उपलब्धि : तमिलनाडु, महाराष्ट्र व कर्नाटक में भी बोई जाएगी एचएयू से विकसित ज्वार की नई किस्म

हिसार :चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय (CCS Haryana Agricultural University) के कृषि वैज्ञानिकों ने ज्वार की नई व उन्नत किस्म सीएसवी 44 एफ विकसित कर एक और उपलब्धि को विश्वविद्यालय के नाम किया है। ज्वार की इस किस्म को विश्वविद्यालय के अनुवांशिकी एवं पौध प्रजनन विभाग के चारा अनुभाग द्वारा विकसित किया गया है।
विश्वविद्यालय द्वारा विकसित इस किस्म को भारत सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के कृषि एवं सहयोग विभाग की 'फसल मानक, अधिसूचना एवं अनुमोदन केंद्रीय उप-समिति' द्वारा नई दिल्ली में आयोजित 84वीं बैठक में अधिसूचित व जारी कर दिया गया है। बैठक की अध्यक्षता भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के फसल विज्ञान के उप-महानिदेशक डॉ. टी.आर. शर्मा ने की थी। ज्वार की यह किस्म दक्षिणी राज्यों मुख्यत: कर्नाटक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के लिए सिफारिश की गई है। हालांकि इस किस्म को विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एचएयू में ही विकसित किया है।
मिठास अन्य किस्मों से 10 प्रतिशत तक अधिक
विश्वविद्यालय के अनुसंधान निदेशक डॉ. एस.के. सहरावत ने बताया कि सीएसवी 44 एफ किस्म में अन्य किस्मों की तुलना में प्रोटीन व पाचनशीलता अधिक है, जिसकी वजह से पशु के दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी करती है। इस किस्म में मिठास 10 प्रतिशत से भी अधिक व स्वादिष्ट होने के कारण पशु इसको खाना अधिक पसंद करते हैं। इस किस्म में हरे चारे के लिए प्रसिद्ध किस्म सी.एस.वी. 21 एफ से 7.5 प्रतिशत व सी.एस.वी. 30 एफ से 5.8 प्रतिशत अधिक हरे चारे की पैदावार होने के कारण किसानों को अधिक मुनाफा होगा। सिफारिश किए गए उचित खाद व सिचाई प्रबंधन के अनुसार यह किस्म अधिक पैदावार देने में सक्षम है और इसे लवणीय भूमि में भी उगाया जा सकता है। अधिक बारिश व तेज हवा चलने पर भी यह किस्म गिरती नहीं है। ज्वार में प्राकृतिक तौर पर पाया जाने वाला विषैला तत्व धूरिन इस किस्म में बहुत ही कम है। सीएसवी 44 एफ किस्म तनाछेदक कीट के प्रति प्रतिरोधी है व इसमें पत्तों पर लगने वाले रोग भी नहीं लगते। वैज्ञानिकों के अनुसार चारा उत्पादन, पौष्टिकता एवं रोग प्रतिरोधकता की दृष्टि से यह एक उत्तम किस्म है। इस किस्म की हरे चारे की औसत पैदावार 407 किवंटल प्रति हेक्टेयर है। जोकि ज्वार की अन्य बेहतर किस्मों सीएसवी 21 एफ और सीएसवी 30 एफ से क्रमश: 7.5 प्रतिशत व 5.8 प्रतिशत अधिक है। इस किस्म की सूखे चारे की औसत पैदावार 115 किवंटल प्रति हेक्टेयर है जोकि पूर्व में विकसित उन्नत किस्मों से अधिक है।
इन वैज्ञानिकों की मेहनत लाई रंग
विश्वविद्यालय के आनुवांशिकी एवं पौध प्रजनन विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. ए.के. छाबड़ा ने बताया कि सीएसवी 44 एफ किस्म को विकसित करने में इस विभाग के चारा अनुभाग के वैज्ञानिकों डॉ. पम्मी कुमारी, डॉ. सत्यवान आर्य, डॉ. एस.के. पाहुजा, डॉ. एन.के. ठकराल एवं डॉ. डी.एस. फोगाट की टीम की मेहनत रंग लाई है। इसके अलावा डॉ. सतपाल, डॉ. जयंती टोकस, डॉ. हरीश कुमार, डॉ. विनोद मलिक एवं डॉ. सरिता देवी का भी विशेष सहयोग रहा है।
प्रदेश के लिए सिफारिश का भेजेंगे प्रपोजल
नई किस्म को विकसित करने वाली टीम सदस्य आनुवांशिकी एवं पौध प्रजनन विभाग के चारा अनुभाग के अध्यक्ष डॉ. डी.एस. फोगाट ने बताया कि हालांकि इस किस्म को एचएयू में ही विकसित किया गया है, लेकिन कमेटी द्वारा इसकी गुणवत्ता व पैदावार को ध्यान में रखते हुए अभी देश के दक्षिणी राज्यों (तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक)में हरे चारे की उत्तम पैदावार के लिए सिफारिश किया गया। इस किस्म को प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में परीक्षण के तौर पर लगाया गया था, जहां इसके बहुत ही सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। इसलिए यहां किसानों के लिए भी इसकी सिफारिश संबंधी प्रपोजल जल्द ही कमेटी को भेजा जाएगा। उन्होंने बताया कि चारा अनुभाग 1970 से अब तक ज्वार की कुल आठ किस्में विकसित कर चुका है। इनमें से बहु कटाई वाली किस्म एस.एस.जी. 59-3 (1978), दो कटाई वाली किस्म एच.सी. 136 (1982) व एक कटाई वाली किस्में एच.सी. 308 (1996), एच.जे. 513 (2010) और एच.जे. 541 (2014) किसानों की पहली पसंद बनी हैं।
अब तक ज्वार की आठ किस्में विकसित कर चुका है एचएयू : कुलपति प्रोफेसर समर सिंह
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर समर सिंह ने कृषि वैज्ञानिकों द्वारा इस उपलब्धि पर बधाई दी और भविष्य में भी निरंतर प्रयासरत रहने का आह्वान किया। उन्होंने बताया कि इससे पहले भी विश्वविद्यालय के चारा अनुभाग के वैज्ञानिकों द्वारा विश्वविद्यालय की स्थापना से लेकर अब तक आठ किस्में विकसित की जा चुकी हैं, जो अपने आप में इस क्षेत्र में बड़ी उपलब्धि है।
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