Bhopal Gas Tragedy : न जान ‘लेने’ वालों को सजा...और, न जान ‘बचाने’ वालों को शाबासी

Bhopal Gas Tragedy :  न जान ‘लेने’ वालों को सजा...और, न जान ‘बचाने’ वालों को शाबासी
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अपनी जान पर खेलकर हजारों रेल यात्रियों की जिंदगी बचाने वाला असल हीरो तो गुमनाम ही रह गया।

भोपाल। भले ही भोपाल गैस त्रासदी के गुमनाम नायकों की कहानी बताई जा रही हो, उन पर उपन्यास लिखे जा रहे हों या फिर उन पर डॉक्युमेंट्री बनाई जा रही हो। लेकिन अपनी जान पर खेलकर हजारों रेल यात्रियों की जिंदगी बचाने वाला असल हीरो तो गुमनाम ही रह गया। 1984 की त्रासदी के नायक के योगदान का दुनिया जहां ने कोई खास जिक्र नहीं किया। अब 39 साल बाद किया भी तो असली नाम देने से ही कन्नी काट ली। यह कहते-कहते कोहेफिजा में रहने वाले शादाब दस्तगीर थम से जाते हैं। वे कहते हैं कि सच तो यह है कि हम न जान लेने वालों को सजा दिला पाए और न जान बचाने वालों को शाबासी।

मौत की उस गंध को लोग समझ नहीं पाए कि ये क्या है?

करीब 50 साल के शादाब दस्तगीर 1984 में भोपाल रेलवे स्टेशन के डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट रहे दिवंगत गुलाम दस्तगीर के सबसे छोटे बेटे हैं। 1984 की उस काली रात (2-3 दिसंबर) की दास्तां सुनाते हुए शादाब बताते हैं िक उस साल मैं करीब 13 या 14 साल का था। पुराने भोपाल के एक घर में हमारा पांच सदस्यीय परिवार रहता था। 2 दिसंबर की रात मां के साथ हम घर में तीन भाई थे। करीब 11 बजे पिता गुलाम दस्तगीर भोपाल रेलवे स्टेशन के लिए निकल गए थे। तभी आधी रात को हमारे मोहल्ले में चीख-पुकार मचने लगी। बाहर जाकर देखा तो लोग इधर-उधर भाग रहे थे और एक अजीब-सी गंध नथुनों में घुसी जा रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने मिर्ची के गोदाम में आ लगा दी हो या फिर गोभी को बड़े पैमाने पर उबाला जा रहा हो। गंध खतरनाक होती जा रही थी। कुछ समझ आ नहीं रहा था। किसी ने बताया कि ऊंचाई वाले स्थान पर जाकर ही जान बचाई जा सकती है। भागते-हांफते मां और तीनों भाई तमाम लोगों की तरह जेल पहाड़ी पर पहुंचे। लेकिन रातभर पिता की चिंता सताती रही।

तब सड़कें लाशों की सड़कें बन गई थीं

- शादाब बताते हैं कि भोपाल की हवा में जहरीली गंध थमने के बाद सुबह मां के साथ हम तीनों भाई घर लौटे तो देखा कि पिता अपनी ड्यूटी से नहीं लौटे। अमूमन नाइट ड्यूटी खत्म करने के बाद पिता सुबह करीब 8 या 8:30 तक लौट आते थे। किसी अनहोनी की आशंका के चलते मैं अपने पिता को ढूंढने साइकिल से निकल पड़ा। लेकिन रास्ते का मंजर देख ठिठक गया। बकौल शादाब, भोपाल की सड़कों पर बेतरतीब बिखरा हुआ सामान, जगह-जगह इंसानों और जानवरों की लाशें ही लाशें पड़ी हुई थीं। दिसंबर में शादियों का सीजन शुरू हो जाता है तो दूल्हे-बाराती और बैंड बाजे वाले तक सड़कों पर मृत पड़े हुए थे। जैसे-तैसे हिम्मत बनाकर मैं स्टेशन परिसर में दाखिल हुआ तो वहां भी कुछ ऐसा ही मंजर दिखा। यात्रियों के बैग, मुंह से झाग उगलते शव और चारों तरफ सन्नाटा। मतलब श्मसान घाट में तब्दील एक स्टेशन और लाशों में तब्दील लोग।

डॉक्टरों तक को नहीं पता था कि इस गैस का इलाज क्या है?

मैं जब अपने पिता की केबिन में घुसता हूं तो एक अंकल (संभवत: रेलवे कर्मचारी) बैठे दिखे। मैंने पतासाजी की तो उन्होंने बताया कि आपके पिता (डिप्टी सुपरिटेंडेंट) की हालत ज्यादा खराब थी और वह बेहोश पड़े हुए थे, तो रिलीफ टीम ने उनको एंबुलेंस से हमीदिया अस्पताल रेफर कर दिया। इसके बाद साइकिल उठाकर मैं हमीदिया पहुंचा तो वहां भी लाशें ही लाशें और जिंदगी-मौत के बीच जंग लड़ रहे लोगों को देख सिहर उठा। डॉक्टरों पर जैसा बन पड़ रहा, वैसा इलाज कर रहे थे, क्योंकि किसी को मालूम नहीं था कि हवा में उड़े जहर का सहीइलाज क्या है? अस्पताल परिसर में अपने लोगों को गंवाने वालों का रुदन क्रंदन देख मैं हताश-निराश घर लौट आया।

गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी

पिता सुबह 11.30 बजे लड़खड़ा कर गिरे तो फिर उठे नहीं: शादाब ने बताया कि घर में हम सभी भाई बेहद चिंतित थे, लेकिन कि एकाएक देखा कि पिता करीब सुबह 11:30 बजे दरवाजे पर लड़खड़ाते हुए आ गए। अस्पताल से उनको प्राथमिक उपचार देकर घर के लिए रवाना कर दिया गया था। लेकिन जब हमने देखा कि पिता की आंखों का एरिया फूल के कुप्पा और लाल हो चुका था और शरीर भी लगभग पूरी तरह जवाब दे चुका था। गले से आवाज निकल नहीं पा रही थी। बस, घर में घुसते ही वह सिर्फ इतना ही कह पाए-स्टेशन सुपरिटेंडेंट धुर्वे साहब भी नहीं रहे।

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