हरियाणा के एक नेता की कहानी : जूते नापने वाले हाथ जब सत्ता की गर्दन नापने लगे तो...

हरियाणा के एक नेता की कहानी : जूते नापने वाले हाथ जब सत्ता की गर्दन नापने लगे तो...
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वैसे सत्ता है बड़ी कमाल की चीज। इंसान को फर्श से अर्श पर और कब अर्श से फर्श पर लाकर पटक दे पता ही नहीं चलता है और मेरी कहानी के किरदार इन दो भाइयों की कहानी भी ठीक ऐसी ही है।

Haryana : आज बस एक कहानी बताता हूं दोस्तों। खराब रेडियो रिपयेर करके वो बड़ी मुश्किल से दिन में सौ दो सौ रुपये दिन के कमाता था। काम नहीं चला तो भाई के साथ मिलकर रेडियो की दुकान पर ताला लगा दिया और जूतों की दुकान खोल ली। जूतों की दुकान ठीक ठाक चलने लगी लेकिन दोनों भाइयों के सपने बहुत बडे़ थे। पांवों के नाप लेने के साथ साथ वो सत्ता की गर्दन नापना चाहते थे और उन्होंने ऐसा कर भी दिखाया। वैसे सत्ता है बड़ी कमाल की चीज। इंसान को फर्श से अर्श पर और कब अर्श से फर्श पर लाकर पटक दे पता ही नहीं चलता है और मेरी कहानी के किरदार इन दो भाइयों की कहानी भी ठीक ऐसी ही है।

जूतों की दुकान अच्छी चलने लगी तो जूता बनाने की फैक्ट्री भी डाल ली। दुकान का नाम हुआ तो आम ग्राहकों के साथ साथ शहर के रसूखदार लोग, अफसर, बिल्डर, कारोबारी और नेता भी दुकान पर आने जाने लगे। संबंध बनाने में दोनों भाई एक से बढकर एक रहे। एक बार जो भी मिला उसके दिल में बस जाने की कला थी जैसे उनमें।

सियासत और कारोबार का आपस में गहरा संबंध होता है। भिवानी से संबंध रखने वाले एक मुख्यमंत्री के लाडले से इन भाइयों की मुलाकात हो गई तो जिंदगी की गाड़ी भी सरपट दौड़ने लगी। पहली बार इनको लगा कि अगर तरक्की करनी है तो कारोबार और सत्ता दोनों में हाथ होगा तो ही बात बनेगी। वो सरकार ज्यादा दिन चली नहीं लेकिन इन भाइयों को पता चल ही गया था कि तरक्की का रास्ता सत्ता के गलियारों से होकर निकलता है। इसके बाद जो सरकार आई वो मुख्यमंत्री तो उनके अपने ही शहर के थे और देखते ही देखते उनके दोनों बेटों से दोस्ती जम गई। जूतों के नाप लेने वाले हाथ अब सत्ता के कॉलर पकड़कर गर्दन का नाप लेने लगे थे। कहा तो ये भी जाता है कि मुख्यमंत्री के दोनों बेटों को अगर सही मायने में किसी ने बिगाड़ा है तो इन जनाब का नाम तसल्ली से लिया जा सकता है। उनको हर ऐब सिखाता रहा और खुद की जेबों में माल भरता रहा।

इसी दौरान अपने ही जिले में तैनात एक आईएएस से मुलाकात दोस्ती में बदल गई। सत्ता को बोलकर आईएएस का ट्रांसफर गुडगांव करवा दिया और दोनों भाई उनके साथ ही गुडगांव पहुंच गए। गुडगांव की शक्ल उन दिनों बदल रही थी। ये शहर भी इन दोनों भाइयों की तरह मामूली बनकर नहीं रहना चाहता था। गुडगांव की जमीन सोना हो चुकी थी और उन्होंने इसी सोने में हीरे तलाशने शुरू कर दिए। हुडा विभाग गुडगांव का उस समय का सबसे बड़ा जमींदार था और वो आईएएस अफसर उस विभाग का मुखिया। इन भाइयों ने देखते ही देखते पैसों की ढेरी लगा दी लेकिन सपने इससे भी बहुत ज्यादा बडे़ थे। देखते ही देखते बात एयरलाइंस खोलने तक पहुंच गई और हरियाणा में तो जैसे हंगामा ही हो गया। एयरलाइंस तो चली नहीं लेकिन इनको समझ आ ही गया था कि ये दुनिया कैसे चलती है। पैसा फूंक और तमाशा देख अब इनकी जिंदगी का जैसे उसूल बन गया था। एक के बाद कंपनियां खोलते रहे। होटल, कैसिनो, प्रोपर्टी डिलिंग, स्कूल, कॉलेज और मीडिया हर जगह हाथ आजमाया और पैसा बनाया लेकिन एक टीस मन में रही कि अब सत्ता में खुद बैठकर देखना है इसलिए निर्दलीय चुनाव लडा और इतना फैसा फूंका कि दुनिया देखती रह गई।

