Knowledge News : हरियाणा में ईस्ट इंडिया कंपनी की दस्तक की कहानी

धर्मेंद्र कंवारी, रोहतक। 1858 में पंजाब के भूगोल का हिस्सा बनने के बाद हरियाणा का इतिहास भी पंजाब के साथ जुड़ना ही था। ब्रिटिश साम्राज्य के लिए पंजाब की कई वजह से शेष भारत के मुकाबले काफी ज्यादा अहमियत थी। रूस अपनी साम्राज्यवादी हसरतों के साथ पंजाब के उस पार खड़ा था। उसके किसी भी संभावित दुस्साहस को रोकने के लिए पंजाब को सैनिक सूबे (गैरिसन स्टेट) के रूप में बदलना जरूरी हो गया था। साथ ही, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस सूबे की जनता को भी अपने प्रति वफादार रखना आवश्यक था। अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए फिरंगियों ने 'साम- दाम-दंड-भेद' की नीति का भरपूर इस्तेमाल किया। ब्रितानी साम्राज्यवाद के लिए भारतीय उप महाद्वीप पर काबिज होना इसलिए भी बेहद जरूरी हो गया था, क्योंकि उसके अमेरिकी उपनिवेश उसके हाथों से निकल रहे थे। 1800 ईसवी तक 13 अमेरिकी कॉलोनी उसके हाथों से फिसल चुकी थी। अमेरिकी जनता ब्रितानी उपनिवेशवाद के खिलाफ एकजुट थी। नतीजतन, अंग्रेज यह समझ चुके थे कि उन्हें अमेरिकी विकल्प तलाशने होंगे। ब्रितानी साम्राज्यवाद के लिए हिन्दुस्तान पर काबिज होना काफी आसान रहा, क्योंकि एक तो यह मुल्क गुलामी सहने का अभ्यस्त था और दूसरे यहां के राजा-महाराजा आपस में ही तलवारें खींचे हुए थे। जनता में 'कोई नृप होय हमें, क्या हानि' का भाव और राजनीतिक एकता का घोर अभाव, ऐसे कारक थे जिनके बूते पर अंग्रेज भारत में अपने साम्राज्य के लिए सुनहरा भविष्य देख रहे थे।
अंग्रेजों ने भारतीयों की आपसी फूट का जमकर लाभ उठाया। 1757 में प्लासी की विजय से लेकर 1857 तक की आजादी की पहली लड़ाई के कुचले जाने तक अंग्रेजों ने 'बांटो और राज करो' की नीति का सफलतापूर्वक प्रयोग किया। इस नीति का पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी ने और बाद में ब्रिटिश सरकार ने खूब प्रयोग किया। एक राजा को दूसरे राजा के खिलाफ, एक सम्प्रदाय की दूसरे संप्रदाय के खिलाफ और एक हित समूह को दूसरे हित-समूह के खिलाफ लड़ाकर अंग्रेजों ने भारत को एकजुट नहीं होने दिया।
अंग्रेजों ने भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग तरीक़ों से 'बांटो और राज करो' की नीति को लागू किया। पंजाब की जनता को अंग्रेजों ने देहात और शहर के बीच बाँटा और देहाती जनता को भरपूर संरक्षण दिया। देहात और शहर के बीच दीवार खड़ी कर अंग्रेज देहाती जनता को अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते थे। पंजाब के गांवों पर फोकस करने की अंग्रेजों के पास बहुत बडी वजह थी। एक तो ब्रिटिश सेना के लिए रंगरूटों की भर्ती की अपार संभावना यहां थी और दूसरा भू-राजस्व के जरिये धन कमाना चाहते थे। इसके अलावा, पंजाब के देहाती क्षेत्रों में राष्ट्रवादी आन्दोलन बेहद कमजोर था। गांवों में तो कई गांधी नेहरू का नाम तक ही नहीं जानता था। इसके अलावा सरकार से, शहरियों के मुक़ाबले बहुत जल्दी संतुष्ट हो जाया करते थे।
