भरकम किराया, थ्री फेस का बिजली बिल, चौकीदारों समेत आठ-दस लोगों की तनख्वाह देने के भी लाले पड़े हुए हैं। बॉडी मेकिंग यूनिट संचालकों की बात पर विश्वास किया जाए तो नौबत यहां तक पहुंच चुकी हैं कि उनके पास व्यवसाय बदलने के सिवाए कोई दूसरा चारा नहीं बचा है।
दो दशकों से बादशाह रही है जींद की बॉडी मेकिंग मार्केट
वर्ष 1970 में इक्का दूक्का बॉडी मेकिंग की दुकानें थी। 1990 में यह संख्या दर्जनभर तक जा पहुंची। वर्ष 2000 में बॉडी मेकिंग कारोबार ने रफ्तार पकड़ी। सरहद पंजाब को पीछे छोड़कर भारत वर्ष में अपना अहम स्थान बना लिया। पूरे भारत वर्ष से गाडि़यों की बॉडियां बनाने के लिए ट्रांसपोर्टरों की गाड़ी यहां पर आती रही हैं। बॉडी मेकिंग यूनिटों के आसपास गांवों के पांच हजार से ज्यादा लोगों को यहां रोजगार मिलता रहा है। हर यूनिट में 60 से 200 लोगों तक किसी न किसी रूप में रोजगार मिलता रहा है। इसके अलावा लोहा, लकड़ी, सजावट, इलैक्ट्रशियन, पैंटर, मकैनिक, रंगरोगन, वेल्डिंग, कटाई समेत अन्य कार्य रहे हैं। खास बात यह भी है की बॉडी मेकिंग में मशीनों की बजाए ज्यादा कार्य हाथों से किया जाता है। स्थानीय लेबर होने के कारण बॉडी मेकिंग अन्य स्थानों की बजाए यहां पर सस्ती पड़ती है और गुणवत्ता में अन्य स्थानों से कहीं ज्यादा अच्छी भी है।
15 हजार से लेकर पांच लाख तक हाइवा, सात से 12 तक बस
टाटा एस गाड़ी से लेकर हाइवा तथा बसों की बॉडी बनाने का कार्य यहां स्थापित की गई यूनिटों में होता है। जिसमें छोटी गाड़ी पर 15 हजार से लेकर हाइवा गाडि़यों के पांच लाख तक में तैयार किया जाता है। जबकि बसों को लग्जरी तौर पर तैयार करने के लिए सात से 12 लाख रुपये तक खर्च आता है। दस से 15 दिनों में ऑर्डर को तैयार कर दिया जाता है। औसतन रूप से यहां पर स्थापित बॉडी मेकिंग यूनिटों से 25 से 30 गाडि़यां तैयार होकर निकलती रही हैं। बॉडी मेकिंग यूनिटों से लोहा, लकड़ी, बिजली सामान, स्पेयर पार्टस, सज्जा, रंग रोगन की दुकानें भी जुड़ी हुई हैं। यूनिटों में कामकाज न होने के चलते उनसे जुड़ा कारोबार भी ठप पड़ा हुआ है।
लाखों रुपये जमीन का किराया
राजेंद्रा बॉडी मेकिंग के संचालक राजेंद्र ने बताया कि उन्होंने वर्ष 1987 से बॉडी मेकिंग का कार्य शुरु किया था। कोरोना वायरस के चलते मौजूदा हालात बदत्तर हो चुके हैं, जिस जगह पर बॉडी मेकिंग यूनिट हैं, उन जगहों को किराए पर लिया गया है। जहां पर शैड डाले गए हैं। कामकाज बिल्कुल भी नहीं है, जमीन का किराया भुगतना पड़ रहा है। कम से कम दो चौकीदारों तथा दस अन्य लोगों की तनख्वाह मजबूरी में देनी पड़ रही है। औसतन रूप से हर माह लगभग दो माह का अतिरिक्त खर्च पड़ रहा है। सरकार को चाहिए कि 150 एकड़ में ऑटो मार्केट बनाए और वहां पर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध करवाएं। मौजूदा हालातों में बिजली बिल, टैक्स, जीएसटी समेत अन्य टैक्सों में छूट दें।
पहले ठेकेदार था, अब कर रहा मजदूरी
मैं बॉडी मेकिंग यूनिटों में लेबर के ठेके लेता था। अब किसी भी यूनिट में कोई कामकाज नहीं बचा है। मजबूरी में उसे मजदूरी करनी पड़ रही है। दूसरों को तो तब रोजगार उपलब्ध करवाए जब उसे खुद ही रोजी रोटी के लाले पड़े हुए हैं। काम नहीं मिलता तो वह गांव में सब्जी की फेरी लगाता है। अगर थोड़ा बहुत काम आ जाता है तो उसे यूनिट संचालक फोन कर बुला लेता है। काफी ऐसे साथी है जो उनके पास काम करते थे अब वे तंग हालातों में हैं। -धर्मबीर, घिमाना
आमदनी जीरो, खर्चा दो लाख महीना
उसके पास लॉकडाउन से पहले 200 आदमी कार्य करते थे। अब नौबत ये है कि जो पुरानी गाड़ी रिपेयरिंग के लिए आ रही है उसे खुद कार्य करना पड़ रहा है। ट्रांसपोर्ट का कार्य बहुत कम हो गया है, नई गाडि़यां नहीं आ रही है। खुले में बनी यूनिट की रात की रखवाली के लिए दो चौकीदार रखने पड़ रहे हैं, जबकि इमरजैंसी सेवाओं के लिए छह अन्य लोगों को भी रखना पड़ रहा है। आमदनी कुछ भी नहीं है, खर्च डेढ़ से दो लाख रुपये हर महीने हो रहा है। अगर ये ही हालात रहे तो सिवाए व्यवसाय बदलने के कोई दूसरा रास्ता नहीं है। -संजय बाॅडी मेकर संचालक
यूनिट में नहीं रहा कोई
लॉकडाउन को खुले भी 15 दिन हो चुके हैं। कोई कामधाम यूनिट में नहीं है। पहले देशभर से नई गाडि़यों तैयार होने को आती थीं। ट्रांसपोर्टर नई गाडि़यां नहीं खरीद रहे हैं। जो लोग उनके पास काम करते थे उन्होंने दूसरा काम शुरु कर दिया। चार दशकों से यह कारोबार कर रहे हैं उसे छोड़ भी नहीं सकते। अन्य खर्च वैसे ही बने हुए हैं, सरकार को चाहिए कि बॉडी मेकिंग कारोबारियों को कुछ राहत दे। -यासीन बाॅडी मेकर संचालक
परिवार चलाना मुश्किल हो गया
काम धंधा पूरी तरह चौपट हो चुका है। उसके पास आठ आदमी होते थे, लॉक डाउन के चलते उन्होंने कभी सब्जी की रेहड़ी लगाई तो कभी फल बेचे। लॉक डाउन खुला तो पिछले 15 दिनों से कोई ग्राहक नहीं आया। पहले प्रति गाड़ी 50 से 60 हजार रुपये कार्य हो जाता था। अब दुकान का किराया, बिजली बिल व अन्य खर्चे जेब से करने पड़ रहे हैं। परिवार चलाना भी मुश्किल हो गया है। - प्रवीन शीट इलैक्ट्रिशियन
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