Knowledge News : हरियाणा में मौर्य साम्राज्य और यौधेय गणराज्य

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक। भारत में मौर्य साम्राज्य के नाम से एक बृहद साम्राज्य अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कर रहा था। यह साम्राज्य 321 ईसा पूर्व से 185 ईसा पूर्व तक रहा। अपने समय में यह दुनिया का सबसे बड़ा साम्राज्य था। चाणक्य के मार्गदर्शन में नंद वंश को मटियामेट कर चन्द्रगुप्त मौर्य इस साम्राज्य के पहले राजा बने। उन्होंने सिन्धु के पार के क्षेत्रों जो मेसिडोनिया के अधीन थे, को भी जीत लिया था। चन्द्रगुप्त के बाद बिन्दुसार और फिर उसके पुत्र अशोक महान ने साम्राज्य का नेतृत्व किया। पांच-छ: करोड़ की आबादी वाले इस साम्राज्य का हरियाणा भी हिस्सा रहा था, ऐसा टोपरा (अम्बाला) व हिसार में पुरातत्व विभाग की खोजें, अशोक- कालीन स्तंभों, चनेती व थानेसर से प्राप्त स्तूपों के आधार पर प्रमाणित होता है।
मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद बक्ट्रियन ग्रीक्स, पार्थियन, सीथियन व कुषाण सरीखे विदेशी लोगों ने भारत पर आक्रमण किये। कुषाण को यौधेयों ने सतलुज व यमुना के बीच के इलाके से बाहर खदेड़ा और अपना शासन स्थापित किया । यौधेयों की राजधानी रोहतक थी और शासन पद्दति के रूप में उन्होंने कुलीनतंत्र जैसा गणतंत्र अपनाया हुआ था। ईसा से 150 वर्ष पूर्व से लेकर 350 ईसवी तक यौधेयों ने शासन किया। उनका राज्य एक और उत्तरप्रदेश की सीमा को स्पर्श करता था तो दूसरी ओर राजस्थान की सीमा को इलाहाबाद स्थित अशोक स्तंभों के अभिलेखों के अनुसार यौधेय गुप्त शासक समुद्र गुप्त को नज़राना देते थे।
सातवीं शताब्दी में हरियाणा राजा हर्षवर्धन के साम्राज्य का महत्वपूर्ण हिस्सा था और इसकी राजधानी थानेसर' में थी चीनी यात्री ह्वेनसांग राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत की यात्रा पर आया था और हर्षवर्धन के आग्रह पर उसने उसके राज्य में आठ वर्ष (635-643 ईसवी) तक प्रवास किया।
ह्वेनसांग ने अपनी इस अध्ययन यात्रा के दौरान जो देखा व समझा उसे विधिवत कागजों में दर्ज किया। उसने लिखा कि यह राज्य व्यापार व उद्योग के लिहाज से काफी उन्नत व समृद्ध था। हर्षवर्धन के साम्राज्य के विघटन के बाद भी हरियाणा प्रगति मार्ग पर बढ़ता रहा। पिहोवा के अभिलेख सूचित करते हैं कि आठवीं- नौवी सदी में हरियाणा गुर्जर प्रतिहार वंश के साम्राज्य का हिस्सा रहा और उसके बाद, उस अनंगपाल तोमर के राज्य का हिस्सा, जिसने दिल्ली शहर की स्थापना की थी।
सन् 1192 में अफगान हमलावर मौहम्मद गौरी के हाथों हुई पृथ्वीराज चौहान की पराजय ने हरियाणा के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत की जिससे अगले 600 वर्षों तक न केवल हरियाणा अपितु भारत के इतिहास की ही तस्वीर बदल गयी। इन छः सौ वर्षों में 1206 से 1526 तक 'दिल्ली सल्तनत का राज कायम रहा जिसमें 1206 से 1290 तक मामलुक वंश, 1290 से 1320 तक खिलजी वंश, 1320 से 1414 तक तुगलक वंश, 1414 से 1451 तक सईद वंश और 1451 से 1526 तक लोधी वंश का शासन रहा। 1206 में स्थापित दिल्ली सल्तनत असल में मुस्लिम शासन न होकर 'तुर्की राज' था क्योंकि इस दौर में दिल्ली सल्तनत के बादशाहों ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों के साथ भी भेदभावपूर्ण व्यवहार किया, उन्हें ऊंचे प्रशासनिक पदों से हटा दिया गया।
हिन्दुओं की अपेक्षा भारतीय मुसलमानों को तरजीह तो दी गयी लेकिन शासन का वास्तविक नियंत्रण तुर्की मूल के सैनिक अफसरों के हाथों में था। सल्तनत राज के दौरान ही 1398 में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया। तैमूर भारत पर राज करने के मक़सद से नहीं आया था, उसका मकसद हिंदुस्तान की दौलत लूटना था। वह हिंदुस्तान की धरती पर लगभग एक साल ही रहा और इस एक साल की अवधि में से उसने एक महीना हरियाणा में भी रहकर उत्पात मचाया लेकिन हरियाणा के बहादुर लोगों ने उस आततायी को जमकर टक्कर दी।
