Budget 2019 India Expectations : बजट 2019 से आमजन की आकांक्षाएं

Budget 2019 India Expectations (बजट 2019 से आमजन की आकांक्षाएं) देश का हर वर्ग बजट से अपने लिए राहत और सुविधाओं की उम्मीदें कर रहा है। मंदी के दौर से गुजर रहे देश की अर्थव्यवस्था के सामने कई गंभीर चुनौतियां भी हैं। सरकार जनता की आशा, आकांक्षाओं और देश की जरूरतों के बीच कैसे संतुलन स्थापित करेगी यह बजट के बाद ही पता चलेगा। दरअसल केन्द्र सरकार द्वारा सालाना पेश किया जाने वाला आम बजट उसका आय-व्यय सम्बन्धी दस्तावेज होता है। इसी के सहारे वह समाज की आर्थिक असमानता को भी दूर करती है। समृद्ध लोगों से लेकर गरीबों के कल्याण में सरकार धन को खर्च करती है। हालांकि यह भी सच है कि दुनिया भर में समृद्धि बढ़ने के साथ ही आय की असमानता में भी उछाल दिखाता है। आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार किसी देश की सम्पत्तियों में हिस्सेदारी की असमानता वहां के कई चीजों पर प्रतिकूल असर डालती है। इससे गरीबी उन्मूलन की दर कम होती है। टिकाऊ आर्थिक विकास अवरूद्ध होता है। महिला और पुरूष के साथ स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों में भी यह असमानता पैर पसारती है। अपराध और हिंसा के रूप में सामाजिक विकृतियां भी सामने आती हैं।
देश में अमीरों-गरीबों के बीच असमानता की खाई को पाटने के लिए सरकार भी हर साल आम बजट सहित समय-समय पर नीतियों को लागू करती है। लेकिन पिछले साल जारी क्रेडिट सुईस की ग्लोबल वेल्थ रिपोर्ट के अनुसार देश के 10 फीसदी अमीरों के पास 77.4 फीसदी सम्पत्ति है। जबकि 60 फीसदी गरीब के पास महज 4.7 फीसदी सम्पत्ति है। इसका मतलब है कि देश की लगभग 75 फीसदी सम्पत्ति पर दस फीसदी लोगों का अधिकार है। अब सवाल यह है कि असमानता की इस खाई को कैसे पाटा जाए?
देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण अर्थव्यवस्था का योगदान लगभग आधा है। कृषि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार है, लेकिन दो तिहाई ग्रामीण अर्थव्यवस्था गैर कृषि गतिविधियों पर आधारित है। वित्त मंत्री के सामने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को विकसित करने के लिए सक्षम परिस्थितिकी तंत्र को प्रोत्साहित और पोषित करने की ही सबसे बड़ी चुनौती है। निर्माण, अवसंरचना, चमड़ा और हथकरघा जैसे सहायक उद्योगों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने वाले रोजगार पैदा हो सकते हैं।
एक मजबूत ग्रामीण परिस्थितिकी तंत्र उपभोग, आय और समान विकास को गति देने में सक्षम है। ग्रामीण विकास गरीबी को तीन गुना तेजी से कम करता है। सिर्फ इसी कार्य से ग्रामीण विकास दर को 12 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि किसानों की कम होती आय के कारण उनकी बदहाली बढ़ती जा रही है। ग्रामीण आय में 2014 के बाद से मंदी है और वास्तविक मजदूरी 5 साल के निचले स्तर पर है। इसका एकमात्र समाधान कृषि आय में वृद्धि करना है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान महज 12 फीसदी है। जबकि यह 50 फीसदी लोगों को रोजगार देती है। असली समस्या यह है कि हमारे खेतों में जरूरत से ज्यादा किसान है और इनमें भी अधिकांश लोग आधे मन मन से खेती करते हैं, क्योंकि उनके पास करने के लिए और कुछ नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधी-अधूरी तैयारी वाली और लोकलुभावन सरकारी योजनाएं इस संकट को बढ़ाने का ही काम करती हैं।
