Monday Special : तब सर्दी से बचाती थी रेजे की रजाई, जानिये 30-40 साल पहले कैसे होते थे Winter Clothes

Monday Special : तब सर्दी से बचाती थी रेजे की रजाई, जानिये 30-40 साल पहले कैसे होते थे Winter Clothes
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Monday Special : तब सर्दी में रेजे से बने कपड़े पहनते थे बुजुर्ग, खडि्डयों पर हाथ से तैयार किया जाता था रेजा व सूत, फैक्ट्रियों में कंबल बनने से हथकरघा उद्योग पर पड़ी मार, रेजे की रजाई का जमाना गया, जयपुरी रजाई व इंपोर्टेड कंबल बने लोगों की पसंद।

राज कुमार बड़ाला

Monday Special : सर्दी का मौसम हो और रजाई का जिक्र न हो ऐसा हो नहीं सकता। ठंड में रजाई ही एक ऐसा साधन है जो रात को हमें गर्म रखती है। भले ही अब भिन्न भिन्न प्रकार की रजाइयां बाजार में मिल रही हैं, लेकिन असल में रजाई रेजे की ही होती है। रेजे की रजाई जहां सर्दी को रोकने में कारगर होती है, वहीं यह शरीर के लिए भी ठीक रहती है। सर्दी कितनी भी अधिक हो, रेजे की रजाई ओढ़ ली जाए तो शरीर को ठंड नहीं लगने देती। हमारे बुजुर्ग सर्दियों में रेजे से बने वस्त्र पहनते थे। रेजे की रजाई, सूती खेस और ऊनी कंबल ओढ़ते थे। सूत से बने खेस, ऊन के कंबल और रेजे की रजाइयां खासकर गांव देहात के लोगों की पहली पसंद होती थी, लेकिन अब रेजे की रजाइयां आऊटडेटिड हो गई हैं।

रेजे की रजाइयां अब बहुत ही कम घरों में मिलती हैं। रेजे की रजाइयां गुणवत्ता के लिहाज से बहुत ही अच्छी होती थी मगर वे वजन में थोड़ी भारी होती थी, इसलिए अब हल्की रजाइयां प्रचलन में आ गई हैं। अब हल्के कंबल व जयपुरी रजाइयां लोगों की पहली पसंद बन गए हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब रजाई हरियाणवी संस्कृति के सामान को दर्शाने वाली प्रदर्शनियों में ही देखने को मिलेगी, क्योंकि अब हर घर में रजाई की जगह कंबलों ने ले ली है। रजाइयां भरने का काम करने वाली पेचड़ियों पर भी रजाई भरवाने के लिए लोग कम ही पहुंच रहे हैं। यदि इक्का दुक्का कोई रजाई में रूई भरवाने के लिए आता है तो वह भी कॉटन की रजाई ही लेकर आता है। रजाई भरने और खड्डी पर रेजे की रजाई बनाने का कारोबार अब आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है। पहले हमारे घरों में सर्दी के मौसम में ठंड से बचने के लिए रेजे के वस्त्र ही प्रयोग किए जाते थे। क्योंकि रेजे के वस्त्र काफी गर्म होते थे।

दोहर और खेस का प्रयोग

सभी घरों में रेजे से बनी रजाइयां, दुशाला, दुबला, दोहर और खेस होते थे। सर्दियों में महिलाएं शॉल की जगह पर रेजे से तैयार किए गए रंगीन व फुलकारी कढ़े हुए दुबले और दुशाले ओढ़ती थी, जबकि पुरुष चादर की जगह पर रेजे से बने दोहर और खेस ओढ़ते थे। अब दुबले, दुशाले और दोहर प्रचलन से बिल्कुल बाहर हो गए हैं, इसलिए इनके बारे में नई पीढ़ी को कुछ भी पता नहीं है। ये चीजें अब ढ़ूंढने से भी नहीं मिलती। पहले कड़ाके की ठंड में रेजे से बनी रजाइयां गर्मी का अहसास कराती थी। रेजे से बने रजाई, दुशाला, दुबला, दोहर व खेस गर्म तो होते ही थे, साथ ही भारी व मजबूत होते थे, जो सालों-साल चलते थे, लेकिन प्रदेश में देसी कपास का उत्पादन कम हो जाने से रेजे से बने इन वस्त्रों की जगह दूसरी तरह के वस्त्रों ने ले ली है। अब किसान खेतों में देसी कपास नहीं उगाते। क्योंकि देसी कपास का प्रति एकड़ उत्पादन कम होता है और वह सस्ती भी होती थी। अमेरिकन कपास के हाइब्रिड बीज आने के बाद नरमा का उत्पादन बढ़ गया। इस वैरायटी का प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होता है और देसी कपास से महंगी भी होती है, इसलिए किसानों ने देसी कपास उगाना बंद कर दिया है। इक्का-दुक्का किसान ही अब देसी कपास उगाते हैं। जयपुरी रजाइयों को बनाने में सर्जिकल कॉटन और फाइबर का इस्तेमाल किया जाता है। इससे रजाइयां हल्की हो जाती हैं। इन कॉटन की खासियत यह है कि इन में हवा अंदर नहीं जा पाती है।


