परिनिर्वाण दिवस : समतामूलक समाज के प्रखर पैरोकार थे डा. भीमराव आंबेडकर

अरविंद जयतिलक
राष्ट्रवाद के मोर्चे पर डा. भीमराव आंबेडकर बेहद मुखर थे। उन्होंने विभाजनकारी राजनीति के लिए मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग दोनों की कटु आलोचना की। हालांकि शुरुआत में उन्होंने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया किंतु बाद में मान गए। इसके पीछे उनका तर्क था कि हिंदुओं और मुसलमानों को पृथक कर देना चाहिए क्योंकि एक ही देश का नेतृत्व करने के लिए जातीय राष्ट्रवाद के चलते देश के भीतर और अधिक हिंसा होगी। वे कतई नहीं चाहते थे कि भारत स्वतंत्रता के बाद हर रोज रक्त से लथपथ हो। वे हिंसामुक्त समानता पर आधारित समाज के पैरोकार थे। उनकी सामाजिक व राजनीतिक सुधारक की विरासत का आधुनिक भारत पर गहरा प्रभाव पड़ा। यहीं वह कारण है कि मौजूदा दौर में सभी राजनीतिक दल चाहे उनकी विचारधारा और सिद्धांत कितनी ही भिन्न क्यों न हो, सभी आंबेडकर की सामाजिक व राजनीतिक सोच को आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं। उनके राजनीतिक-सामाजिक दर्शन के कारण ही आज दलित समुदाय में चेतना, शिक्षा को लेकर सकारात्मक समझ पैदा हुआ है। बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ भी अस्तित्व में आए हैं जो समाज को मजबूती दे रहे हैं।
डा. आंबेडकर समानता के सच्चे पैरोकार थे। हालांकि उन्हें जब भारत सरकार अधिनियम 1919 तैयार कर रही साउथबोरोह समिति के समक्ष गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने सुनवाई के दौरान दलितों एंव अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण की मांग की। तब उनकी इस इस मांग की तीव्र आलोचना हुई और उन पर आरोप लगा कि वे भारतीय राष्ट्र एवं समाज की एकता को खंडित करना चाहते हैं। पर सच तो यह है उनका इस तरह का कोई उद्देश्य नहीं था। उनका असल मकसद इस मांग के जरिए ऐसे रूढि़वादी हिंदू राजनेताओं को सतर्क करना था जो जातीय भेदभाव से लड़ने के प्रति गंभीर नहीं थे। इंग्लैंड से लौटने के बाद जब उन्होंने भारत की धरती पर कदम रखा तो समाज में छुआछूत और जातिवाद चरम पर था। उन्हें लगा कि यह सामाजिक कुप्रवृत्ति और खंडित समाज देश को कई हिस्सों में तोड़ देगा। सो उन्होंने हाशिए पर खड़े अनुसूचित जाति-जनजाति एवं दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग कर परोक्ष रुप से समाज को जोड़ने की दिशा में पहल तेज की। अपनी आवाज को जन-जन तक पहुंचाने के लिए 1920 में, बंबई में साप्ताहिक मूकनायक के प्रकाशन की शुरुआत की, जो शीध्र ही पाठकों में लोकप्रिय हो गया। दलित वर्ग के एक सम्मेलन के दौरान दिए गए उनके भाषण से कोल्हापुर राज्य का स्थानीय शासक शाहु चतुर्थ बेहद प्रभावित हुआ और डा. आंबेडकर के साथ उसका भोजन करना रूढि़वाद से ग्रस्त भारतीय समाज को झकझोर दिया। आंबेडकर मुख्यधारा के महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों को जाति व्यवस्था के उन्मूलन के प्रति नरमी पर वार करते हुए उन नेताओं की भी कटु आलोचना की जो अस्पृश्य समुदाय को एक मानव के बजाए करुणा की वस्तु के रुप में देखते थे।
