राज कुमार सिंह का लेख : मिशन-2024 की राह में चुनौतियां अनेक

जिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सत्ता को सेमी फाइनल कहे जा रहे थे, उनके परिणामों ने फाइनल की तस्वीर स्पष्ट की है, पर राह आसान होगी, ऐसा नहीं कह सकते। पांचों राज्यों के मतदाता स्पष्ट जनादेश के लिए प्रशंसा के पात्र हैं, इससे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर संकेत मिल रहे हैं। यह टिप्पणी कुछ आश्चर्यजनक लग सकती है, क्योंकि खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा ने कांग्रेस को कारारी चुनावी शिकस्त दी है। पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा से इन तीनों राज्यों की सत्ता छीन लेने वाली कांग्रेस इस बार कड़ा मुकाबला भी नहीं कर पाई। ऐसे में तीन बड़े राज्यों के मतदाताओं का मूड अगले लोकसभा चुनाव की पहेली सुलझाने में मददगार होना चाहिए। ऐसा अकसर होता भी है, अगर चुनाव बहुत दूर न हों।
अगले लोकसभा चुनाव बमुश्किल पांच महीने दूर हैं। फिर भी इन तीनों राज्यों के मतदाताओं का मूड भाजपा की चिंताएं दूर नहीं करता तो इसलिए कि पिछले लोकसभा चुनाव में वह यहां अपना लगभग सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है। बेशक किसान आंदोलन के मुद्दे पर नागौर सांसद हनुमान बैनीवाल की पार्टी रालोपा एनडीए छोड़ गई, पर उसके साथ मिलकर भाजपा ने राजस्थान की सभी 25 लोकसभा सीटें जीती थीं। 24 उसके अपने हिस्से में आई थीं। तब एनडीए को 60 प्रतिशत से ज्यादा और खुद भाजपा को 58 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले थे। उससे बेहतर प्रदर्शन अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा क्या कर सकती है?
मध्य प्रदेश में भी राज्य की सत्ता हार जाने के चंद महीने बाद भाजपा ने 58 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करते हुए 29 में से 28 लोकसभा सीटें जीत ली थीं। कांग्रेस तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ के बेटे नकुल की छिंदवाड़ा सीट ही जीत पाई थी। इसी तरह छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा में मात्र 15 सीटों पर सिमट कर 15 साल पुरानी सत्ता गंवा देने वाली भाजपा लोकसभा चुनाव में 11 में से नौ सीटें जीत गई थी। जाहिर है, इन तीन राज्यों की 65 लोकसभा सीटों में से 61 अकेले दम भाजपा के पास हैं।
प्रदर्शन दोहराने की चुनौती
क्या इससे बेहतर चुनावी प्रदर्शन किया जा सकता है? राजनीतिक समझ और हाल के विधानसभा चुनाव परिणाम कहते हैं कि भाजपा के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव परिणाम की पुनरावृत्ति चुनौतीपूर्ण होगी। पिछले लोकसभा चुनाव की तरह भाजपा ने हाल के विधानसभा चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर लड़े, पर परिणाम वैसे एकतरफा नहीं आए। दरअसल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही नहीं, हिंदी पट्टी के सभी राज्यों में भाजपा पिछले लोकसभा चुनाव में अपना कमोवेश सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुकी है, जिसमें गिरावट से बचना ही अगले लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती होगी।
मसलन, 80 लोकसभा सीटों वाले सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के चलते ही भाजपा की सीटें फिसल कर 62 पर आ गई थीं। एनडीए सहयोगी अपना दल के साथ मिलकर यह आंकड़ा 64 पर पहुंच गया। तब एनडीए को 50 प्रतिशत से कुछ ही ज्यादा और अकेले भाजपा को 50 प्रतिशत से कम वोट मिले थे। मोदी-योगी की लोकप्रियता में कमी का कोई संकेत नहीं मिलता, लेकिन उत्तर प्रदेश-बिहार सरीखे जातीय अस्मिता की मुखर राजनीति वाले राज्यों में अगर सामाजिक समीकरण के अनुरूप राजनीतिक समीकरण बन जाएं तो पासा पलटने में देर नहीं लगती। अगर रणनीति अथवा राजनीतिक बाध्यता के चलते ही सपा-रालोद गठबंधन में बसपा और कांग्रेस भी आ गए, तब क्या होगा?
