PM Modi और योगी आदित्यनाथ का सियासी कद बढ़ा

अवधेश कुमार
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम पर केवल उन्हीं लोगों को हैरत हो सकती है, जिन्होंने जमीनी स्थिति का सही आकलन नहीं किया होगा। राजनीतिक पार्टियों और उनके समर्थकों को भले हैरत में डालने वाले हो निष्पक्ष पर्यवेक्षकों के लिए नहीं। उत्तर प्रदेश की यात्रा करने वाले निष्पक्षता से बात करें तो स्वीकार करेंगे कि पयोगी आदित्यनाथ सरकार और केंद्र सरकार के विरुद्ध सामान्य जन में व्यापक आक्रोश कहीं दिखाई नहीं देता था। सरकार को लेकर जो छोटे-मोटे असंतोष होते हैं वही थे। इस सरकार ने भारी गलती कर दी है और इसे उखाड़ फेंकना है ऐसा वातावरण केवल राजनीतिक और गैर राजनीतिक विरोधियों ने बनाया था। आम मतदाता स्थानीय कारणों से भाजपा को मत न देने की बात करने वाले भी कहते थे कि योगी और मोदी सरकार ठीक है। आम लोगों की इस मानसिकता के रहते किसी सरकार का सत्ता से बाहर हो जाना संभव नहीं है। चुनाव परिणाम कई कारकों पर निर्भर करता है। इसमें स्थानीय उम्मीदवार, सामाजिक समीकरण, राज्य और केंद्र का नेतृत्व, विधायक से लेकर राज्य और केंद्र सरकार के कार्य, समग्र वातावरण, पार्टियों और नेताओं की पहचान तथा उससे जनता का भावनात्मक जुड़ाव या दुराव तथा सत्ता एवं विपक्ष के राजनीतिक दलों द्वारा उठाए गए चुनाव के मुद्दे।
पांचों राज्यों के चुनाव परिणामों का इन सारे कारकों के आलोक में विश्लेषण करें तो सच समझना कठिन नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के ज्यादातर विधायकों के विरुद्ध मतदाताओं के साथ-साथ पार्टी के अंदर भी असंतोष और विरोध था। इससे भाजपा ज्यादातर जगह जूझ रही थी। दूसरी ओर ऐसे मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी थी जो कहते थे कि विधायक हमारा भले नकारा है लेकिन हम योगी और मोदी के नाम पर वोट देंगे। दूसरे, मुख्य विपक्षी यानी सपा ने अपनी चुनाव रणनीति को मूलतः छोटे दलों से गठबंधन व सामाजिक समीकरणों तक सीमित रखा। पूर्व शासनकाल में यादव और मुसलमानों के विरुद्ध कायम असंतोष का ध्यान रखते हुए अखिलेश यादव ने इन्हें कम से कम टिकट दिया। यहां तक कि कई उम्मीदवार घोषित होने के बाद वापस ले लिए गए। इसकी जगह उन्होंने स्थानीय सामाजिक समीकरण का ध्यान रखते हुए ऐसी जाति को टिकट दिया जो मुसलमान एवं यादव के मूल आधार मत में वृद्धि कर सके। इसका असर भी हुआ। इसी से सपा के मतों और सीटों में इतनी भारी वृद्धि हुई है। सपा राज्य स्तर पर योगी सरकार और भाजपा के विरुद्ध ऐसे बड़े मुद्दे नहीं उठा पाई जिससे जनता में असंतोष एवं विरोध प्रबल हो। महंगाई, बेरोजगारी, किसान विरोधी आधी बातें लगभग सभी चुनावों में किसी न किसी रूप में उछलते हैं और इनका जितना औसत असर होता है वही उत्तर प्रदेश में हो रहा था। दूसरी ओर मतदाताओं के बड़े समूह में यह भाव उत्पन्न हो रहा था कि सपा सत्ता में आई तो फिर से मुसलमानों और यादवों का आधिपत्य होगा एवं उनके लिए परेशानियां खड़ी होंगी। हालांकि यादव समुदाय ने पूरे चुनाव में अपना व्यवहार लगभग शालीन और संयमित बनाए रखा। पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों के एक समूह ने रालोद से गठबंधन के कारण अवश्य मत दिया लेकिन 2013 दंगे के मनोवैज्ञानिक प्रभावों से निकलना कठिन था और सुरक्षा की दृष्टि से भाजपा उनकी गारंटी थी। जो भाजपा उम्मीदवार हारे वहां दूसरे समीकरणों ने भी काम किया है।