इसलिए अंग्रेजों ने यहां देहात को प्राथमिकता दी और किसानी किसान को प्रोत्साहन दिया और ये अंग्रेजों का राजनीतिक निर्णय था। देहात को प्राथमिकता देने की एक मनोवैज्ञानिक वजह यह भी थी कि शहरों के अपेक्षाकृत संपन्न व शिक्षित लोग शासक वर्ग को सम्मान नहीं देते थे जबकि देहात में लोग इस मामले में हमेशा तत्पर रहते थे। इसके अतिरिक्त, भू-स्वामी वर्ग की जरूरत को पूरा करना आसान था, क्योंकि उनकी चाहतें कम होती थीं, जबकि शहर के लोगों का राजस्व प्राप्ति की तुलना में खर्च बहुत ज्यादा होता था, क्योंकि उनकी आवश्यकता अधिक होती थीं। ब्रितानी साम्राज्य के लिए पंजाब का राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक रूप से रणनीतिक महत्व था। बाहरी व आन्तरिक खतरों से साम्राज्य को सुरक्षित रखने के लिए सेना खड़ी करना जरूरी था और पंजाब इस मामले में संभावनाओं से भरपूर था। आगे चलकर दो विश्व-युद्धों के दौरान यह धरातल पर साबित भी हो गया। दोनों युद्धों में ब्रिटेन की जीत में भारतीय सेना, जिसका बहुत बड़ा हिस्सा पंजाब से आता था, का बेहद अहम योगदान रहा। 1849 में पंजाब पर ईस्ट इंडिया कंपनी के क़ब्ज़े के बाद, पंजाब का विस्तार दिल्ली से लेकर अफ़ग़ानिस्तान की सीमा तक हो गया था। सीमा के पार से रुसी साम्राज्य का ख़तरा अंग्रेजी साम्राज्य की चिंताएं बढ़ाता था। 19वीं सदी के अंतिम भाग में रूस में औद्योगिक क्रान्ति शुरू हो गयी थी।
परिणामस्वरूप रूस ने स्वयं अपने प्राकृतिक साधनों का विकास करना शुरू किया और अपनी सीमाओं के बाहर खानों, रेल मार्गों और अन्य आर्थिक विशेषाधिकारों को प्राप्त करने के लिए हाथ-पैर मारने शुरू कर दिए थे। मध्य पूर्व और मध्य एशिया की और बढ़ता हुआ रूस भारत के समीप पहुँच रहा था। वहां ब्रिटेन के अधिकार के लिए वह एक ख़तरा लगने लगा था, लेकिन इस समय ब्रिटेन और रूस को एक-दूसरे से जितना डर था, उससे अधिक जर्मनी से था। इसलिए 1907 में युद्ध न करके ब्रिटेन और रूस ने पारस को तीन प्रभाव क्षेत्रों में बाँट लिया था।
उत्तरी भाग केवल रुसी व्यापारियों के लिए खुला था, दक्षिणी भाग केवल अंग्रेजी व्यापारियों के लिए और मध्य का क्षेत्र दोनों के लिए खुला था। रुसी विस्तार से भारत के सीमान्त प्रांत की रक्षा के लिए ब्रिटिश प्रभुत्व के अधीन अफ़ग़ानिस्तान को एक मध्यवर्ती राज्य बनाया गया था। ब्रिटिश और रुसी साम्राज्य में फ़र्क यह था कि ब्रिटेन ने अपने साम्राज्य का निर्माण जहां-तहां बिखरे क्षेत्रों पर अधिकार करके किया था, वहीं, रूसियों ने अपनी ही सीमाओं का विस्तार करके अपने साम्राज्य का निर्माण किया था। ऐसे में रुसी साम्राज्य से भविष्य में उत्पन्न हो सकने वाले खतरे से निपटने के लिए पंजाब ब्रिटेन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण था।
साम्राज्यवाद के मूल में आर्थिक लाभ अनिवार्य रूप से निहित होता है। पंजाब इस लिहाज से अंग्रेजों के लिए 'कामधेनु' से कम नहीं था। यहां की अत्यंत उर्वरा भूमि और सिन्धु, झेलम, चिनाब, ब्यास और रावी सरीखी सदानीरा नदियां, फिरंगियों के दिमाग़ में 'पूंजी के पहाड़' नजर आ रही थीं।
पंजाब की भूमि से अधिकतम दौलत कमाने के लिए उसका अधिकतम प्रयोग किया जाना जरूरी था। लन्दन के मुद्रा बाजार से ब्याज पर पूँजी जुटा कर अंग्रेजों ने जब सतलुज नदी के पश्चिम में बड़ी नहर प्रणालियों का निर्माण शुरू किया ताकि नदी घाटियों के बीच वीरान पड़े विशाल रेगिस्तानी मैदान की बंजर भूमि भी कृषि योग्य बनाई जा सके। नहरी सिंचाई के तहत लाये जा रहे विशाल क्षेत्रों में चूंकि पहले से बस्तियां नहीं के बराबर थीं, इसलिए पंजाब में नहर निर्माण की सफलता के लिए कुछ क्षेत्रों में आबादी का दबाव कम करना जरूरी था, लिहाजा नहर कॉलोनियों के रूप में अधिक सुविधाओं वाले नए गांवों को बसाने का काम भी हुआ।
