पराली की गांठ बनाकर बेचें किसान, मिलेगा अनुदान

हरिभूमि न्यूज. जींद
धान की फसल पकने की तरफ अग्रसर है। यानि कुछ दिनों के बाद धान की कटाई शुरू हो जाएगी। जिसके चलते अवशेष के तौर पर बची पराली को फूंकने की संभावना भी लगातार बनी रहती है। जिसका सीधा असर पर्यावरण पर पडता है। किसान पराली को न जलाएं इसको लेकर जिला प्रशासन भी सतर्क हो गया है। पिछले साल जिन गांवों में पराली फूंकने के मामले 'यादा आए थे उन गांवों पर प्रशासन की नजर है। पराली फूंकने के हिसाब से गांवों का श्रेणीक्रण किया गया है। जिन गांवों में पांच एकड से 'यादा पराली फूंकी उन्हें रेड जोन में तथा जिन गांवों में पांच एकड से कम पराली फूंकी गई उनको येलो जोन में रखा गया है। किसान पराली को न फूंके इसको लेकर अनुदान पर उपक्रण उपलब्ध करवाएं है। साथ ही कृषि विभाग 127 रुपये प्रति गांठ के हिसाब से खरीदेगा।
कृषि विभाग से क्वालिटी कंट्रोल इंस्पेक्टर नरेंद्र पाल ने बताया कि रेड व येलो जोन वाले गांवों में लगातार जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है। कंबाइन से कटाई के बाद जो अवशेष बचते हैं, उनकी स्ट्रा बेलर से गांठ बनाई जाती है। इसके लिए जिले में 10 स्ट्रा बेलर अनुदान पर किसानों को उपलब्ध कराए गए हैं। 40 और स्ट्रा बेलर के लिए किसानों के आवेदन आए हैं। जिससे जिले में 50 स्ट्रा बेलर हो जाएंगे। पराली की स्ट्रा बेलर से गांठ बनवा कर बेचने वालों को सरकार भी प्रति एकड़ एक हजार रुपये अनुदान देगी।
20 गांव रेड जोन में 76 गांव येलो जोन में रखे
रेड जोन में 20 और येलो जोन में 76 गांव शामिल थे। जिले में कुल 666 एकड़ में पराली जली थी। प्रशासन पराली जलाने वाले किसानों पर 448 एफआइआर दर्ज कराई थी। जिले में धान का 1.30 लाख हेक्टेयर एरिया है। जिसमें 70 प्रतिशत बासमती और 30 प्रतिशत गैर बासमती धान का एरिया है। जिसमें करीब दो लाख मीट्रिक टन पराली निकलती है। इसमें से करीब एक लाख मीट्रिक टन पराली पशु चारे में प्रयोग हो जाती है। बाकी एक लाख मीट्रिक पराली को किसान ना जलाएं, इसके लिए सरकार व प्रशासन प्रबंधन में लगे हुए हैं। अलेवा क्षेत्र में बायो एनर्जी प्लांट लग रहा है। जो इस सीजन में किसानों से एक लाख मीट्रिक टन पराली की बेल यानि गांठ 127 रुपये प्रति क्विंटल खरीदेगा।
नरवाना और उचाना में ज्यादा समस्या
गैर बासमती धान का ज्यादातर क्षेत्र नरवाना और उचाना है। बासमती धान की पराली तो किसान पशु चारे में प्रयोग कर लेते हैं। राजस्थान में भी यहां से पराली जाती है लेकिन गैर बासमती पीआर धान की पराली को किसान चारे में प्रयोग नहीं करते। कंबाइन से कटाई के बाद बचे हुए अवशेष में आग लगा देते हैं। जिससे प्रदूषण भी बढ़ता है। वैसे प्रशासन की सख्ती से हर साल पराली जलाने के मामलों में कमी आ रही है।
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