40 सीटों वाले बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जदयू, एनडीए में था और 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोटों के साथ गठबंधन को 39 सीटें मिली थीं। भाजपा और जदयू , दोनों ही 17-17 सीटें जीतने में सफल रहे थे, पर अब जबकि जदयू, राजद, कांग्रेस और वाम दलों के साथ महागठबंधन का हिस्सा हैं, भाजपा पासवान चाचा-भतीजा या उपेंद्र कुशवाहा-जीतन राम मांझी को साथ लेकर उस प्रदर्शन की पुनरावृत्ति करना चुनौती होगी। हरियाणा की सभी 10 और दिल्ली की सभी सात सीटें भी लोकसभा में भाजपा के पास हैं। उत्तर भारत की तरह पश्चिम भारत में भी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। गुजरात में वह अकेले दम पर सभी 26 सीटें जीतने में सफल रही थी, जबकि 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन में एनडीए 41 सीटों पर कब्जा करने में सफल रहा था। भाजपा के हिस्से 23 और शिवसेना के हिस्से 18 सीटें आई थीं। अब जबकि शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के साथ एमवीए बना चुकी है, शिवसेना और एनसीपी में विभाजन के बाद भाजपा के साथ आने के बाद नए राजनीतिक समीकरण में महाराष्ट्र में भाजपा को नई कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। गोवा की भी दोनों सीटें पिछली बार भाजपा जीतने ऐसे में सफल रही थी। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि उत्तर ही नहीं, पश्चिम भारत में भी, जहां भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था, वहां सीटें बरकरार रखना भाजपा के लिए कठिन चुनौती ही होगी।
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन वाले राज्यों की सूची में दक्षिणी राज्य कर्नाटक को भी शामिल कर सकते हैं, जहां 2018 के विधानसभा चुनाव में बहुमत से पिछड़ जाने के बावजूद भाजपा 28 में 25 अकेले दम और एनडीए के रूप में 26 सीटें जीतने में सफल रही थी। वहां इसी साल मई में विधानसभा चुनाव में, मोदी के तूफानी प्रचार के बावजूद, कांग्रेस ने जैसे शानदार बहुमत से जीत हासिल की है, उस प्रदर्शन की पुनरावृत्ति की खुशफहमी भाजपा को शायद ही होगी। यही कारण है कि विधानसभा चुनाव के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के जिस जनता दल सेक्यूलर पर तरह-तरह के आरोप लगाये गये, उसी से अब गठबंधन हो चुका है। कर्नाटक में भाजपा को अपनी साख बचानी होगी।
जीत की रणनीति
दरअसल सही गठबंधन ही अगले लोकसभा चुनाव के लिए किसी भी रणनीति की सफलता की सबसे बड़ी कसौटी बनता दिख रहा है। यही कारण है कि इसी साल जहां 26 विपक्षी दलों ने मिल कर इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव एलायंस (इंडिया) बनाया तो भाजपा ने भी एनडीए को पुनर्जीवन देते हुए उसका भारी-भरकम विस्तार किया। दक्षिण भारत में कांग्रेस ने जिस तरह पहले कर्नाटक और अब तेलंगाना की सत्ता हासिल कर ली है, वह भाजपा के लिए चुनावी चुनौती बढ़ाने वाली है, पर शायद इसी से नई राह भी निकलेगी। कर्नाटक में कांग्रेस अकेले दम जीत गई तो जनता दल सेक्यूलर के पास भी भाजपा से हाथ मिलाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा। तेलंगाना में वैसी ही स्थिति सत्ता गंवाने वाले केसीआर की पार्टी बीआरएस के समक्ष नजर आती है, यानी भाजपा को दक्षिण में एक और दोस्त मिल सकता है। तेलंगाना में सरकार बनाने के दावे तो भाजपा के चुनावी दावे ही थे, पर वोट प्रतिशत और सीटें बढ़ना उसके लिए उत्साहवर्धक है। पिछली बार भी भाजपा चार लोकसभा सीटें जीतने में सफल रही थी। अब अगर बीआरएस से समझौता हो गया तो दोनों मिलकर 17 सीटों वाले तेलंगाना में सत्तारूढ़ कांग्रेस को कड़ी टक्कर तो दे ही पायेंगे। भाजपा की कोशिश होगी कि 25 सीटों वाले आंध्र प्रदेश में भी उसे सत्तारूढ़ वाईएसआरसीपी या फिर चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी का साथ मिल जाए। पिछले चुनाव में वहां 49 प्रतिशत वोट के साथ वाईएसआरसीपी ने 22 और 39 प्रतिशत से कुछ ज्यादा वोट के साथ टीडीपी ने तीन सीटें जीती थीं, जबकि एक प्रतिशत से कुछ ज्यादा वोट पाने वाली कांग्रेस और एक प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाली भाजपा का खाता भी नहीं खुला था। हालांकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस कमजोर है और भाजपा के लिए गठबंधन के द्वार खुले हैं।
विपक्ष में विश्वास का संकट
कहना नहीं होगा कि पिछली बार अकेले दम 303 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार उससे अधिक सीटें जीतना चाहती है और इसके लिए अपने राजग गठबंधन को और मजबूत करने पर जोर दे रही है। उसे टक्कर देने की विपक्षी रणनीति का आधार भी गठबंधन ही है। कांग्रेस इंडिया गठबंधन को मजबूत कर सत्ता का सपना देख रही है। 1977 और 1989 के चुनाव परिणाम बताते हैं कि मजबूत सत्तारूढ़ दल को भी उसके विरुद्ध हर सीट पर एक साझा उम्मीदवार उतार कर मात दी जा सकती है, पर हाल के विधानसभ चुनावों में विपक्षी गठबंधन में बढ़ी तल्खियों से उस प्रयोग पर सवालिया निशान लगता नजर आया। इंडिया गठबंधन के तौर पर अभी उतना परिपक्व नहीं है, जितना राजग। विपक्ष का इंडिया गठबंधन नेता, एकजुटता और मुद्दों से जूझ रहा है। विपक्ष के सामने संकट यह भी है कि लगातार तीसरा लोकसभा चुनाव अगर हार गया तो वह राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक बनने के भय से ग्रसित हो जाएगा। अभी बिना गठबंधन के विपक्ष भाजपा को चुनौती दे पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन वह एकजुटता के संकट से गुजर रहा है। विपक्ष की सफलता की संभावनाएं सिर्फ दल मिलने पर नहीं, दिल मिलने पर निर्भर करेंगी, क्योंकि उत्तर और पश्चिम भारत में भाजपा के विरुद्ध साझा उम्मीदवार उतारे बिना बात नहीं बनेगी। इसके उलट भाजपा व राजग दोनों एकजुट है, उसके पास मोदी जैसे नेता है और समावेशी विकास के एजेंडे हैं, और अब इस विस चुनाव में जीत का सेंटिमेंट है।
(लेखक- राज कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने निजी विचार हैं)
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