नई बस्तियों में अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक व सामरिक हितों को ध्यान में रख कर कृषि भूमि का आवंटन किया। कानूनन, विशेषकर ब्रिटिश लिहाज से उनका या किसी अन्य का यहां भू-स्वामित्व नहीं था, इसलिए इस भूमि को 'क्राउन वेस्टलैंड' के रूप में घोषित किया गया।
सिन्धु नदी पर किताब लिख चुके और हरियाणा में 'जलयुद्ध नायक' के रूप में ख्यात रघु यादव की दो पंक्तियां अंग्रेजों के इस कारनामें को गागर में सागर की तरह बयान कर देती है। उन्होंने- 'दोआबों में पसार कर आब, अंग्रेजों ने बसाया पालतू 'पंजाब' शीर्षक से लिखा है कि-
"छोटे-बड़े जमींदारों-जागीरदारों, सैनिक व नागरिक अधिकारियों सहित शहरी बुर्जुवा वर्ग के लोगों जैसे वकीलों, डॉक्टरों आदि को विभिन्न कॉलोनियों में तथा अमीर लोगों एवं राज के ख़ास वफ़ादार सेवकों को भी सभी कॉलोनियों में 'नज़राना ग्रांटीज' के नाम से बड़े आकार में 50 से 1500 एकड़ तक के कृषि फार्म सेवा शर्तों के साथ और उनके बिना भी आवंटित किये गए। चूंकि ये लोग सालाना एक निश्चित धनराशि शुल्क उपहार के रूप में सरकार को दिया करते थे, इसलिए इन्हें नजराना ग्रांटीज कहा जाता था।"
एक तरफ आबादकार व मिलिट्री ग्रांट्स से अंग्रेजों को गांव के प्रभावशाली वर्ग की कृतज्ञता मिली, वहीं दूसरी तरफ नजराना ग्रांट से कृषक गैर कृषक सभी सरमायदारों की स्थिति मजबूत करते हुए अंग्रेजों को वफ़ादार ताबेदारों का एक ऐसा वर्ग दिया जो जीवन के हर क्षेत्र में उनका सहयोग करते हुए चलना चाहता था। अंग्रेजों की जीवन शैली का अनुसरण करना इन लोगों के लिए शान की बात थी। सरकार ने हर नहर कॉलोनी में कुछ भूमि खुली नीलामी में बेच कर बाजार भाव भी वसूला।
इस सन्दर्भ में सन् 1892 से 1913 तक 40 हजार एकड़ क्राउन वेस्टलैंड अधिकतम 266 रुपये प्रति एकड़ तथा सन् 1915 से 1921 के बीच 95 हजार प्रति एकड़ क्राउन वेस्टलैंड न्यूनतम 294 रुपये से अधिकतम 793 रुपये प्रति एकड़ की दर से बेची गयी। नजराना ग्रांटीज एवं खुली नीलामी के द्वारा बड़ी संख्या में गैर-काश्तकार खत्री, खोजा, शेख, अरोड़ा व बनिया जैसी जातियों के लोग भी कृषि भूमि के हक़दार व मालिक बने, जिन पर सन 1901 के लैंड एलिअनेशन एक्ट द्वारा सरकार ने कृषि भूमि ख़रीदने पर पाबंदी लगा रखी थी। नतीजतन, नहर कॉलोनियों वाले जिलों में गैर- काश्तकार भू-स्वामियों का प्रतिशत बढ़ा, जो वर्ष 1921-22 में 13 प्रतिशत के प्रांतीय औसत से अधिक था, जैसे मुल्तान में 28, झंग में 18, मोंटगुमरी में 27 व मुजफ्फरगढ़ में 20 प्रतिशत।
उस वक्त पंजाबी समाज का काफी बड़ा हिस्सा निहित स्वार्थों के चलते अंग्रेज सरकार के सामने समर्पण कर चुका था और विभिन्न तबक़ों में अंग्रेजों के प्रति वफादारी दिखाने की प्रतिस्पर्धा चल रही थी और अंग्रेज यहां मजे से राज कर रहे थे। अंग्रेजों के लिए हरियाणा क्षेत्र ने सबसे बडी चुनौती दी 1857 की क्रांति ने लेकिन अंग्रेजों ने भी उसे बेरहमी से कुचल दिया।
(साभार: पॉलिटिक्स आफ चौधर)
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