भारत-पाक विभाजन का दर्द : दोस्त बन गए थे खून के प्यासे, दुश्मनों के डर से हिंदुओं ने बेटियों को कुएं में धकेला

हेमंत शर्मा : रेवाड़ी
उम्र के 88 साल पूरे कर चुके श्यामलाल चुघ की आंखों में विभाजन के समय का वह नजारा आज भी मौजूद है, जिसमें बचपन के साथी ही जान के दुश्मन बन चुके थे। जिन लोगों के साथ जामुन के पेड़ के नीचे समय बिताया जाता था, वहीं लोग खून के प्यासे हो चुके थे। उन पर हैवानियत इस कदर हावी हो चुकी थी कि जान बचाने के लिए 4 कोस तक पैदल दौड़ना पड़ा था। दुश्मन हो चुके मुस्लिमों के डर से कई हिंदुओं ने अपनी बेटियों को कुएं में धकेल दिया था।
बंजारवाड़ा निवासी श्यामलाल बताते हैं कि विभाजन से पहले उनके साथ परिवार के सदस्यों की तरह रहने वाले मुस्लिम दोस्त विभाजन के बाद उनकी जान के दुश्मन बन चुके थे। उस समय उनकी उम्र 12 साल की थी। उनकी उम्र के बच्चे भी दिल में दोस्ती की जगह दुश्मनी पाल चुके थे। वह खुद मदरसे में तालीम ग्रहण करते थे। उनके पिता किरयाना की दुकान चलाते थे। परिवार पूरी तरह खुशहाली का जमीन बिता रहा था, परंतु विभाजन के दौर ने उनका सब कुछ बर्बाद कर दिया था। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान के जिला मियांवाली की तहसील बक्सर के कस्बे किराड़ी कोट में उनका, मकान, जमीन व दुकान थे।
उनके पिता जेठानंद चुघ किरयाणा की दुकान चलाते थे। मां मंगोबाई व सभी हिंदू परिवारों ने वहां से निकलने का फैसला लिया, लेकिन मुस्लमानों ने कस्बे को घेर लिया। किसी तरह उन्होंने नंगे पांव करीब 4 किलोमीटर भागकर तहसील बक्सर पहुंचकर अपनी जान बचाई। बक्सर पहुंचकर चौ. धर्मचंद ने सभी हिंदुओं को अपनी हवेली में पनाह दी। वहां भी मुस्लमान हाथों में तलवार लिए गली में घूम रहे थे। वहां से किसी तरह निकलकर वह जिला मियावाली के कैंप में आ गए, लेकिन किसी ने अफवाह फैला दी कि मुसलमान कैंप में आग लगाने वाले हैं और सब हिंदुओं को मारेंगे। क्योंकि वहां पर पाकिस्तानी सेना तैनात थी, लेकिन फिर सूचना आई कि कैंप में भारतीय सेना पहुंच रही है जो सभी हिंदुओं को वहां से निकालकर हिंदुस्तान भेजेगी। तब जाकर उनके जान में जान आई। सेना ने सभी हिंदुओं को मालगाड़ी में बैठा दिया। खुली मालगाड़ी में घूप, गर्मी, भूख व प्यास से सभी ने बहुत कष्ट झेले। मालगाड़ी ने सभी को जालंधर स्टेशन पर छोड़ दिया जहां संगठनों ने लंगर की व्यवस्था की हुई थी।
दुश्मनों के डर से लड़कियों को कुएं में धकेला
विभाजन के गदर के समय मुसलमानों ने चारों तरफ लूट-खसौट व मारकाट मचाई हुई थी। सभी हिंदू जान बचाकर भाग रहे थे। श्याम चुग ने बताया कि मुसालमान हिंदुओं की लड़कियों को भी उठाकर ले जा रहे थे। कई हिंदु परिवारों ने अपनी लड़कियों को उपद्रवियों के कहर से बचाने के लिए कुंओं में धक्का तक दे दिया तथा काफी जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर वहां से भागे।
कुरूक्षेत्र कैंप में 6 महीने तंबुओं में रहे
जालंधर से सेना ने उनको कुरूक्षेत्र के कैंप में छोड़ दिया। कैंप में अलग-अलग तंबू लगाकर परिवारों को ठहराया हुआ था। दूसरे दिन उनके पिताजी भी कैंप में पहुंच गए तथा भाई भी आ गए। करीब 6 महीनें कैंप में रहने के बाद उनको अंबाला के साढौरा व नूंह में जगह अलाट हुई, लेकिन अंबाला में व्यवस्था नहीं बनी और नूंह में मुसलमानों के डर से वो वहां गए ही नहीं, जिसके बाद रेवाड़ी में रहने वाले श्याम चुग केमामा गोदाराम मेहंदीरत्ता ने उनको अपने पास बुला लिया और वह चौधरीवाड़ा में किराए के मकान में रहने लगे।
साइकिल पर कपड़े बेचकर किया गुजारा
श्याम चुग ने बताया कि उनके पिता, भाई व मामा रेवाड़ी के गांवों में साइकिल पर कपड़े बेचने जाते थे, जिससे घर का गुजारा चलता था। उसके बाद उन्होंेने 1952 में सट्टा बाजार में किरयाणा की दुकान शुरू की तथा उन्होंने अपनी पढ़ाई शुरू की। 1957 में उन्होंने जैन हाई स्कूल से मैट्रिक तथा उसके बाद 2 साल अहीर कॉलेज से एफए (इंटर) की पढ़ाई की। 1960 में उनके उनके पिताजी का देहांत हो जाने पर वह भाई के साथ दुकान संभालने लगे।
परिवार हो चुका संपन्न, पर दर्द वही
वर्ष 1953 में मोहल्ला बजांरवाड़ा में मकान लेने के बाद परिवार पटरी पर आया। 1960 में जाटूसाना निवासी शांति देवी के साथ परिणय सूत्र में बंधने के बाद श्याम सुंदर चुग का आज भरा पूरा परिवार है। उनके 4 लड़के अरूण, विजय, संजय और पवन अपना बिजनेस करते है तथा लड़की की शादी हो चुकी है। उन्होंने बताया कि पाकिस्तान में गाय, भैंस थी। घर की सब्जी व तरबूज मिलते थे। घर के सामने तैय्यब चाचा के घर के बाहर हैंडपंप व जामुन का पेड़ था। वहीं पेड़ की छांव में जामुन खाते हुए खेला करते थे।
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