हरियाणा का नाम सामने आते ही पानीपत के तीनों युद्धों का भी जिक्र आ ही जाता है। मुगल साम्राज्य (1526-1857) के दौरान पानीपत में लड़े गए तीन युद्धों (1526,1556 व 1761) ने हरियाणा को भारत के इतिहास में एक खास मुकाम दिया है।
महाभारत काल में 'कुरुक्षेत्र' और आधुनिक काल में 'पानीपत' के ऐतिहासिक युद्धों ने हरियाणा को 'भारत के युद्धस्थल' में ही तब्दील कर दिया वहीं पानीपत की नवम्बर 1556 में हुई दूसरी लड़ाई में तो रेवाड़ी के हेमू, जो कालान्तर में हेमचन्द्र विक्रमादित्य नाम से ख्यात हुए और जिनकी गिनती उस दौर के महानतम सेनापतियों में होती थी। हेमू ने अकबर की सेनाओं के छक्के छुड़ा दिए थे, भले ही युद्ध अकबर की सेना ने जीता हो लेकिन इस युद्ध से पहले हेमू इसी साल फरवरी महीने में दिल्ली की जंग में अकबर की सेना को धूल चटाकर दिल्ली पर कब्ता कर चुके थे। जिस तरह बाबर राणा सांगा से डरता था, उसी तरह अकबर भी हेमू से भय खाता था ।
अकबर के 49 साल के शासन (1556-1605) के बाद उसके बेटे जहाँगीर और पोते शाहजहां ने क्रमशः 22 व 31 साल तक गद्दी संभाली और इसके बाद औरंगजेब ने 49 सालों तक हिंदुस्तान पर राज किया। अकबर और औरंगजेब का शासन समय- अवधि की दृष्टि से तो बराबर रहा लेकिन औरंगजेब धार्मिक कट्टरता के चलते आम जनता में अलोकप्रिय रहा। उसकी दमनकारी नीतियों का खामयाजा हरियाणा के लोगों को भी भुगतना पड़ा। 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद से मुगल साम्राज्य दरकना शुरू हो गया।
हरियाणा आंगन में हुए पानीपत के तीन युद्धों के विषय में तो लोगों को काफ़ी जानकारी है लेकिन 1739 में करनाल में हुई लड़ाई के बारे में अपेक्षाकृत कम पता है। यह युद्ध मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह व नादिरशाह के बीच हुआ। युद्ध में फ़तेह हासिल कर ईरानी लुटेरे नादिर शाह ने मुगल सम्राट द्वारा शासित काबुल कंधार प्रदेश पर अधिकार कर लिया। नादिरशाह ने दिल्ली पहुंचकर जमकर लूटपाट ही नहीं कि बल्कि बड़े पैमाने पर नरसंहार भी किया।
नादिरशाह के हमले के बाद दिल्ली और आसपास का इलाक़ा लुटेरों की सैरगाह बन गया। नतीजतन लोगों को बेहद बुरे और तकलीफ़देह दिनों का सामना करना पड़ा। मराठों और अफगानों के लूटपाट के सिलसिले के क्रम में अठारहवीं सदी के मध्य में यह इलाका सिखों, रोहिल्ला सरदारों व विदेशी लुटेरों की लूटपाट का केंद्र बना रहा।
वस्तुतः पानीपत की तीसरी लड़ाई से भी हरियाणा के लोगों का भाग्य तय नहीं हुआ था। हालांकि मराठे नरम पड़ चुके थे लेकिन हरियाणा के नए दावेदार मसलन जाट, सिख, रोहिल्ला, मराठा व फिरंगी आपसी प्रतिद्वंदिता तथा संघर्ष में संलग्न रहे।
1761 को शुरुआत में ही अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली और उससे सटे हरियाणवी इलाके में ढाई महीने तक जमकर लूट-पाट का तांडव किया और जब वह 20 मार्च 1761 को यहा से गया तो उसने नजीब-उद-दुआला को दिल्ली का शासक नियुक्त कर दिया और उसे दक्षिणी हरियाणा (पानीपत तक) का राज सौंप दिया। सरहिंद के गवर्नर जैन खान को उसने उत्तरी हरियाणा का हिस्सा, जिसमें करनाल, थानेसर, अम्बाला और जींद जिले शामिल थे, सौंप दिया।
हरियाणा का शेष भू-भाग मुगल साम्राज्य के अधीन रहा। यधपि, अब्दाली ने शाह आलम को मुगल बादशाह, इमाद उल-दुआला को वजीर और नजीब-उद-दुआला को मीर बख्शी मान लिया था तथापि 1761 से 1770 तक असल में नादिरशाह ही शासक था। (साभार: पॉलिटिक्स आफ चौधर)
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