बच्चों के लिए स्पेशल

हमारे देश में बच्चों पर हमेशा से ही खास ध्यान दिया जाता रहा है। बच्चों को सर्दी से बचाने के लिए विशेष प्रकार के कपड़े बनाए जाते थे, जिनमें बच्चे आरामपूर्वक काम भी कर सकते थे और सर्दी से भी बच जाते थे। आजकल बच्चों के लिए स्पेशल जयपुरी रजाइयां मिलती हैं। बच्चों को लुभाने के लिए इन पर कार्टून बनाए जाते हैं। कार्टून अलग कलर से बनाए हैं, ताकि दूर से ही दिखाई दें। इनकी कीमत 600 रुपये से स्टार्ट हो जाती है।

ऐसे तैयार होते थे रेजे के वस्त्र

किसान मंडी में कपास बेचने से पहले वस्त्र बनवाने के लिए कुछ देसी कपास घर में रख लेते थे। उस कपास को सर्दी शुरू होने से पहले या सर्दी के मौसम में गांव-गोहांड में बनी पेचड़ियों में ले जाते थे। पेचड़ी में कपास से रूई और बिनौला अलग कर लिया जाता था। कुछ रूई को रेजे से तैयार की गई रजाइयों में भर लेते थे। दो से तीन किलोग्राम रूई एक रजाई में भरी जाती थी। बाकी रूई से महिलाएं चरखे पर सूत तैयार करती थी। सूत को महिलाएं शहरों में स्थित खड्डियों पर दे देती थी, जहां पर रेजे के वस्त्र तैयार किए जाते थे और वहां से बदले में रेजे की रजाइयों के गलेप, खेस, दुसाले, दुबले और दोहर ले आती थी। कुछ कस्बों में आज भी कुछ खड्डियां है, जहां पर हाथ से रेजा तैयार किया जाता है। पुराने जमाने में हरियाणा के अधिकतर शहर व कस्बे खड्डियों का मुख्य केंद्र होते थे। जहां दूर दराज से महिलाएं सूत बदलवाने के लिए आती थी और बदले में रेजे के वस्त्र ले जाती थी। महम खंड के भैणीसुरजन गांव में आज भी रेजे की रजाइयों के गलेप रंगे जाते हैं। इन रेजे के रंगीन गलेप की मांग हालांकि आज कम है, लेकिन कुछ लोग आज भी इन्हें खरीदना पसंद करते हैं। रेजे से तैयार की गई रजाइयां महंगी पड़ती हैं, लेकिन ठंड से बचाने में रेजे की रजाइयों का दूसरी तरह की रजाइयों से कोई मुकाबला नहीं है। दूसरी रजाइयां हल्की व कम गर्म होती हैं।


कैसी होती हैं जयपुरी रजाइयां

आजकल जयपुरी रजाइयों के शौकीन बढ़ रहे हैं। शहरों में सर्दी शुरू होते ही जयपुरी रजाइयों की एक से एक बेहतर कलेक्शन आ जाती है। इन रजाईयों की खासियत यह है कि यह वजन में हल्की हैं और इनकी गर्माहट भी अन्य रजाईयों से अधिक है। इनकी खूबसूरती बढ़ाने के लिए इन पर राजस्थानी वर्क किया जाता है। इसमें सबसे कम वेट की रजाई 450 ग्राम की होती है। एक सिंगल बेड की जयपुरी रजाई का वेट 450 ग्राम है। इनको खूबसूरत बनाने के लिए इन पर मोतियों से वर्क किया जाता है। इसके साथ ही इनको राजस्थानी वर्क से सजाया जाता है। इनकी कीमत 500 रुपये से शुरू होती है। वहीं डबल बेड की रजाईयों की कीमत 2200 रुपये से शुरू हो जाती है।

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