हमारा ध्यान लागत से परिणाम और इनपुट से व्यय पर होना चाहिए। वित्त मंत्री को एक मजबूत समग्र, सुधारवादी और किसान केन्द्रित कृषि नीतियों के निर्माण पर कार्य करना चाहिए। साथ ही किसान धन के लिए बजटीय प्रावधान की भी घोषणा होनी चाहिए। इस बार मसला सिर्फ इतना भर नहीं है कि किसानों की फसल की समग्र लागत का डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाए, उनकी आय अगले तीन साल में दोगुनी कर दी जाए, 50-100 गांवों का क्लस्टर बनाकर वहां एग्रो-प्रोसेसिंग प्लांट लगा दिए जाएं या उनके कर्ज माफ कर दिए जाएं।
सवाल यह है कि देश के करोड़ों किसानों के लिए जो खेती घाटे का सौदा बन गई हेै, उसे मुनाफे का धंधा कैसे बनाया जा सकता है। आज भी अपने यहां हर साल 40-50 हजार करोड़ रूपये की फल व सब्जियां प्रोसेसिंग के अभाव में बर्बाद हो जाती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कहना है कि वे कारपोरेट क्षेत्र से कृषि निवेश में करने को कहंेगे। इस साल फरवरी के अंतरिम बजट में जिस पीएम-किसान योजना के तहत पांच एकड़ तक की जोत वाले 12 करोड़ लघु व सीमांत किसानों को हर साल 6000 रुपये देने की घोषणा की गई है,
वह अब सभी 14.5 करोड़ किसानों तक बढ़ा दी गयी है। ऊपर से नई सरकार ने पहली ही कैबिनेट बैठक में लघु एवं सीमांत किसानों को 60 साल का होते ही प्रतिमाह 3000 रुपये पेंशन देने की योजना पारित कर दी। प्रधानमंत्री का लक्ष्य है कि किसान पेंशन योजना के तहत पहले तीन सालों में कम से कम पांच करोड़ लघु व सीमांत किसानों को कवर किया जाएगा। आर्थिक विशेषज्ञों का कहना है कि दो ही प्रमुख तरीके हैं जिससे गरीबों और अमीरों के बीच असमानता को दूर किया जा सकता है।
कराधान और सामाजिक खर्च से आर्थिक समानता लाई जा सकती है। अमीरों से ज्यादा कर वसूल कर गरीबों के कल्याण में खर्च करने का सफल प्रयोग कई देशों में देखा जा चुका है। भारत जीडीपी का औसतन 16.7 फीसदी ही टैक्स से जुटाता है। यह बहुत कम है। विश्लेषकों के अनुसार इसकी यह क्षमता करीब 53 फीसदी तक है। कराधान प्रणाली भी बहुत प्रगतिशील नहीं है। जिसके कुल करों में प्रत्यक्ष करों की तिहाई हिस्सेदारी ही होती है।
दक्षिण अफ्रीका जीडीपी का 27.4 फीसदी करों के माध्यम से एकत्र करता है, जिसमें से 50 फीसदी प्रत्यक्ष कर होते हैं। सामाजिक खर्च के मोर्चे पर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा पर किया जाने वाला खर्च भी आवश्यक है। पिछले तीस सालों के दौरान 150 देशों में जनसेवाओं और सामाजिक सुरक्षा में किए गए निवेश में असमानता दूर किए जाने का उदाहरण सामने है। भारत में इन मदों में खर्च अभी बहुत मामूली है।
सरकार को इसे बढ़ाने की जरूरत होगी। भारत जीडीपी का औसतन तीन फीसदी के करीब शिक्षा और औसतन 1.1 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करता है। दक्षिण अफ्रीका के लिए शिक्षा का यह आंकड़ा 6.1 फीसदी और स्वास्थ्य पर 3.7 फीसदी है जो हमसे कहीं ज्यादा है। सवाल यह भी है कि इतना रुपया कहां से आएगा। यदि सरकार ज्यादा पैसे खर्च करेगी तो उसे ज्यादा कमाई करनी पड़ेगी। सरकार की कमाई लक्ष्य से पीछे है। सुस्त अर्थव्यवस्था में तेजी के लिए व्यापक पैमाने पर खर्चे भी जरूरी हैं।
नाजुक स्थिति वाली अर्थव्यवस्था में सरकार बहुत ज्यादा कर भी नहीं लगा सकती। इसका एक ही उपाय है कि सरकार के जिन कई सार्वजनिक उद्यमों में उनकी पूंजी अटकी पड़ी है उनके पास जो खाली जमीनें पड़ी हैं, उनको बेचकर धन जुटाए और उसे बुनियादी ढांचे के विकास पर खर्च करे। जरूरत पड़ने पर घाटे के उद्यमों को बंद करके उनका विनिवेश किया जा सकता है। उन पर अब तक बहुत अधिक सार्वजनिक धन की बर्बादी की जा चुकी है।
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