नई बनने वाली सरकार को विधायकों की जरूरत थी और इनका समर्थन तो कीमत के साथ उपलब्ध था। मंत्री भी बने और माल बनाने की फैक्ट्री की चाबी भी इनको मिल गई। कुल मिलाकर चालीस कंपनियां चल रही थी उस समय दोनों भाइयों के नाम। उन्हीं दिनों गुडगांव में एक फार्म हाउस खोला था से इनकी दुनिया चलती थी। फार्म हाउस देखने वाले लोग बताते हैं कि दोनों भाइयों ने जैसे जन्नत उतार रखी थी उस फार्म हाउस में। जो यहां एक बार पहुंचता था वो कई दिन तक उसके ख्यालों में खोया रहता था।

इसी बीच जिंदगी में एक तूफान आ गया और ये तूफान मंत्री पद तो ले ही उड़ा जेल की सलाखों के पीछे भी पहुंचा दिया एक भाई को। फर्श से अर्श और अब अर्श से फिर फर्श देखने का समय था ये। एक लडकी जो पहले एयरलायंस में नौकरी पर रखी थी और तीन साल में ही उसे तरक्की दे देकर डॉयरेक्टर तक पहुंचा दिया लेकिन बात बिगड़ गई, लडकी ने पहले इनकी कंपनी छोड़ी और फिर दो पन्नों का नोट लिखकर इस दुनिया को ही अलविदा कह गई।

अब उल्टा गियर लग चुका था जिंदगी का। जेल गया, जगहंसाई हुई और चुनाव भी हार गया। जिंदगी हिचकोले खाने लगी। कई कंपनियां बिक गई, एक बेशकीमती जमीन भी एक मुख्यमंत्री के जानकार को कौडियों के दाम देनी पड़ गई लेकिन कोर्ट कचहरी आम आदमी की जिंदगी को नर्क बना सकते हैं बडे़ आदमियों की नहीं। कानून की किताब में बच निकलने के भी उतने ही कानून हैं जितने की फंस जाने के हैं।

वैसे कहा तो ये भी जाता है कि एक संत का आशीर्वाद इस परिवार के ऊपर है जिसके चलते ये बार- बार उभर जाते हैं। एक चुनाव हारने के बाद फिर से चुनाव जीता और अब कोर्ट से बरी होने के बाद लडकी के डर से भी हमेशा -हमेशा के लिए आजाद हो गया है ये कारोबारी परिवार। भाई भी सत्ता की दहलीज लांघने की कोशिश में है और निगाहें दोनों की आज भी आसमान पर हैं। इन भाइयों के कुछ उसूल भी हैं। खुद कोई नशा नहीं करते लेकिन किसी के भी नशे से इनको परहेज नहीं है। हर चीज की एक कीमत होती है और इन दोनों को ये अच्छी तरह पता है कि किसकी क्या कीमत लगानी है। इनकी जिंदगी रबड की तरह है किसी भी सांचे में एडजस्ट होना आता है इन्हें।

आप चाहें जो कहें लेकिन इन दोनों की कहानी पर एक फिल्म तो आराम से बन ही सकती है। कहानी में किसी का नाम नहीं ले रहा हूं क्योंकि नाम लेने की जरूरत है भी नहीं। समाज एक आयना होता है और इस आयने में कोई भी अपना चेहरा देख सकता है। समाज में वो लोग जो ऐसे लोगों को वोट देते हैं, उनके जयकारे लगाते हैं वो भी कम गुनेहगार थोडे हैं। कहानी कैसी लगी ये पूछने की जरूरत है भी नहीं। कहानी के हर किरदार में कहानी सुनने वाला झांकता है कि कहीं ये मैं खुद तो नहीं हूं। ये मेरी कहानी तो नहीं है।

कहानी अभी खत्म नहीं हुई क्योंकि कहानी के किरदार अब भी कोई नई कहानी लिखने में जुटे हैं क्योंकि अब वो पूरी तरह आजाद हैं और सत्ता को उनकी जरूरत है।



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