ओझल हो रहे बेजुबान : एक वक्त था जब पक्षियों की चहचाहट हृदय प्रफुल्लित करती थी

ओझल हो रहे बेजुबान :  एक वक्त था जब पक्षियों की चहचाहट हृदय प्रफुल्लित करती थी
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सुबह पक्षियों की चहचहाहट सुनकर दिल की शुरुरूआत करने वाले ग्रामीण धीरे-धीरे इससे दूर होते चले जा रहे हैं। इसका शायद ही उन्हें अहसास हो रहा हो। आधुनिकता व विज्ञान के युग में पक्षियों व वन्य जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें सबसे ज्यादा मोर देश के राष्ट्रीय पक्षी मोर, काले हिरण व पक्षियों पर देखी जा रही है।

बवानीखेड़ा : बेजुबान वन्य जीव अपना दर्द बयां नहीं कर पाते। इनके दर्द को समझा जा सकता है। वन्य जीव अपना दुख-दर्द बोल कर भले नहीं बता पाते लेकिन भावनाओं से बयां करना बखूबी जानते हैं। सुबह पक्षियों की चहचहाहट सुनकर दिल की शुरुरूआत करने वाले ग्रामीण धीरे-धीरे इससे दूर होते चले जा रहे हैं। इसका शायद ही उन्हें अहसास हो रहा हो। आधुनिकता व विज्ञान के युग में पक्षियों व वन्य जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें सबसे ज्यादा मोर देश के राष्ट्रीय पक्षी मोर, काले हिरण व पक्षियों पर देखी जा रही है। जानकारों की माने तो प्रदेश में इन वर्गों की कार्यशैली कमजोर पडने से वन्य जीव-जीवन खतरे में पड़ गया है।

वन्य प्रजातियों पर मंडरा रहा खतरा

जानकारों की माने तो वन्य जीव में सबसे ज्यादा खतरा शिकारी कुत्तों और गैर व्यवसायिक शिकारियों से हैं। इनसे अन्य जीवों को भी खतरा बढ़ रहा है। चंद रुपयों के लालच के लिए व्यावसायिक शिकारी हिरण व मोर का शिकार करते रहे और आज स्थित क्या है हम सभी जानते हैं। नील गाय भी इनके निशाने पर रही। फसल को बर्बाद होने से बचाने के लिए इनकी हत्या करना अब आम बात है। सबसे हैरानी की बात तो यह है कि चिड़िया, गिद्द, तीतर, हिरण, गीदड़, खरगोश, कबूतरों की संख्या लगातार घट रही है। जानकारी बताते हैं कि लगभग 59 प्रतिशत लोग मोर को सर्वाधिक विलुप्त प्रजाति मान रहे है। चिड़िया की 45, हिरण 26 व तीतर 25 प्रतिशत प्रजातियों को आदमी लुप्त होने के कगार पर मान रहे हैं।

कहा गायब हो गए किसान के मित्र पक्षी बगुले, चिड़िया

लगभग 10 वर्ष पहले तक जब किसान खेत में बुआई करता था या सिंचाई के वक्त भारी संख्या में बगुलों का जमावड़ा देखा जाता था। चिड़िया व कौए भी आमतौर पर देखे जाते थे। सड़क पर मरे कुत्तों व अन्य जीव जंतुओं को खाने के लिए चील, गिद्द व कौए की संख्या इतनी होती थी कि शायद ही उनकी गिनती जा सकती थी। शोध में पाया गया है कि प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के पीछे अंधाधुंध कीटनाशक दवाइयों का प्रयोग माना जा रहा है।

ग्राम स्तर पर हो सकता है वन्य जीवों का संरक्षण

जानकारों के मुताबिक अगर पंचायतें पंचायती वन का विकास करें तो वन्य जीव संरक्षण किया जा सकता है। कुछ लोग मानते हैं कि अगर पंचायतों की शक्ति में वृद्धि की जाए तो वन्य जीवन संरक्षण में कामयाबी हासिल हो सकती है।

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