कृषि कानून विरोधी आंदोलन इस चुनाव में कहीं भी सरकार विरोधी मुद्दे के रूप में नहीं था। हो भी नहीं सकता था क्योंकि आंदोलन में किसी क्षेत्र की जनता की व्यापक स्तर पर भागीदारी थी ही नहीं। भाजपा के लिए हिंदुत्व और उस पर आधारित राष्ट्रीयता का मुद्दा एक प्रबल भाव होता है जिसके तहत अनेक विरोधी कारक कमजोर पड़ जाते हैं। योगी सरकार के विकास कार्य, अपराध के विरुद्ध उनकी प्रखरता तथा समाज के गरीब व वंचित तबकों तक पहुंचाई गई कल्याण योजनाओं के कारण भाजपा के पक्ष में मौन गोलबंदी थी। विपक्ष इन सबको भेदने में सफल नहीं हो सकता था। बसपा की आक्रामक उपस्थिति न होने के कारण उसके मतों का एक हिस्सा सपा की ओर अवश्य गया लेकिन यह भी उतना वोट नहीं जोड़ सका जिससे भाजपा कमजोर हो सके। केंद्र सरकार की कोरोना काल में मुफ्त राशन, आवास, बिजली आदि की योजनाओं ने हर चुनाव में भूमिका निभाया है। इन नतीजों ने मोदी-योगी के कद को बढ़ाया है।
चूंकि पंजाब में भाजपा का अपना व्यापक जनाधार नहीं है इसलिए इस चुनाव में उसके अनुकूल परिणाम आने की संभावना थी नहीं। कांग्रेस से अलग होने के बाद कैप्टन अमरिंदर से कांग्रेस के विरुद्ध राज्यव्यापी तीखे अभियान की अपेक्षा थी लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ किया नहीं। सच कहा जाए तो पंजाब जैसे संवेदनशील प्रदेश में सशक्त विश्वसनीय विकल्प का अभाव तथा राज्य स्तर पर कद्दावर नेताओं की अनुपस्थिति ने राजनीति को ऐसी विकल्पहीन अवस्था में ला दिया जहां उभरती हुई आम आदमी पार्टी ही लोगों के सामने विकल्प के रूप में था।
उत्तराखंड में भाजपा द्वारा नेतृत्व परिवर्तन के कारण समर्थकों में थोड़ी निराशा थी, लेकिन कांग्रेस के प्रति उत्साह और आकर्षण नहीं था। दोनों पार्टियों में अंदरूनी कलह था, लेकिन कांग्रेस केंद्र से राज्य तक नेतृत्वविहीनता की स्थिति में थी। भाजपा के पक्ष में केंद्र सरकार के कार्य तथा नरेंद्र मोदी के रूप में एक सक्षम नेतृत्व उपलब्ध था। उत्तराखंड में कभी दूसरी बार सरकार लगातार सत्ता में नहीं आई। उसने इतना बड़ा बहुमत पाना असाधारण विजय है। गोवा में पिछली बार भी भाजपा ने सरकार अवश्य बनाई लेकिन उसे केवल 14 स्थानों पर विजय मिली थी। तृणमूल कांग्रेस में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री तक चले गए थे। आम आदमी पार्टी भी सक्रिय थी, लेकिन अंततः जनता ने वहां की दो मुख्य पार्टियों में ही विश्वास जताया है। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के बेटे को टिकट से वंचित करने के कारण भाजपा के एक वर्ग के अंदर नाराजगी थी, लेकिन इससे बहुत ज्यादा मत प्रभावित हुआ हो ऐसा नहीं लगता। उत्पल स्वयं चुनाव हार गए। इसका अर्थ क्या है? तो नई पार्टियों को थोड़ा बहुत समर्थन मिलेगा, लेकिन गोवा के लोग नहीं मानते कि ये पार्टियां उनके राज्य की सत्ता उनके अनुकूल चला पाएगी। मणिपुर का चुनाव परिणाम स्पष्ट करता है कि भाजपा केवल वहां की नहीं पूर्वोत्तर की एक प्रमुख शक्ति बन गई है।
कुल मिलाकर इन चुनाव परिणामों का निष्कर्ष यही है कि अपने प्रभाव वाले राज्यों में भाजपा अभी प्रभावी है। विपक्ष में अभी ऐसे नेता एवं पार्टियों का प्रभाव है जो भाजपा के प्रभाव वाले राज्यों में इसे व्यापक चुनौती दे सके। अगर भाजपा नेतृत्व ने भविष्य में बड़ी गलतियां नहीं की तो जब तक उसकी तुलना में इन सभी स्तरों पर बेहतर प्रदर्शन का विश्वास दिलाने वाला नेतृत्व और दल खड़ा नहीं होगा इन स्थानों में उसे कमजोर करना संभव नहीं होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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