ब्रिटिश हुकूमत की विफलताओं से नाराज आंबेडकर ने अस्पृश्य समुदाय को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए एक ऐसी अलग राजनैतिक पहचान की वकालत की जिसमें कांग्रेस और ब्रिटिश दोनों का कोई दखल न हो। 8 अगस्त 1930 को उन्होंने एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखा और कहा कि 'हमें अपना रास्ता स्वयं बनाना होगा व स्वयं राजनीतिक शक्ति शोषितों की समस्याओं का निवारण नहीं हो सकती। उनको शिक्षित करना चाहिए, उनका उद्धार समाज में उनका उचित स्थान पाने में निहित है। उनको अपना रहने का बुरा तरीका बदलना होगा। उनको शिक्षित होना चाहिए। एक आवश्यकता उनकी हीनता की भावना को झकझोरने और उनके अंदर दैवीय असंतोष की स्थापना करने की है, जो सभी ऊंचाइयों का स्रोत है। इस भाषण में आंबेडकर ने कांग्रेस की नीतियों की जमकर आलोचना की।
आंबेडकर ही एकमात्र राजनेता थे जो छुआछूत की निंदा करते थे। जब 1932 में ब्रिटिश हुकूमत ने उनके साथ सहमति व्यक्त करते हुए अछूतों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा की तब महात्मा गांधी ने इसके विरोध में पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। यह आंबेडकर का प्रभाव ही था कि गांधी ने अनशन के जरिए रूढि़वादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने की अपील की। हिंदू नेताओं, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं तथा पंडित मदन मोहन मालवीय ने आंबेडकर और उनके समर्थकों के साथ यरवदा में संयुक्त बैठकें कीं। अनशन के कारण गांधी की मृत्यु होने की स्थिति में, होने वाले सामाजिक प्रतिशोध के कारण होने वाली अछूतों की हत्याओं के डर से और गांधी के समर्थकों के भारी दबाव के चलते आंबेडकर ने अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली। इसके बदले में अछूतों को सीटों के आरक्षण, मंदिरों में प्रवेश-पूजा के अधिकार एवं छुआछूत समाप्त करने की बात स्वीकार ली गयी। गांधी ने भी इस उम्मीद पर कि सभी सवर्ण भी पूना संधि का आदर कर सभी शर्तें मान लेंगे अपना अनशन समाप्त कर दिया। आंबेडकर जातिवादी व्यवस्था के धुर विरोधी थे।
आंबेडकर चाहते थे कि अछूतों को कम से कम 20-25 साल आरक्षण मिले जबकि कांग्रेस के नेता इसके पक्ष में नहीं थे। अस्पृश्यता के खिलाफ आंबेडकर की लड़ाई को भारत भर से समर्थन मिलने लगा और उन्होंने अपने रवैया और विचारों को रुढि़वादी हिंदुओं के प्रति अत्यधिक कठोर कर लिया। भारतीय समाज की रूढि़वादिता से नाराज होकर उन्होंने नासिक के निकट येओला में एक सम्मेलन में बोलते हुए धर्म परिवर्तन करने की अपनी इच्छा प्रकट कर दी। 14 अक्टुबर 1956 को उन्होंने एक आमसभा का आयोजन किया जहां उन्होंने अपने पांच लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। तब उन्होंने कहा कि मैं उस धर्म को पसंद करता हूं जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का भाव सिखाता है। डा. आंबेडकर इस्लाम और दक्षिण एशिया में उसकी रीतियों के भी बड़े आलोचक थे। वे मुस्लिमों में व्याप्त बाल विवाह की प्रथा और महिलाओं के साथ होने वाले दुर्व्यवहार के भी आलोचक थे। उन्होंने मुसलमानों द्वारा अर्जल वर्गों के खिलाफ भेदभाव जिन्हें निचले दर्जे का माना जाता था, के साथ मुस्लिम समाज में महिलाओं के उत्पीड़न की दमनकारी पर्दा प्रथा की निंदा की। वे स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम में उस कट्टरता की भी आलोचना की जिसके कारण इस्लाम की नीतियों का अक्षरशः अनुपालन की बद्धता के कारण समाज बहुत कट्टर हो गया है। उन्होंने लिखा कि भारतीय मुसलमान अपने समाज का सुधार करने में विफल रहे हैं। भारत में एक जातिविहीन समतामूलक समाज की स्थापना का डा. आंबेडकर का स्वप्न आज भी शेष है।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )
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