Pollution : ईंट भट्टों से हवा में घुल रहा जहर, गीले ईंधन का इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए बना खतरा...

नरेन्द्र वत्स. रेवाड़ी। ईंट भट्टों से निकलने वाला धुआं इनके आसपास के गांवों में लोगों के स्वास्थ्य (Health) के लिए खतरा बना हुआ है। भट्टों पर प्रदूषण (pollution) के मानकों की कोई परवाह नहीं की जा रही, जिस कारण सुबह और शाम के समय इनसे धुआं के गुब्बार उठते साफ नजर आते हैं। कई गांवों के लोग प्रशासन से इस बात की शिकायत भी कर चुके हैं, परंतु स्पष्ट गाइडलाइंस (Guidelines) के अभाव में प्रदूषण फैलाने वाले भट्टों के खिलाफ एक्शन नहीं लिया जा रहा है।
कोयला महंगा होने और इसकी उपलब्धता काफी कम होने के कारण भट्टा संचालक ईंट पकाने के लिए इसके विकल्प के रूप में फसलों के अवशेषों का इस्तेमाल ज्यादा करने लगे हैं। जिले में इस समय 90 के आसपास ईंट भट्टों का संचालन हो रहा है। भाड़ावास रोड, बेरली रोड, महेंद्रगढ़ व नारनौल रोड पर ईंट भट्टों की संख्या सबसे अधिक है। एनजीटी के आदेशानुसार एनसीआर में ईंट भट्टों के संचालन को 15 जून तक की छूट दी हुई है। इन भट्टों का संचालन 1 अप्रैल से ही शुरू हुआ है।
कई ईंट भट्टा मालिक पर्यावरण के खतरे को भांपते हुए ऐसे ईंधन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिससे धुआं कम से कम होता है। इसके विपरीत कई भट्टा संचालक नियमों को ताक पर रखकर धुआं छोड़ने वाले ईंधन का इस्तेमाल करते हैं। ऐसा ईंधन भट्टा मालिकों के लिए सस्ता पड़ता है। कुछ ईंट भट्टा मालिक तो टायरों और दूसरे ज्वलनशील पदार्थों का इस्तेमाल भी करते हैं। ऐसे भट्टों से शाम के समय आसमान में धुआं ही धुआं एकत्रित हो जाता है। यह धुआं हवा में जहर बनकर घुल रहा है।
चुनिंदा भट्टों से धुआं ज्यादा
भट्टे चलाने की छूट मिलने के बाद ज्यादा भट्टा मालिकों ने ईंट पकाने का कार्य शुरू कर दिया है। जिले में इस समय 90 से अधिक ईंट भट्टों का संचालन हो रहा है। कई ईंट भट्टों से निकलने वाली धुआं का स्तर काफी कम होता है, जबकि कई धुआं के गुब्बार छोड़ रहे हैं। ज्यादा धुआं छोड़ने वाले भट्टे हर हाल में पर्यावरण के लिए खतरा हैं। नारनौल, भाड़ावास व महेंद्रगढ़ मार्ग पर जाडरा के आसपास कुछ भट्टों से घना काला धुआं निकलता है, जो इन भट्टों के आसपास के गांवों के लिए खतरा बना हुआ है। ज्यादा धुआं छोड़ने वाले भट्टों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं ले रहा है।
कोयले का इस्तेमाल काफी कम
कोयले की जगह भट्टा मालिक विकल्प के रूप में सरसों की पराली का इस्तेमाल करते हैं। पराली कोयले से कई गुणा सस्ती होती है। इसकी उपलब्धता भी आसान है, जबकि इस समय कोयला काफी महंगा हो चुका है। भट्टा मालिकों का तर्क है कि उनके पास पराली का कोई विकल्प नहीं है। वह प्रदूषण का स्तर खुद जांच करा चुके हैं। इसमें यह बात साबित हो चुकी है कि पराली की ज्वलनशीलता कोयले से करीब 30 फीसदी तक कम है, जिस कारण उससे प्रदूषण भी कोयले की तुलना में कम होता है, परंतु वास्तविकता इससे कोसों दूर नजर आती है।
बरसात ने बढ़ाई परेशानी
ईंट भट्टों पर सरसों की भूसी से लेकर तूड़ी तक जलाने में इस्तेमाल की जा रही है। भूसी या तूड़ी बरसात के कारण गीली हो चुकी है। गीले ईंधन के जलने से धुआं ज्यादा उठता है। इस समय कई भट्टों पर गीले फसल अवशेष जलाए जा रहे हैं, जो भट्टों की चिमनियों से धुआं के गुब्बार छोड़ने का कारण बन रहे हैं। ईंधन को सुखाकर जलाने जैसे इंतजाम भट्टों पर नहीं हैं। सीएनजी या ईंधन के दूसरे विकल्पों पर अभी तक भट्टा मालिक कदम नहीं उठा पाए हैं। आम लोगों की ओर से शिकायतों के बावजूद प्रदूषण फैलाने वाले भट्टों पर कोई एक्शन नहीं लिया जा रहा।
अवैध फ्यूल पर लगा सकते हैं रोक
ईंट भट्टों पर धुआं का कारण गीली भूसी या तूड़ी का इस्तेमाल माना जा रहा है। स्पष्ट निर्देश नहीं होने के कारण ऐसे भट्टों पर एक्शन लेना संभव नहीं है। हम अवैध फ्यूल का इस्तेमाल करने वाले भट्टों पर ही कार्रवाई कर सकते हैं। -हरीश कुमार, एआरओ, एचपीसीबी।
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