भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए श्रम कानूनों में सुधार की जरूरत

भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में श्रमिकों की अहम भूमिका है, लेकिन वर्तमान समय में श्रमिकों से जुड़ी अनेक समस्याएं मौजूद हैं। देश में श्रमिकों की ज्यादा संख्या होने के कारण रोजगार की शर्तों में सुधार लाना और श्रमिकों से जुड़े मुद्दों का समाधान करना अति महत्वपूर्ण कार्य है। हालांकि श्रम कल्याण सरकार की प्राथमिकता में रहा है, लेकिन अभी भी श्रमिकों से जुड़े मुद्दे बरकरार हैं। इसलिए श्रम सुधार के प्रयास किए जा रहे हैं।
भारत में औद्योगिक संबंधों में बदलाव नब्बे के दशक की शुरुआत में मुक्त बाजार नीति को लागू करने के बाद दृष्टिगोचर होने लगा था, जिसकी पुष्टि श्रम ब्यूरो के आंकड़ों से की जा सकती है। हालांकि औद्योगिक विवादों में उल्लेखनीय कमी आई है, लेकिन अभी भी यह चिंता का विषय बना हुआ है। वर्ष 1979 में 3049 श्रमिकों से जुड़े विवाद लंबित थे, जो वर्ष 2011 में कम होकर 370 और वर्ष 2016 में घटकर 109 हो गए।
संविधान के अनुच्छेद 246 के अनुसार श्रम और श्रम कल्याण से जुड़े मुद्दों को समवर्ती सूची में रखा गया है। फिलहाल 44 केंद्रीय श्रम कानून हैं और 100 से अधिक राज्य श्रम कानून हैं। ये कानून 4 से 8 दशक पुराने हैं। इसलिये, इनकी प्रसंगकिता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, क्योंकि कई पुराने श्रम कानून आज अपनी उपयोगिता खो चुके हैं। मौजूदा नियमों के अनुसार कंपनियां श्रमिकों के मसले को आसानी से सुलझा नहीं पा रही हैं, जिनके कारण कानूनी जटिलताएं बढ़ रही हैं।
उदाहरण के तौर पर संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार सभी को विरोध का मौलिक अधिकार है, लेकिन हड़ताल करना मौलिक अधिकार नहीं है। हां, औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के मुताबिक कुछ संवैधानिक प्रतिबंधों के साथ यह एक कानूनी अधिकार है। कोई भी निवेशक अपने निवेश की सुरक्षा हेतु अनुकूल माहौल की तलाश करता है, जिसमें भूमि और श्रम संसाधन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
हालांकि, भारत में औद्योगिक विवाद कम हुए हैं, फिर भी दूसरे देशों की अपेक्षा ये अभी भी अधिक हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रमिक संगठन के पास उपलब्ध नवीनतम तुलनात्मक आंकड़ों के अनुसार भारत में 23.34 लाख कार्यदिवसों की बर्बादी हुई है, जबकि ब्रिटेन में यह 1.7 लाख, अमेरिका में 7.4 लाख और रूस में केवल 10,000 है। औद्योगिक विवाद अधिनियम (आईडीए) कानून का श्रम कानूनों के संदर्भ में महत्वपूर्ण स्थान है।
पहले 100 से अधिक श्रमिकों को नियुक्त करने वाले संस्थानों के लिए आवश्यक था कि वे श्रमिकों को बर्खास्त करने के लिये राज्य सरकार से अनुमति लें। अब 300 या 300 से अधिक श्रमिकों को बर्खास्त करने के लिए राज्य सरकार से अनुमति लेने की जरूरत है। श्रम नियमों के अनुसार 7 सदस्य मिलकर ट्रेड यूनियन का गठन कर सकते हैं, लेकिन पहले मामले में नियम इतने सरल नहीं थे। इससे जुड़ी कुप्रथाओं को ठीक करने में 75 वर्ष लग गये।
15 सितंबर, 2010 को सरकार ने औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 में धारा 9 सी की मदद से श्रम अशांति को दूर करने के लिए निवारक उपायों को शामिल किया है। श्रम नियमों के अनुपालन की उच्च लागत और केंद्र और राज्य स्तर पर विभिन्न श्रम कानूनों की वजह से उत्पन्न जटिलताओं के आलोक में केंद्र सरकार ने हाल ही में अनुपालन को आसान और प्रभावी बनाने के लिए नीतियां पेश की हैं।
दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग की सिफारिशों के आलोक में श्रम मंत्रालय ने केंद्रीय श्रम कानूनों के प्रावधानों को सरल और युक्तिसंगत बनाते हुए केंद्रीय श्रम कानूनों का संहिताकरण किया है। इस क्रम में इन्हें 4 भागों यथा, मजदूरी, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण, व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य में विभाजित किया गया है। चार संहिताओं में से एक मजदूरी के मुद्दे को लोकसभा में पेश किया गया है।
घरेलू कामगारों के लिए अलग से राष्ट्रीय नीति बनाई जाये, ताकि उनके अधिकारों को पहचानने और बेहतर काम करने के माहौल को बढ़ावा दिया जा सके। सभी कंपनियों को कारोबारों के सभी क्षेत्रों में कार्य करने की एक निश्चित प्रक्रिया बनानी चाहिए। कंपनियों को अधिकारी और कर्मचारियों के बीच उचित वेतन समता बनाए रखना चाहिए।
असंगठित क्षेत्रों या बहुत छोटी इकाइयों, जिनके पास ट्रेड यूनियन के प्रतिनिधित्व नहीं हैं के संदर्भ में सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मजदूरी या दूसरे मिलने वाले लाभों से वंचित नहीं हों। सरकार छोटी इकाइयों को सब्सिडी दे रही है। लिहाजा, ऐसी इकाइयों को श्रमिकों के प्रति जिम्मेदार बनाया जाना चाहिए। ऐसा करने से मजदूरों की दक्षता में इजाफा हो सकता है।
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